My expression in words and photography

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

नूतन वर्ष अभिनन्दन

नया साल मनाएँ

गए साल की बीती यादें
एक नया इतिहास बनाएँ
आओ हम सब मिल-जुल कर
यह नया साल मनाएँ.

जब चहुँ ओर हरियाली होगी
देश में तब खुशहाली होगी
जन-जन के जीवन को हम
एक सुखमय आदर्श बनाएँ
आओ हम सब मिल-जुल कर
यह नया साल मनाएँ.

स्वास्थ्य जीवन रक्षक होगा
स्वाध्याय हमारा लक्ष्य होगा
ऊँच-नीच के भेद मिटाकर
एक नया समाज बनाएँ
आओ हम सब मिल-जुल कर
यह नया साल मनाएँ.

समय तो यूँ ही चलता रहेगा
जो दुःख कल था कल न रहेगा
नए साल की पहली सुबह का
एक अभिनन्दन गान हम गाएँ
आओ हम सब मिल-जुल कर
यह नया साल मनाएँ.

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

दो लघु कविताएँ

मैं कौन हूँ ?

उसने पूछा
मुझसे
तुम कौन हो ?
मैंने कहा
आप बहुत अच्छे हैं !
मगर मैं वो नहीं
जो आप हैं.

आप अपने
व्यक्तित्व से
स्वयं को घटा दें
बस्स ...
जो अधिशेष है
वह मैं हूँ.!

नारी

नारी
अर्धांगिनी है...
पुरुष का
एक श्रेष्ठतर भाग
अगर
काम न आए
तो
बहुत बुरा.

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

बिना झोली का फकीर

श्वान
क्या आपने
देखा है कभी
कोई
बिना झोली का
फकीर
मैंने आज ही
देखा है उसे
फिर किसी की
चौखट के बाहर
बेसब्री से
ठंड में बैठे
इंतज़ार करते हुए
शायद कोई
डाल दे उसे
कुछ खाने को

सर्दी में
भूखा होने पर भी
इनको
रोटी के
एक टुकड़े की खातिर
करनी पड़ती है
भारी मशक्कत
खानी पड़ती हैं
दर दर की
ठोकरें
आसमाँ की
छत तले पलते हैं
इनके बच्चे

खदेड़ा जाता है
इनको
हर चौखट से
शायद
यही लिखा है
इनके मुक़द्दर में
ये हैं हमारी
गली के श्वान
जिन्हें लोग
कहते हैं
आवारा कुत्ते.

रविवार, 19 दिसंबर 2010

अंतरजाल पर ब्लॉग्गिंग

हम किधर जा रहे हैं ?
आज जहाँ भी देखो कोई किसी की बात सुनने को तैयार ही नहीं है. लोगों में असहिष्णुता इतनी अधिक बढ़ गई है कि छोटी छोटी बातों पर झगड़ने लगते हैं. अंतरजाल पर ब्लोगिंग के प्रचार एवं प्रसार से लोग अपने अंदर छुपी हुई अनुभूतियों को शब्दों में बयान करते हुए अक्सर देखे जा सकते हैं. कई लोगों की मान्यता है कि वो जो भी लिखते हैं वही सही है. ये लोग अपना लेखन लोगों को पढ़वाना तो चाहते हैं परन्तु कोई इस पर टीका-टिप्पणी करे, यह उन्हें कबूल नहीं है. आज जो भी पढ़ने की सामग्री अंतरजाल पर उपलब्ध है वह शब्दों या स्वर के माध्यम से दी गई है. दोनों में ही अपनी अपनी मर्यादाएं हैं. यदि यह स्वर है तो सुर का ख्याल रखना होगा नहीं तो सुनने वालों को ये बेसुरा लगेगा. अगर कोई व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से करता है तो उसे भाषा एवं व्याकरण के नियमों के अनुसार तो चलना ही होगा. लेकिन वर्तमान युग के लेखकों को यह कतई स्वीकार्य नहीं है कि कोई उनके लेखन में व्याकरण सम्बंधी दोष निकाले. अगर दोषारोपण सही भी है तो भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अशुद्ध लेखन को महिमा मंडित करने से बाज़ नहीं आते. ऐसा करने से शुद्ध लेखन में विश्वास करने वाले लोग तो निरुत्साहित होते ही हैं किन्तु इस प्रक्रिया में भाषा का भी कुछ भला नही होता. प्रस्तुत लेख का उद्देश्य किसी को भी व्याकरण ज्ञान देना नहीं है. लेकिन इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि अगर आपको अपने लेख पर किसी की भी टिप्पणी स्वीकार्य नहीं है तो इसे ब्लॉग पर देने की क्या आवश्यकता है? खुद पढते रहो और खुश रहो! अन्यथा ऐसे लेखक अपनी सामग्री अखबारों या रिसालों में छपवा सकते हैं जिन्हें पढ़ कर लोग रद्दी में फेंक देते हैं. अगर देखा जाए तो ब्लोगिंग किसी भी भाषा के विकास में एक महती भूमिका निभा सकती है.

तो क्या लोग ब्लॉग्गिंग का उपयोग अपने मन की भडांस निकालने के लिए अधिक करने लगे हैं? शायद यह बात किसी हद तक सही भी है. परन्तु उन्हें ऐसा करते समय तथ्यों एवं अर्थपूर्ण तर्कों का सहारा लेना चाहिए. बिना किसी तथ्य के किसी को सही या गलत बताने की प्रवृति से बचना चाहिए. ब्लॉग पर लोग आपके विचारों को जानना चाहते हैं और शायद पढ़ना भी. परन्तु अगर आपकी विचारधारा पाठकों के मानकों पर खरी न उतरे तो वे आपको तुरंत छोड़ भी सकते हैं. अतः लिखते समय यथा संभव संयम बरतें क्योंकि आपके चाहने वाले आपको बड़ी बारीकी से देख रहे होते हैं. हमारी सभ्यता शुरू से ही हमें आदर और स्नेह से बात रखने की प्रेरणा देती आई है. वाल्टेर ने कहा था कि हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत नहीं होऊं परन्तु आपके विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता की सदैव रक्षा करूँगा. दूसरों की बात को ध्यान से सुन कर उस पर प्रतिक्रिया देनी चाहिए. परन्तु कभी भी ऐसी प्रतिक्रिया को व्यक्तिगत न लें. अगर कोई व्यक्ति कविता, गज़ल या दोहे लिखता है तो उसके लेखन को एक बड़ा वर्ग तभी स्वीकार कर पायेगा जब यह लेखन शुद्ध हो ....व्याकरण के नज़रिए से भी और हाँ, साहित्य की गुणवत्ता के आधार पर भी इसे खरा उतरना होगा. वरना इसके लिए प्रतिकूल टिप्पणियों का सामना करना पड सकता है. आप जब भी कोई टिप्पणी दे वह रचना के सन्दर्भ में ही होनी चाहिए. रचनाकार के सम्बन्ध में कोई भी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए. कभी कभी ऐसा भी देखा गया है कि लोग टिप्पणियों पर ही अपनी अनावश्यक टिप्पणियाँ देने लगते हैं. ऐसा करने से ब्लॉग जगत में अराजकता जैसी स्थिति पनपने लगती है जिसे शालीनता से दूर किया जा सकता है. उल्लेखनीय है कि ब्लॉग लेखन में सहमति या असहमति से न तो किसी की जीत होती है और न ही हार. विवाद पैदा करने से कुछ नही मिलता ...सिवाय इसके कि लोग आपकी हरकतें देख कर आपको घूरने लगते हैं. अगर आपको किसी से नफरत है तो आप ब्लॉग पर ही न आयें. क्योंकि अगर ऐसा व्यक्ति ब्लॉग पर आकर कुछ लिखता है तो इसमें उसका स्वार्थ और शायद अहम अधिक आड़े आता है.

कहते हैं नफरत का सफर एक कदम दो कदम, आप भी थक जायेंगे और हम भी. मोहब्बत का सफर कदम दर कदम, न आप थकेंगे न हम. एक और महत्वपूर्ण बात भी यहाँ कहना यथोचित रहेगा कि बा अदब, बा नसीब. बे अदब बे नसीब. अर्थात जो आदर से व्यवहार नहीं करता उसका भाग्य भी उसके साथ नही रहता. अंतरजाल पर ब्लॉग लिखना एक सरल तथा सुन्दर कला है. कोई व्यक्ति अपनी अनुभूतियों को दूसरों के समक्ष लाकर संतोष का अनुभव करता है. परन्तु इस माध्यम से अगर कोई व्यक्ति वैमनस्य या घृणा का वातावरण सृजित करने लगे तो यह निंदनीय होने लगता है. आओ हम सब मिलकर यह प्रण करें कि हम अंतरजाल पर एक स्वस्थ एवं मनोरंजक परम्परा के ही वाहक बनेगे. अगर कुछ लोग इसमें सहयोग नहीं भी करना चाहें तो भी उनपर कोई ध्यान न देकर उन्हें यथासंभव हतोत्साहित करें. ऐसा करने से ब्लॉग जगत में न केवल अच्छे साहित्य का सृजन होगा अपितु लोगों को पढ़ने के लिए अच्छी सामग्री मिल सकेगी.

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

सुकूँ की तलाश

सुकून
मैंने देखा है
सुकूँ की तलाश में
भटकते हुए
लोगों को
न जाने कहाँ कहाँ
चंद हसरतों को
पूरा करके
समझ लेते हैं
कि उन्हें
मिल गया है
सुकून
शायद वो
सही नहीं हैं

बहुत कुछ
चाहते हैं लोग
अपनी जिंदगी से
लेकिन अंतहीन
ख्वाहिशों की
इस दौड़ में ही
खत्म हो जाती है
ये जिंदगी
फिर भी
नहीं मिलता
उनको सुकून

क्योंकि
सुकूँ तो
उसमें है जो
अपने पास है
और जो
अपना ही नहीं है
उसको
हासिल करके भी
कैसे मिल पायेगा
सुकून

रविवार, 12 दिसंबर 2010

देश में सार्वजनिक छुट्टियों का औचित्य

छुट्टियाँ...न बाबा न !
सार्वजनिक अवकाश के दुष्प्रभावों से आज कौन अनजान है? यदि किसी नेता का जन्म दिन है तो छुट्टी और अगर मृत्यु हो जाए फिर छुट्टी ! धार्मिक त्योहारों के नाम पर तो छुट्टियों की कोई सीमा ही नहीं है. हम ने कई राष्ट्रीय दिवसों को अवकाश घोषित कर रखा है. कई नेताओं की जन्म और पुण्य तिथि राष्ट्रीय अवकाश के रूप में हमारे बीच उपस्थित है. अगर देखा जाए तो जब-तब कोई न कोई छुट्टी आ ही जाती है. यदि हम अपने कार्य दिवसों पर नज़र दौडाएं तो पता चलेगा कि इनकी संख्या पूरे साल के एक तिहाई के बराबर भी नहीं है! हम सब इस बीमारी से किसी न किसी प्रकार जूझते ही रहे हैं.
जिन लोगों की रोज़ी-रोटी सरकारी कार्यालयों के बाहर चाय एवं जल-पान के ठेले लगा कर चलती है ...उनकी तो जान को ही बन आती है. पेट तो खाने को मांगता है. उसे क्या मालूम कि सरकारी अवकाश किस चिड़िया का नाम है? अगर एक या दो छुट्टी के साथ कोई बड़ी दुर्घटना या हड़ताल जुड़ जाए तो फिर एक और छुट्टी घोषित होते देर नहीं लगती. सरकारी कार्यालयों में काम न होने से हमारी जनता कितनी परेशान होती है, इसका शायद वही अनुमान लगा सकता है जो भुक्त-भोगी हो. लोग बैंकों से लेन-देन नहीं कर पाते और बहुधा चेक भुगतान के लिए कई दिन तक बैंकों में ही लंबित पड़े रहते हैं.
विश्व के आर्थिक दृष्टि से संपन्न देशों को अगर बारीकी से देखा जाये तो पता चलेगा कि वहाँ सार्वजनिक अवकाशों की संख्या न्यूनतम है. बिना किसी सटीक कारण के वहाँ कोई काम नहीं रुकता. राष्ट्रीय उत्पादकता में जबरदस्त गिरावट आ जाती है. देश में एक दिन काम रुकने से कई दिन तक इसकी भरपाई नहीं हो पाती. यह सब जानते हैं कि अगर हम दो दिन काम न करें तो तीसरे दिन हमारा शरीर भी निकम्मेपन का शिकार हो जाता है और इसे काम करने में तकलीफ होने लगती है. परन्तु हम में से कितने लोग वास्तव में इसके बारे में सोचते हैं?
तो क्या यह सरकार का दायित्व है कि वह सार्वजनिक छुट्टियों में कमी करे? क्या यह हमारे देश की वोट बैंक नीति नही है जो साल दर साल सार्वजनिक छुट्टियों में इज़ाफा करती जा रही है? क्या हमें राष्ट्र के बेहतर हित को ध्यान में रखते हुए इन छुट्टियों से किनारा नहीं कर लेना चाहिए? क्या हम साल में दो या तीन दिवसों को राष्ट्रीय गौरव के रूप में अवकाश रख कर काम नहीं चला सकते? क्या ऐसे भारत की संकल्पना असंभव है जो दिन में चौबीस घंटे काम कर सके? क्या हम वर्ष-भर अपने कार्यालयों एवं फेक्ट्रियों में काम होते नहीं देखना चाहते?
वास्तव में अगर देखा जाए तो इन छुट्टियों की छुट्टी कर देने के बहुत से लाभ हैं जो प्रत्यक्ष भी हैं और अप्रत्यक्ष भी. केवल छुट्टियों के दिनों में देश के लाखों बेरोजगार युवकों को काम मिलने से बेरोज़गारी पर तो अंकुश लगेगा ही..साथ में जो राष्ट्रीय उत्पादकता में अभिवृद्धि होगी उसका सहज अनुमान लगाना भी कठिन है. सरकारी कर्मचारियों को छुट्टी देने का कोई विरोध नहीं है बल्कि विरोध तो पूरे कार्यालयों को बंद रखने का है. लोगों को आकस्मिक अवकाश भी दिया जा सकता है और कार्यालयों में काम भी निर्बाध रूप से चलता रह सकता है. मगर यह सब हमारी सकारात्मक सोच पर ही निर्भर करता है.
क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं? अगर हाँ तो आइये हम सब मिलकर इस राष्ट्रीय बहस को किसी तर्क संगत अंजाम तक पहुँचाने की कोशिश करें. आखिर राष्ट्र-हित में ही तो हम सब का हित है. है कि नहीं !

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

आतंकवाद

दहशतऽऽऽ...!

जब कोई शख़्स
फैलाता है दहशत
तो भूल जाता है
कि उसने

कर दिया है ख़ून-
न सिर्फ़
अपनी माँ-बहन
भाई और बाप का,
बल्कि क़त्ल किया है
अपने ज़मीर का...!
उसे नहीं मालूम कि
कैसी दिखाई देगी
ये वहशत
ज़िंदगी के आईने में...?
शायद
इसी गफ़लत में
वह फैलाता
जा रहा है
दहशत-पर-दहश्त !

आतंकवाद

आतंक
इसका चेहरा बड़ा भयानक
जैसे हो कोई खलनायक
दुनिया भर में इस का जाल
कई देशों में इनकी ढाल.

आतंकवाद की कोई न सीमा
सब का चैन है इसने छीना
इसने कितनों के घर जलाए
आई मुसीबत बिना बुलाए.

हवाई जहाज़ अपहरण कराए
मासूमों के सपने चुराए
इसका नहीं कोई भी मजहब
आतंक फैलाना इसका मकसद.

सब मिलकर आवाज उठाएँ
दुनिया भर से इसे मिटाएँ
जब कोई संरक्षक न होगा
तब कैसे ये भक्षक होगा ?

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

माया ने ऐसा भरमाया

माया
माया ने ऐसा भरमाया
आँख खुली तो समझ में आया
कौन है अपना कौन पराया
माया ने ऐसा भरमाया.

अपने घर में भी थी रोटी
अच्छी लगती थी ऊँची कोठी
लालच ने तब जोर लगाया
और हम से स्वदेश छुडाया.
माया ने ऐसा भरमाया
आँख खुली तो समझ में आया
कौन है अपना कौन पराया.

धन दौलत अब राज करेगा
कल ना किया सो आज करेगा
इसने अपनों से दूर कराया
कुछ ऐसा भ्रम-जाल फैलाया.
माया ने ऐसा भरमाया
आँख खुली तो समझ में आया
कौन है अपना कौन पराया.

स्वार्थ में इसने अंधा बनाया
अंतर्मन से लज्जित करवाया
इसने हमको कपट सिखाया
मित्रों ने फिर दगाबाज़ बताया.
माया ने ऐसा भरमाया
आँख खुली तो समझ में आया
कौन है अपना कौन पराया.

माया महाठगिनी हम जानी
पर हम ने की थी मनमानी
इसी को अपना मीत बनाया
जो चाहा सो करके दिखाया.
माया ने ऐसा भरमाया
आँख खुली तो समझ में आया
कौन है अपना कौन पराया.
माया ने ऐसा भरमाया.

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

एक पेड़

पेड़ और हम
मेरे घर के सामने
खड़ा है एक पेड़
देखने में सुन्दर
हरा भरा और शान्त
न जाने
कब से खड़ा है
इसने
हमारे पुरखों को
ज़रूर देखा होगा
शायद वो सब भी
खेले होंगे
इसकी छाया में

सब कुछ
बदल गया है आज
यहाँ पर रहने वाले लोग
इस पेड़ के पत्ते और डाली
अगर कुछ नहीं बदला तो
वह है इसकी छाया
मुफ्त में बाँटता है सबको
और देता है सुकून
चाहे मौसम सुहाना हो
या तपता हुआ जून
कितने बदल गए हैं
हम लोग
अपने पड़ोसियों को
कभी नहीं मिलते
बिना मतलब के
कोई बात नहीं करते
शायद
एक दूसरे को देख
खुश भी न होते हों

हम को भी
पेड़ जैसा बना दो न
हे सर्वशक्तिमान ईश्वर !
मिलजुल कर रहें
सब खुश
एक ऐसा दो हमें वर
बाँटें सबको प्राण वायु
और मिटा दें
धरती का प्रदूषण
फिर निर्मल बने
यह वातावरण
एक दूजे को देख
यूं मुस्कुराएँ
अगली पीढ़ी भी
हमें न भूल पाए !

खून सफ़ेद हो गया है

रिश्ते
कहते हैं
रिश्तों में
दरार आ रही है
आजकल
रिश्ते टूट रहे हैं
भाई को भाई से
बहिन को भाई से
बच्चों को माँ बाप से
प्यार नहीं रहा
कहते हैं
खून सफ़ेद हो गया है
सबका
क्या वास्तव में ऐसा है
बिल्कुल नहीं
खून का रंग तो
लाल ही है
चाहे जब देख लो
तो क्या खून की
गरमी कम हुई है
ऐसा भी नहीं
तो फिर
क्या माजरा है ये सब
शायद दिल में
कुछ खोट है
हमारी सोच में
कोई पाप है
जो हर शय
खोटी लगती है
गंगा जल में
नहाने से तो
धुलता है
केवल तन
फिर भला कैसे
निर्मल होगा मन
जब तक मन का
पाप नहीं धुलेगा
तब तक नहीं होगा
ये मन उजला
और लगेगा कि
खून सफ़ेद है
क्योंकि
सोच पर चढ़ा है
स्वार्थ का चश्मा
जो दिखाता है
सब कुछ सफ़ेद
लाल खून भी
सफ़ेद...

सोमवार, 29 नवंबर 2010

हिन्दी

आजकल हिन्दी में बहुत सी भाषाओं के शब्द प्रयुक्त हो रहे हैं. इन देशज, विदेशज, तत्सम और तद्भव शब्दों में शायद उर्दू भाषा के शब्द बहुत अधिक हैं जिन्हें सब लोग आसानी से समझ लेते हैं. उल्लेखनीय है कि उर्दू वर्णमाला में “अलिफ़” पहला तथा “ये” अंतिम अक्षर होता है. उर्दू शब्दों का बढ़ता हुआ उपयोग हिन्दी भाषा की अदभुत संप्रेषणीयता एवं स्वीकार्यता से ही संभव हो पाया है. इसी भाव से प्रेरित होकर मैंने यह कविता लिखी है जो आज आपके समक्ष प्रस्तुत है.

हिन्दी हैं हम
यूं तो
कौमी एकता में
हिन्दी का
किरदार नुमाया है
लेकिन उर्दू ने
अलिफ़ से ये तक
अपना साथ निभाया है
देखो !
हिन्दी ने कितना बड़ा
दिलो जिगर पाया है
इसने न जाने कितने
उर्दू लफ़्ज़ों को अपनाया है
हर मुश्किल बोलचाल में
इसने आसान की है
मुल्क में तरक्की की राह
हमवार की है
इसके इस्तेमाल से
हिन्दी में नई रवानी है
जो जुबाने हिंद की
खूबसूरत कहानी है
कहते हैं
हिन्दी से
हिन्दुस्तान की
पहचान होती है
दुनिया में ये हकीकत
हर ज़ुबाँ से
बयान होती है
यूं तो
हमारे मुल्क में
कई ज़ुबानें बोलते हैं
मगर
भाई चारे की खातिर
सब हिन्दी बोलते हैं
बाहरी मुल्कों से बेशक
हम अपनी बात
अंग्रेजी में करते हैं
जनाब !
हिन्दी हैं
हम वतन हैं
हिन्दुस्तान में रहते हैं.

शनिवार, 27 नवंबर 2010

नई सुबह

एक लड़का
मैंने देखा
एक लड़का
जो गा रहा था
और बजा रहा था
सारंगी पर वे धुनें
जो थी जमाने के लिए
चला जा रहा था बस
अपनी ही धुन में
वह सबका
मनोरंजन करता हुआ
मुसीबत का मारा
लाचार बेबस
पैबंद लगे थैले में
ढो रहा था
शायद अपनी गरीबी
बढ़ता जा रहा था
आगे की ओर कहीं
अनजान पथ पर वह

आखिर क्यों होता है
ये सब
जमाने ने बनाया
गरीब इसको
होता है सबका
मनोरंजन क्यों इससे
मिलता है बदले में जो
रख लेता है वह उसको
न जाने कब लौटेंगे
वो दिन
जब गायेगा वह गीत
अपने लिए
और रहेगा जमाने में
फिर ऐसे
मुस्कुराती हुई
आती हो कोई
नई सुबह जैसे !

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

एक कविता

सब का सपना
यह मेरा ही नहीं
हम सब का सपना है
जब होगा सब के पास
रोटी कपडा और मकान
जियो और जीने दो पर
नहीं उठेगा सवाल
जैसा अधिकार होगा
वैसा ही कर्तव्य अपना है
यह मेरा ही नहीं
हम सब का सपना है

जब ना लड़ेगा कोई
धर्म या जाति के नाम पर
होगा आदर मानवता का
समानता के आधार पर
वसुधैव कुटुम्बकम की
उक्ति को साकार करना है
यह मेरा ही नहीं
हम सब का सपना है

बंटेगी जब नहीं धरती
अलग देशों के नाम से
बनेंगे नागरिक सारे
धरा के अपने आप से
समूची दुनिया को एक
शांतिप्रिय स्थल बनना है
यह मेरा ही नहीं
हम सब का सपना है

रविवार, 21 नवंबर 2010

दो लघु कविताएँ

पति और पत्नी
पति हमेशा पड़ता था
अपनी पत्नी पर भारी
बोला मेरी तनख्वाह से
फिर भी कम है
तुम्हारी मेहनत सारी
पत्नी बोली
भूल गए क्या
सुबह-सवेरे उठकर के जो
चाय मैं तुम्हें पिलाती
ऑफिस जाते समय टिफिन
जो अपने साथ ले जाते
लौट के तुम
जब वापिस आते
घर आँगन को सुन्दर पाते
पति हो चाहे कितना भारी
फिर भी रहता है आभारी
पति में छोटी इ की मात्रा
पत्नी में बड़ी ई है आती
फिर भी दोनों में कौन बड़ा है
समझ तुम्हें यह क्यों न आती !


थैली पोलीथीन की
अरे भाई
तूने यह
पोलीथीन की थैली
यहाँ क्यों गिराई
पर्यावरण को
शुद्ध रखने की बात
मेरे मन को भाई
पोलीथीन बहिष्कार जानकर
यह थैली
मैंने यहाँ गिराई.

शनिवार, 20 नवंबर 2010

एक कविता

अंतर्द्वंद
रहता हूँ मैं
अनजान जगह पर
ऐसा लगता है जैसे
कोई पेड़ उखाड कर
उगा दिया हो
एक अजनबी और
अनजान सी जगह पर
फिर भी लहलहाता हूँ मैं
बांटता हूँ दुःख-सुख लोगों के
यात्रा पर निकलते हैं जो दूर
थक कर बैठ जाते हैं
मेरी छाया में
और सोचते हैं
आगे बढ़ने की मंजिल पर
दूर करता हूँ मैं
इन सब की थकान
फिर सोचता हूँ कि
मैं कोई अजनबी
अनजान पथ पर नहीं
सब कुछ देखा–देखा सा है
मैं बोल नहीं सकता तो क्या
सुनता तो हूँ सब की बात
बांटता हूँ
सब में खुशियों के पल
बुझती हो जैसे प्यास
बिना पिए जल
सुनकर लोगों की करुण व्यथा
भूल जाता हूँ
मैं अपनी वेदना
पाकर प्रेरणा इन सब से फिर
खड़ा रहता हूँ
मैं एकदम अडिग
जैसे कभी उखड़ा ही न था !

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

बच्चों के लिए एक कविता

सबसे बड़ी सीख
चला जा रहा था मैं एक दिन
करने गांव की सैर
हुई दोपहर जंगल में फिर
नहीं जान की खैर
थोड़ी देर में आया हाथी
नहीं था मेरा कोई साथी
पहले तो कुछ दिल घबराया
बाद में फिर आगे बढ़ पाया
थोडा चलने पर रीछ मिला
उसने तो मुझ को देखा नहीं
पर मैंने उसको देख लिया
याद आई फिर एक कहानी
दो मित्रों की वही पुरानी
एक मित्र चढ़ गया पेड़ पर
दूजा गया लेट धरती पर
आया रीछ और गया सूंघ कर
दे गया सब को सन्देश नया
विश्वासघाती से बच कर रहना
नहीं कोई सीख इससे बढ़िया.

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

शाने-हिंद

हिन्दी
भारत की एक जुबान है
यह मेरे देश की शान है
सब हिन्दी में बातें करें
अब हिन्दी में ही लिखा करें.

प्राचीनतम यहाँ सभ्यता
विविधता में जहां एकता
दुनियां में इस का नाम है
यह मेरा देश महान है.
भारत की एक जुबान है
यह मेरे देश की शान है.

हम यूं बोलते कई बोलियाँ
फिर भी दूरियाँ हैं दरमियाँ
लोगों को अपने ये जोड़ती
यही एकता की मिसाल है.
भारत की एक जुबान है
यह मेरे देश की शान है.

आजाद हम और देश आज़ाद
मिलकर कहें सब जिंदाबाद
हिन्दी में सब की आन है
हिन्दी से सब की शान है.
भारत की एक जुबान है
यह मेरे देश की शान है.

गूंजेगी अब यह चारों ओर
आएगी लेकर नई सी भोर
हर जगह चर्चा ये आम है
अब हिन्दी सुबहो-शाम है.
भारत की एक जुबान है
यह मेरे देश की शान है.

हिन्दी दिलों को जोड़ती
मुल्कों की सरहदें तोड़ती
हिन्दी से अदभुत शान है
जो हिन्द की पहचान है.
भारत की एक जुबान है
यह मेरे देश की शान है.

आओ हिन्दी में बातें करें
अब हिन्दी में ही लिखा करें.

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

बच्चों के लिए


बूझो तो जानें
प्राणी जगत में मिलता यह
एक ऐसा विचित्र जीव है
जिस पर आज टिकी हुई
इस मरू-जीवन की नींव है.

मरुस्थल का जहाज़ कहलाता
हर मुश्किल आसान बनाता
रेतीली राहों पर चल कर
सब को अपनी मंजिल पहुंचाता.

सूखे के दिनों में कुछ न मिलता
कम चारे पानी पर रहता
काम मगर फिर भी यह करता
मेहनत से कभी न डरता.

अकाल से पीड़ित देहातों में
इनकी महिमा न्यारी है
इसका दूध है जीवन अमृत
जो स्वास्थ्यवर्धक गुणकारी है

बच्चों के लिए

नन्हे मुन्ने बच्चे
नन्हे मुन्ने बच्चे हमारे
लगते सब को प्यारे प्यारे
जैसे सूरज चांद सितारे
झिल-मिल चमकें आसमान में
वैसे ही इनका बचपन महके
हर घर आँगन संसार में
बच्चों में रहते भगवान
जिसको मानें सब इंसान
झूठ कभी इन्हें छू नहीं सकता
बचपन इनका भोला लगता
आओ सीखें इनसे सीख
मिल कर रहें तो सब हो ठीक
एक दूजे से करें न नफरत
उठ कर रोज करें सब कसरत
होंगे स्वस्थ तो खुशियां होंगी
चारों ओर दिवाली होगी !

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

ऐसे होती है कविता

कविता
सुबह सवेरे आसमां पर
जब लाली होती है
करते हैं खग कलरव
तो फिर कविता होती है.

पिघल कर बर्फ पहाड़ों से
जब झरना बनती है
बहता है पानी झर झर कर
तो कविता होती है.

छाए घटा घनघोर
तो फिर बरसात होती है
नाचे ऐसे में मोर
तो वह कविता होती है.

खिलें बागों में फूल
तो बहार आती है
गुनगुनाएं भंवरे कलियों पर
तो कविता होती है.

परोपकार में तो
दूसरों की भलाई होती है
हो जन जन की सेवा
तो फिर कविता होती है.

कहने को मेरे देश में
फसल भरपूर होती हैं
जब खाएं सब भरपेट
तो फिर कविता होती है.

मुस्कुराएँ सुखों में तो
न कोई बात होती है
गम में भी न घबराएं
तो फिर कविता होती है.

देखें दर्पण में तो
अपनी तस्वीर दिखती है
“दिल में क्या है” जो दिखाए
तो वह कविता होती है.

ईमानदारी यूं तो
सर्वोत्तम नीति होती है
हों बेईमान दण्डित
तो फिर कविता होती है.

सुख चैन कहाँ है?

सुख चैन कहाँ है
अहिंसा के नगर में
शान्ति की डगर पे
प्रेम गंगा बहे जहां
सुख चैन वहीँ है.

भाई चारा हो जहां
हर कोई प्यारा हो वहाँ
बजे चैन की बंशी जहां
सुख चैन वहीँ है.

अभाव से मुक्त हो
अभय से युक्त हो
स्वतंत्र समाज है जहां
सुख चैन वहीँ है.

स्वार्थ से दूर हो
परमार्थ को समर्पित हो
मिले पाप से मुक्ति जहां
सुख चैन वहीँ है.

न छज्जू के चौबारे
न बलख न बुखारे
हमारे सब हो जहां
सुख चैन वहीँ है.

सोमवार, 1 नवंबर 2010

ऐसी है हिन्दी

ऐसी है हिन्दी
कहते हैं हिन्दी ऐसी है या वैसी है
कोई कहता है ना जाने कैसी है
भई हम तो बस इतना जानते हैं
ये वैसी है जैसी आप लिखते हैं
पढते हैं और खूब समझते भी हैं.

ये है माँ जैसी करुण सीधी-सादी
सरल सहज और नाज़ुक सी
न तो कठोर जो कहीं चोट करे
और न ही इतनी नर्म है कि
कोई महसूस ही न कर पाये.

हिन्दी तो है एक ठंडी बयार
जो शीतलता दे सब को और
आत्मसात कर ले दूसरों के
कड़वेपन को भी अपने अन्दर
और लगे जैसे पानी में पानी.

बोलियों के समुन्दर में जैसे
एक मोती सी चमकती बूँद
सर्द मौसम में नर्म सी धूप
जो सब को गर्माहट तो दे
मगर बदन को न जलाये.

एक प्रेम की बोली जो आप
हम और शायद सब बोलते हैं
एक अहसास माँ की जुबाँ का
जो सब को है मगर फिर भी
हिन्दी बोलने से हिचकिचाते हैं.

ये हमारी राजभाषा भी है
मुझे बहुत अच्छी लगती है
और शायद आप सबको भी
फिर क्यों नहीं अपनाते अपनी
मातृभाषा यानि हिन्दी को ?

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

आओ मनाएं इस बार दिवाली

दिवाली
आओ सजाएं इस बार दिवाली
दिए मोमबत्तियों से नहीं
बल्कि साक्षरता के प्रसार से
और भी होगी प्रकाशमान दिवाली!

आओ खेलें इस बार दिवाली
आतिशबाजी या पटाखों से नहीं
बल्कि बालश्रम मुक्ति से
और भी सुखमय होगी दिवाली!

आओ पूजें इस बार दिवाली
प्रदूषण एवं शोर से नहीं
बल्कि शांत वातावरण में
देवों के आने से रोशन होगी दिवाली!

आओ संवारें इस बार दिवाली
दिखावे की सजावट से नहीं
बल्कि सादगी व पवित्रता से
और भी शालीन होगी दिवाली!

आओ मनाएं इस बार दिवाली
मिठाइयों व पकवानों से नहीं
बल्कि मित्रों में मुस्कान बाँट कर
और भी रंगबिरंगी होगी दिवाली!

आओ दिखाएँ इस बार दिवाली
शराब या जुआ खेल कर नहीं
बल्कि सभी बुरे काम छोड़ कर
और भी सुरमय हो जायेगी दिवाली!

आओ देखें इस बार दिवाली
केवल अपनी ही आँखों से नहीं
बल्कि नेत्रदान संकल्प करके
जीवनोपरांत भी जगमग होगी दिवाली!

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

वतन की याद

मेरा वतन
मुझे आज मेरा
वतन याद आया
भूला ही कहाँ था
जो फिर याद आया
मुझे आज मेरा
वतन याद आया.

दोस्तों से मुलाकातें
वो मोहब्बत की बातें
ठंडी ठंडी बयार में
गुजरती थी रातें
था सब कुछ तो अपना
नहीं कुछ पराया
मुझे आज मेरा
वतन याद आया.

वो माँ की दुलारें
अपनों की मनुहारें
कभी नर्म धूप और
फिर ठंडी बौछारें
हर शाख पर थी रौनक
हर गुंचा मुस्कुराया
मुझे आज मेरा
वतन याद आया.

कोयल के सुरों में वो
सावन के हसीं झूले
कितना ही भुलाया
मगर फिर भी नहीं भूले
जैसे ही घटा बरसी
बरबस वो याद आया
मुझे आज मेरा
वतन याद आया.

पल पल में शोख मस्ती
हर लम्हा हसीन
रहते थे मिल के ऐसे
जिंदगी थी पुर-सुकून
न जाने किस घडी मैं
अपना घर छोड़ आया
मुझे आज मेरा
वतन याद आया.

वो दिलकश अदाएं
देखते ही मुस्कुराना
जाते हो तो सुनो जी
घर जल्दी लौट आना
उठते ही रोज सुबह
उसका ख्याल आया
मुझे आज मेरा
वतन याद आया.

भूला ही नहीं मुझ को
अब तक भी वो मंजर
वो जुदाई के लम्हे
थे जैसे कोई खंज़र
न चाहते हुए भी मैं
वहाँ सबको छोड़ आया
मुझे आज मेरा
वतन याद आया.

वो अहिंसा की धरती
है जो अमन की निशानी
कही जो बात सबने
हमने भी वही मानी
मुझे नाज़ इस पर
मैं हूँ भारत का जाया
मुझे आज मेरा
वतन याद आया.

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

एक अभिव्यक्ति छोटी सी

दिलों को जीतो
समझ नहीं आता
कि क्यूं बोलते हैं
सारे जहां के लोग
एक ही भाषा में
क्या इसलिए कि
झूठ और कपट की जुबाँ
सब जगह एक समान है.

क्यूं डरता है मानव
मानव से
क्या इसलिए कि मानव
मानव नहीं
दानव बन गया है.

क्यूं भूखे मरते हैं लोग आज भी
इसलिए कि कुछ लोगों की भूख
बहुत अधिक बढ़ गई है.

क्यूं झगड़ते हैं मेरे देश के लोग
इसलिए कि सब अपने अपने
स्वार्थ में अंधे हो गए हैं.

क्यूं लड़ते हैं दो देश आपस में
क्या इसलिए कि वो चाहते हैं
सारे जहां में उनका राज हो.

आखिर कब तक चलेगा ये सिलसिला
खून बहेगा कब तक मानवता का
जब कोई नहीं बचेगा इस युद्ध में
तो कौन जीतेगा किसको
और राज करेगा कौन
किस पर ?

जीतना ही है तो दिलों को जीतो
राज करो केवल दिलों पर
दुनिया पर नहीं
दुनिया पर राज करने की चाहत में
न जाने कितने लोग
उठ गए हैं इस दुनिया से.

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

मैं कोई कवि नहीं

प्रस्तुत कविता के सन्दर्भ में आपसे निवेदन करना चाहूंगा कि यहाँ “कवि” शब्द का प्रयोग स्वयं के लिए नहीं अपितु उन परिस्थितियों के लिए किया है जिनमें कविता लेखन सुगमता से हो सकता है. जहां तक मेरा प्रश्न है मैं वास्तव में कोई कवि नहीं हूँ ...हाँ थोड़ी बहुत अपने विचारों की अभिव्यक्ति इस ब्लॉग के माध्यम से करता रहता हूँ. आशा करता हूँ कि मुझे आप सब प्रबुद्ध जनों एवं कवियों का आशीर्वाद एवं स्नेह प्राप्त होता रहेगा.

मैं कोई कवि नहीं
न ही पहुँच सकता हूँ
वहाँ जहां न पहुंचे रवि
मैं कोई कवि नहीं.

जीवन में जब कष्ट न हों
मुख से निकली कोई आह न हो
अंतर्मन में कोई घाव नहीं
मैं कोई कवि नहीं.

प्रकृति में कोई निखार न हो
बागों में छाई बहार न हो
पेड़ों पर पंछी गाएं नहीं
मैं कोई कवि नहीं.

आकाश में बादल छाये न हों
मधुवन में नाचे मोर न हों
बिन बादल के बरसात नहीं
मैं कोई कवि नहीं.

स्वतंत्रता का संघर्ष न हो
जुल्मों का सहना सहर्ष न हो
फिर भी मन में कोई पीड़ा नहीं
मैं कोई कवि नहीं.

समाज में छोटा बड़ा न हो
छोटी बातों पर अडा न हो
आपस में कोई भेद नहीं
मैं कोई कवि नहीं.

कवि बहुत हैं दुनिया में
रहते हैं बड़ी बड़ी सुविधा में
धन दौलत से भी तृप्ति नहीं
मैं कोई कवि नहीं.

असली कवि जहां मिलता है
वहाँ रवि भी दुर्लभ रहता है
ढूँढ पाना फिर भी कठिन नहीं
मैं कोई कवि नहीं.

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

बात छोटी सी है-

हमारा पर्यावरण

आजकल हम सब अपने पर्यावरण की तो बहुत फिक्र करते हैं परन्तु इसे साफ़ सुथरा बनाने के लिए कुछ भी नहीं करते. यदि हम कुछ छोटी छोटी बातों पर ध्यान दें तो न केवल पर्यावरण को शुद्ध रख सकेंगे अपितु अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अच्छे वातावरण का सृजन कर पाएंगे.
अपने घर और दफ्तर में अनावश्यक पानी की बर्बादी न होने दें. यदि आवश्यकता न हो तो पानी की टूंटी बंद कर दें. जहां तक संभव हो पानी की बचत करें. सब्जियों व फलों को धोने के बाद पानी को फेंकने की बजाये उसे पौधों की सिंचाई में उपयोग करें. अपने फ्रिज के दरवाजे को आवश्यकता से अधिक देर तक खुला न रखें. ऐसा करने से बिजली की काफी बचत होती है. इसी प्रकार घर के सभी विद्युत उपकरण केवल आवश्यक होने पर ही चलायें.
पानी गर्म करने के लिए सोलर हीटरों का प्रयोग करें. इसी प्रकार सोलर कुकर द्वारा बनाया गया भोजन पौष्टिक एवं स्वादिष्ट होने के साथ साथ उर्जा की खपत कम करता है. बार बार चार्ज होने वाली बैटरियों का उपयोग करें और कागज, कांच, प्लास्टिक तथा अन्य व्यर्थ पदार्थों को पुनः चक्रण द्वारा उपयोग में लायें. वर्षा के पानी का संग्रहण करें ताकि इसे आवश्यकता पड़ने पर उपयोग में लाया जा सके. जब आप बाज़ार में जाएँ तो प्लास्टिक से बने थैलों का उपयोग न करें. सूत या जूट से बने थैले बाज़ार में लेकर जाएँ. यथा संभव पुनः चक्रित होने वाले ऐसे पदार्थों का चयन करें जो स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न डालें. केवल ऐसे घरेलू उपकरण ही खरीदें जो उर्जा की खपत में बचत कर सकें.
रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग करने की बजाय प्राकृतिक उत्पादों को ही उपयोग में लायें. ऐसे पौधे उगायें जो कीटों को दूर भगाते हैं. नीम व लहसुन के तेल को मिला कर रोग-ग्रस्त पेड़ों, पोधों एवं झाडियों पर छिडकें. इससे जीवाणु व फफूंद नष्ट हो जाते हैं. मिटटी उपजाऊ बनाने के लिए कम्पोस्ट खाद को उपयोग में लाया जा सकता है. घर से निकलने वाले कचरे जैसे सब्जियों-फलों के छिलके और वाटिका में गिरे पेड़ों के सड़े-गले पत्तों से कम्पोस्ट खाद बनाई जा सकती है. रासायनिक खाद प्रयोग करने से ग्रीन हाऊस गैसों जैसे नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है. ग्रीन हाऊस गैसों से वायु प्रदूषण होता है तथा वैश्विक ताप वृद्धि का खतरा बढ़ता है. अधिक से अधिक पेड़ लगाएं ताकि पर्यावरण स्वच्छ रहे. बागवानी के काम में अनावश्यक विद्युत उपकरण उपयोग न करें. प्राकृतिक अभ्यारण्यों एवं पार्कों में सैर-सपाटे के लिए जाएँ ताकि प्रकृति व पर्यावरण के प्रति प्रेम और सौहार्द बना रहे. पार्कों में वन्य जीवों के साथ छेड़छाड़ न करें. इन्हें दूर से ही निहारें तथा इनके निकट स्वचालित वाहन आदि लेकर न जाएँ.
जहां तक संभव हो सार्वजनिक परिवहन सुविधा प्रयोग करें ताकि वाहनों से निकलने वाले धुएँ को कम किया जा सके. ऐसे वाहन उपयोग में लायें जो कम से कम मात्रा में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन करें. निरीह पशुओं की खाल व अंगों से बने किसी उत्पाद को उपयोग न लायें. केवल ऐसे होटलों में ठहरें जो पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हो तथा ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्रोतों पर अधिक निर्भर हों.

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

कविताएँ

ईद
रोज होती है यहाँ
शब से सहर
मगर तुम कहीं
नहीं आते नज़र.

जिस दिन भी
तुम्हारी दीद होगी
अपनी तो उसी दिन
ईद होगी.

चांद देखकर
होगी पूरी मुराद
मेरी ओर से
ईद की मुबारकबाद !

खुदा करे आपकी
हर रोज ईद हो
मुमकिन है मुझे भी
अब तुम्हारी दीद हो !

एक चांद मेरे सामने
और एक आसमां में होगा
कारवाँ खुशियों का फिर
हमारे दरमियां होगा.

रविवार, 4 जुलाई 2010

हिन्दयुग्म.कॉम का अनूठा प्रयास

उम्र के इस मुकाम पर बहुत कुछ कहने को मन करता है। अगर कोई शख्श शतायु होने की सोच रखता हो तो समझो उस की आधी उम्र तो ऐसे ही कट गई। आखिर क्या वजह हो सकती है इतनी देर से शुरुआत करने की? सूचना प्रोद्योगिकी के इस दौर में अगर आपने अपनी बात दूसरों के आगे रखने के लिए इन्टरनेट को माध्यम नहीं बनाया तो फिर इसका कोई फायदा नहीं होगा। मैंने आज ही हिन्दयुग्म.कॉम के सौजन्य से नई पहल की है जो काफी सार्थक एवं सुखद प्रतीत हो रही है। मानो मेरी कल्पना को नए पर लग गए हों! मन ऊंची उडान पर जाने की सोच रहा है। खुद को अति उत्साहित अनुभव कर रहा हूँ मैं। ये ऊर्जा स्वयं में पहले से विद्यमान तो थी परन्तु ज़ाहिर करने का कोई तरीका नहीं था। मैं शुक्रगुजार हूँ हिन्दयुग्म का जो हम सब की जुबान को अपनी बोली में तब्दील करने की लम्बी कवायद में लगे हैं। मैं ऐसे तमाम लोगों को अपनी शुभ कामना देना चाहता हूँ जो इस पुनीत कार्य में अपने अपने तरीके से आहुति दे रहे हैं। न जाने कितने लोग हैं जो अपनी बात इन्टरनेट से कई लोगों तक पहुँचाना तो चाहते हैं मगर अंग्रेजी की कम जानकारी के चलते स्वयं को अक्षम पते हैं। हमारी अपनी बोली में कितनी लज्ज़त है, इसका अंदाज़ा तो आप हिंदी यानि अपनी ज़बान में ब्लॉग पढ़ कर ही लगा सकते है। अगर आप से कोई अंग्रेजी में हंसाने को कहे तो आपको कैसा लगे गा? हंसना, हँसाना, रोना, विस्मय करना और सब तरह की अनुभूतियाँ हम अपनी बोली के ज़रिये ही चेहरे तक ला सकते हैं। हमारी विचार धरा भी अपनी बोली से ही जुड़ी है। हम अंग्रेजी पढ़ कर हिंदी में सृजन करने की नहीं सोच सकते। अपनी बोली में जो लज्ज़त है सो कहीं भी नहीं। आप दुनिया की अन्य ज़ुबाने सीख सकते हैं और बोल भी सकते हैं मगर जो आनंद अपनी बोली में अपनी बात रखने का है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस ब्लॉग के माध्यम से में आप से अनुरोध करता हूँ के आप भी एक बार हिंदी लिख कर व बोल कर देखें कितना सुख मिलता है? बहुत कुछ कहने को मन है परन्तु आज के लिए इतना ही। हिन्दयुग्म.कॉम को मेरा एकबार फिर साधुवाद एवं धन्यवाद्।