My expression in words and photography

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

बातां ऊंटा री!

बातां ऊंटा री हो, बातां ऊंटा री!
जावो कठी थे इण ने भूल सके न कोई
बातां ऊंटा री हो! बातां ऊंटा री!
सुणूला मैं बातां, ऊंटा री न्यारी-न्यारी
बातां ऊंटा री हो! बातां ऊंटा री!

सवारी ऊंटा री हो, सवारी ऊंटा री
सबसूं  निराली है, ये जाने दुनिया सारी
सवारी ऊंटा री हो, सवारी ऊंटा री!
म्हारो मन तरसे, हो म्हारो मन तरसे
मैं भी करूंला आंगी सवारी, हो सवारी
सवारी ऊंटा री हो, सवारी ऊंटा री!

सारा जग जाणे हो, सारा जग जाणे
ऊंटनी रो दूध, कितना होवे गुणकारी
म्हारे मन भावे, हो म्हारे मन भावे!
ऊंटनी रे दूध सूं बने है बढ़िया मिठाई
सारा जग खावे, हो सबके मन भावे
ऊंटनी रा दूध, है बहुत ही गुणकारी! 

ताकत ऊंटा री हो, ताकत ऊंटा री
बोझ उठावे ओ तो सबसूं ही भारी.
म्हारो मन बोले, हो भेद ये सब खोले
बातां ऊंटा री हो, बातां ऊंटा री!
जाणे है ये दुनिया, म्हारा मन भी ओ बोले

बातां ऊंटा री हो, बातां ऊंटा री!

क्या हमारे देश में असहिष्णुता है?


आजकल हमारे देश में असहिष्णुता को लेकर चर्चा का बाज़ार गर्म है. कुछ लोगों का कहना है कि देश में असहिष्णुता बहुत बढ़ गई है. आपका क्या ख्याल है? मुझे तो ऐसा लगता है कि इस विषय पर हमें गहन चिंतन करने की आवश्यकता है तभी किसी उपयुक्त निष्कर्ष तक पहुँचा जा सकता है. आइए, हम सब इसके बारे में गैर-राजनैतिक ढंग से सोच-विचार करें! हमारे देश की आबादी दुनिया में दूसरे स्थान पर है तथा यहाँ विभिन्न मजहब एवं सम्प्रदाय के लोग सदियों से मिल-जुल रहते आए हैं. सदियों से हमारा समाज बहुसंप्रदायवादी रहा है परन्तु फिर भी कुछ राजनैतिक दलों के लोग निहित स्वार्थ के लिए बार-बार हमें यह बताने की कोशिश करते रहते हैं कि हम असहिष्णु हो गए हैं. क्या वास्तव में ऐसा हुआ है? कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं दिखाई देता. आप घर से निकल कर अपने पूजा स्थलों की ओर जाते हैं तो सभी जानकार लोग आपका अभिवादन परम्परागत ढंग से करते हुए दिखाई देते हैं. कोई नमस्कार करता है, तो कोई जय राम जी की! कोई असलामवलेइकुम कहता है तो कोई गुड मोर्निंग. लब्बो-लुआब ये है कि अभिवादन करने के ढंग पर किसी को कोई एतराज़ नहीं है. इसका अर्थ ये हुआ कि हम सब एक दूसरे का अभिवादन एवं पूजा पद्धति सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं! क्या यह हमारी सहिष्णुता का परिचायक नहीं है कि हम सब बिना मजहब को बीच में लाए एक दूसरे की शुभकामनाएं और अभिवादन स्वीकार कर रहे हैं? क्या ऐसा करने के लिए किसी क़ानून ने हमें पाबन्द किया है? अगर नहीं, तो बारहा इस विषय पर प्रश्न-चिन्ह क्यों लगाया जाता है कि देश में सहिष्णुता कम हो रही है? क्या इतने बड़े देश में चंद अप्रिय घटनाओं को असहिष्णुता का नाम दिया जा सकता है? ऎसी अपराधिक घटनाएं सभी देशों में होती रहती हैं जिन पर सख्त कानूनी कार्यवाही करने की आवश्यकता है.


यहाँ सभी जातियों एवं धर्म के लोग एक ही जहाज़, बस या रेल में सफर करते हैं. क्या कोई इन्हें स्थान विशेष पर उतरने के लिए बाध्य करता है? कदाचित नहीं. कोई भी व्यक्ति जहां जी चाहे जा सकता है. यहाँ किसी रोक-टोक का तो सवाल ही नहीं है. स्कूलों में भी सभी मजहबों के लोग एक साथ बैठ कर शिक्षा ग्रहण करते हैं. कोई ऊँच-नीच नहीं है. यदि कोई फर्क है तो वह भी कुछ लोगों ने आरक्षण एवं वोटों की मिली-जुली राजनीति के अंतर्गत ही विशेषाधिकार द्वारा प्राप्त किया है जिसके लिए उनकी अपनी सहमति है. तो क्या देश में सभी धर्मों के लोग एक ही शहर या कालोनी में निवास नहीं करते? जब आप बाज़ार से सामान खरीदते हैं तो क्या बेचने वाले से उसकी जाति या धर्म पूछते हैं? हम सब आमतौर पर किसी भी टी-स्टाल पर चाय पी लेते हैं. कम से कम मुझे तो ऐसा याद नहीं आ रहा कि जब मैंने किसी चाय वाले से उसका नाम ही पूछा हो. क्या आप अस्पताल जा कर पहले डाक्टर से उसका नाम या मजहब पूछ कर अपना इलाज़ करवाते हैं? कभी नहीं. तो क्या आप खून चढ़वाते समय रक्तदाता का धर्म या जाति पूछते हैं? अगर नहीं तो क्या यह सब हमारी असहिष्णुता एवं भाई-चारे का परिचायक नहीं है? इन सब बातों के बा-वजूद हमें अपनी असहिष्णुता का इम्तिहान बार-बार क्यों देना पड़ता है? आइए, इसका पता लगाते हैं.


यहाँ एक बात का उल्लेख करना अति आवश्यक है कि आजकल हमारी सहिष्णुता की मिसाल वास्तव में अद्वितीय है. देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, बढ़ती हुई महँगाई, जमाखोरी, बेरोजगारी से हम ज़रा भी विचलित नहीं होते. इन विषयों पर किसी न्यूज़ चैनल ने चर्चा करवा कर कभी यह नहीं कहा कि हमारी सहिष्णुता उच्चतम स्तर पर पहुँच गई है. हम अपने चारों ओर भ्रष्टाचार को अच्छी तरह पनपते हुए देख रहे हैं. हमें रिश्वतखोरों से कोई परहेज़ नहीं है. स्पष्ट है कि इस प्रकार की सहिष्णुता से राजनैतिक दलों को लाभ मिलता है तथा वे नहीं चाहते कि लोग इन मुद्दों को लेकर कभी उनके विरुद्ध आंदोलन न छेड़ दें.


हमारे देश में बरसों से केवल एक ही राजनैतिक दल की सत्ता रही है. इतनी लम्बी अवधि तक सत्ता में काबिज रहने से कुछ लोग घमंडी तथा निरंकुश हो कर दोबारा सत्ता हथियाने के लिए ओछी राजनीति पर उतर आए हैं. जनता द्वारा नकारे गए भ्रष्ट राजनेता सत्ता पाने के लिए अपने देश को बदनाम करने एवं नीचा दिखाने से भी बाज़ नहीं आते. यह सच है कि हमारे देश में सभी को बोलने की स्वतंत्रता है. परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि आप कुछ ऐसा बोलने लगें कि जिसे दूसरे लोग स्वयं को किसी संभावित खतरे में अनुभव करने लगें! जब बात निकलती है तो दूर तक जाती है. अगर किसी को किसी से कोई ख़तरा ही नहीं है तो फिर बार-बार ऐसा कहने की आवश्यकता ही क्यों है? जाहिर है, इस तरह की हरकतों से समाज में अविश्वास फैलता है. जो लोग अत्यधिक संवेदनशील होते हैं, उन्हें ये सब नागवार गुज़रता है. अतः हम सबको कुछ बोलने से पहले तोलना जरूर चाहिए. रही बात असहिष्णुता की, तो यह सत्य है कि साधारण परिवार में सहिष्णुता की बहुत कमी है. आज बाप बेटे की बात नहीं सुनता और बेटा बाप की नहीं. पारिवारिक कलह बढ़ रही है जिसकी पुष्टि अदालतों में लंबित लाखों मुकद्दमों से की जा सकती है. हमारे परिवार टूट कर बिखरने लगे हैं. पति-पत्नी में छोटी-छोटी बातों से तलाक तक की की नौबत आ जाती है. परन्तु पारिवारिक असहिष्णुता का कहीं कोई ज़िक्र ही नहीं मिलता. करण स्पष्ट है कि इससे किसी परिवार का भला तो हो सकता है किन्तु राजनेताओं को कोई लाभ नहीं मिल सकता.


पिछले दिनों हमारे देश में कुछ अमानवीय एवं झकझोरने वाली घटनाएं सामने आई हैं जो चिंता का विषय है. किसी को किसी की शक्ल अच्छी न लगे तो वह उस पर कालिख पोतने पर उतर आता है. अभी कल ही की एक घटना में किसी भिखारी को भीख नहीं मिला, तो उसने भीख न देने वाले व्यक्ति को ही चलती गाड़ी के आगे धक्का दे दिया. यह बात अलग है कि वह स्वयं भी उसी गाड़ी की चपेट में आ गया. ये सभी अपराधिक घटनाएं हैं जिन्हें साम्प्रदायिकता का जामा नहीं पहनाया जा सकता. अगर नियत सही न हो तो भीख मांगने वाला व्यक्ति भी किसी न किसी मजहब का रहा होगा. अगर उसने किसी दूसरे मजहब के व्यक्ति को धक्का दे दिया तो इसका अर्थ यह कैसे हो गया कि लड़ाई मजहबी है? सारा झगडा तो भूख का है. जब लोगों को भरपेट या जेब-भर नोट नहीं मिलते तो वह ऎसी ओछी हरकतों पर उतर आते हैं. चुनावों में हमारे नेता संयम से कोई बात नहीं करते. ऐसे में सामान्य नागरिक क्या कर सकता है? देश का आम नागरिक इन सभी घटनाओं से चिंतित है.


हाल ही में हमारे देश में साहित्य पुरस्कार प्राप्त करने वाले कुछ लेखक अपना सम्मान लौटाने में रूचि ले रहे हैं. इनका कहना है कि वे ऐसा बढ़ती हुई असहिष्णुता के विरोध में कर रहे हैं. हमारे देश की जनसँख्या 125 करोड़ से अधिक है तथा सम्पूर्ण विश्व में ऎसी विविधता की मिसाल शायद ही कहीं ओर हो. इसीलिए इसे विविधता में एकता का देश भी कहा जाता है. अगर ऎसी घटनाओं के लोग असहिष्णुता को बढ़ावा दे रहे हैं तो हमारे साहित्यकार क्या कर रहे हैं? क्या उनकी लेखनी अब निस्तेज हो गई है जो लोगों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित नहीं कर सकती? क्या हमारा लेखक वर्ग स्वयं असहिष्णुता को बढ़ावा नहीं दे रहा? क्या हम दूसरों द्वारा विरोध प्रकट करने पर अधिक संवेदनशील नहीं हो गए हैं? अगर इन साहित्यकारों को अपना सम्मान लौटना ही है तो इस पर राजनीति क्यों हो?


सम्मान लौटाने के भी अपने ढंग होते हैं. पुरस्कार स्वरुप प्राप्त की गई सारी धन राशि व्याज समेत लौटाई जानी चाहिए. क्या कुछ लोगों के असहिष्णु होने में सरकार का कोई योगदान है? अगर नहीं तो फिर इसके लिए सरकार को ही क्यों कोसा जाता है? करे कोई, भरे कोई! लगता है अब सरकार को भी पुरस्कार बांटते समय ‘अंडरटेकिंग’ लेनी होगी कि पुरस्कार विजेता भविष्य में राजनैतिक अथवा अन्य कारणों से अपना इनाम नहीं लौटाएगा. जब ऐसे लेखकों की लेखनी दम तोड़ने लगे तो ये अपनी ‘जीवन संध्या’ में ऐसी ही कोई बात करते हैं जिससे ये ख़बरों में बने रह सकें. जब चंद सरफिरे लोगों की बातों पर ही लेखक वर्ग उत्तेजित होने लगे तो इनकी असहिष्णुता कहाँ चली गई? क्या ये लोग इस इस बात का जवाब अपने देशवासियों को दे पाएंगे? कमोबेश सभी न्यूज़ चैनल वालों ने इस विषय पर बहस करवाई है. उल्लेखनीय है कि किसी भी चैनल ने पुरस्कार न लौटाने वाले व्यक्तियों का पक्ष जानने की कभी कोई कोशिश नहीं की जबकि इन लोगों की संख्या हज़ारों में है! क्या यह अत्यंत पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं है? उल्लेखनीय है कि हम केवल वही सुनना चाहते हैं जो हमें अच्छा लगता है. यदि कुछ अच्छा न लगे तो हम या तो बोलने वाले को चुप करवाते हैं या फिर ऊंचे स्वर में वह बात कहते हैं जिसे कोई सुनना नहीं चाहता! क्या आप इसे असहिष्णुता कहेंगे? सारा मामला बोलने की आजादी को लेकर है. अधिकतर लोग इस आजादी का दुरुपयोग करते हैं जिसे लोगों ने असहिष्णुता मान लिया है परन्तु वास्तव में असहिष्णुता जैसी कोई समस्या हमारे देश में है ही नहीं. ये सब तो भ्रष्ट राजनेताओं के मस्तिष्क की ओछी सोच है जो लोगों को आपस में झगड़ने के लिए प्रेरित करते रहते हैं.