My expression in words and photography

सोमवार, 19 जनवरी 2015

एम.एस.जी. पर बवाल क्यों?

"सच्ची बात कही थी मैंने
लोगों ने सूली पे चढ़ाया
मुझको ज़हर का जाम पिलाया
फिर भी उनको चैन ना आया
सच्ची बात कही थी मैंने!"
जी हाँ, ऐसा ही कुछ एम.एस.जी. फिल्म में हुआ है. सच्ची बात किसे कड़वी नहीं लगती? फिर चाहे वह सेंसर बोर्ड ही क्यों न हो! फिल्म सेंसर बोर्ड की अध्यक्षा ने सरकारी दखलंदाजी का कारण बताते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया है. उल्लेखनीय है कि एम.एस.जी. फिल्म को सेंसर बोर्ड ने पास नहीं किया था. ये वही बोर्ड है जिसे ‘पी.के.’ फिल्म में तो कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा परन्तु ‘एम.एस.जी.’ को सेंसर कर दिया. ये फिल्म डेरा प्रमुख राम रहीम सिंह इन्सां द्वारा निर्देशित है जिसका विरोध देश के सिख संगठन एवं कई राजनेता कर रहे हैं. परन्तु अब तक किसी भी दल ने इस विरोध की कोई खास वजह नहीं बताई.
ये हैरानी की बात है कि उस ‘पी.के.’ फिल्म को पास करने में सेंसर ने कोई देर नहीं लगाईं जिसमें हिन्दू धर्म को ठेस पहुंचाने वाले कई दृश्य डाले गए हैं. एक दृश्य में फिल्म का नायक हिन्दू देवताओं के चित्रों पर ‘लापता’ लिख कर इधर-उधर घूमता दिखाई देता है. वह मंदिर जा कर गल्ले से रूपए निकाल लेता है. फिल्म का नायक एक महिला को कंडोम का पेकेट भी दिखाता है जो अत्यंत अपमानजनक दृश्य है. ये वही नायक हैं जो टी.वी. में अक्सर महिलाओं के उत्पीडन पर विरोध प्रदर्शित करता है परन्तु अपनी फिल्म में उनका अपमान करने से बाज़ नहीं आता.
इस फिल्म का नायक अपने नंगेपन की सफाई भी बड़ी बेशर्मी से उचित ठहराते हुए कहता है कि जब कौवे वस्त्र नहीं पहनते तो मनुष्यों के लिए यह क्यों आवश्यक है? फिल्म में कारों के अंदर सेक्स करते हुए दिखाया है जिसपर सेंसर को कोई एतराज़ नहीं हुआ. ये वही सेंसर बोर्ड है जो सिगरेट पीने के दृश्य में वैधानिक चेतावनी छापने की बात करता है परन्तु इस फिल्म में नायक के नंगे होने, पूजा स्थल पर चोरी करने, नारी को अपमानित करने, देवताओं को बे-इज्ज़त करने तथा सेक्स करते हुए लोगों के वस्त्र चुराने वाले दृश्यों पर न तो कोई आपत्ति करता है और न ही चेतावनी छापने की सलाह देता है.

इन लोगों को एम.एस.जी. जैसी साधारण फिल्म पर आपत्ति क्यों है, ये समझ से परे है. ऐसे भेदभावपूर्ण सोच रखने वाले लोगों को सेंसर बोर्ड में कोई स्थान नहीं मिलना चाहिए. अगर इन्होंने इस्तीफा दे दिया है तो अच्छा ही है. इनके स्थान पर ईमानदार अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों की नियुक्ति होनी चाहिए जो पूर्ण पारदर्शिता से अपना काम करे.

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

"पी.के." की समीक्षा

पी.के. फिल्म देखने से मालूम हुआ कि इसमें बहुत से तथाकथित ‘रोंग’ नम्बरों का उल्लेख है परन्तु यह स्वयं ही एक ‘रोंग’ नंबर है. फिल्म में बहुत से ऊल-जलूल सवाल उठाए गए हैं जबकि इसकी कहानी स्वयं ही सवालों के घेरे में आती हुई जान पड़ती है. फिल्म में ईश्वर के अस्तित्व एवं धर्म गुरुओं पर सवाल उठाया गया है. उल्लेखनीय है कि जब इस फिल्म का नायक शराब की बोतलें उठा कर मस्जिद की तरफ जाता है तो उसे बाहर से ही खदेड़ दिया जाता है जबकि वह मंदिर में बे-धड़क जाकर गल्ले से रूपए निकाल लेता है. वह एक हिन्दू धर्म गुरु से भी मनमाने प्रश्न करता हुआ दिखाया गया है. यह अत्यंत हैरानी की बात है कि नायक ने पूरी फिल्म में अपने धर्म गुरु या पैगम्बर के विषय में कोई प्रश्न नहीं उठाया और न ही कोई नुक्ताचीनी की. इससे यह स्पष्ट होता है कि फिल्म के नायक की सोच कितनी दोगली है?
 इस फिल्म का नायक किसी का हाथ पकड़ कर यह तो जान लेता है कि कोई अपनी भाषा कैसे बोलता है तथा उसके मन में क्या है परन्तु यह नहीं जान सकता कि वह किसकी अराधना करता है? उसका धर्म क्या है? वह बार-बार पूछता है कि किसी व्यक्ति का धर्म बताने वाला ठप्पा शरीर पर कहाँ लगा है? यह सब बड़ा हास्यास्पद लगता है. फिल्म के नायक द्वारा देवी-देवताओं की तस्वीरें उठा कर उन्हें लापता बताना भी उसकी ओछी सोच का परिचायक है. इस धरती पर सब लोगों के कपडे पहनने पर सवाल उठाए गए हैं. नायक पूछता है कि जब कौवा कपडे नहीं पहनता तो हमारे कपडे न पहनने पर एतराज़ क्यों हो? फिल्मों में सब कुछ वास्तविकता से परे है.
 इस फिल्म के कुछ दृश्यों को बड़े फूहड़ ढंग से दिखाया गया है. कुछ दृश्यों में नायक द्वारा महिलाओं के हाथों को पकड़ना बहुत ही बचकाना लगता है. कुछ दिन पहले इस ‘नायक’ ने स्वयं एक टी.वी. शो में स्वीकार किया था कि अगर हम फिल्मों में महिलाओं का सम्मान नहीं करेंगे तो लोग अपने सार्वजनिक जीवन में भी ऐसा ही करेंगे. स्पष्टतः लोग फिल्मी नायकों को अपने रोल मॉडल के रूप में देखते हैं. पाकिस्तान के पत्रकार जिन्हें निष्पक्ष होना चाहिए, वे भी यह स्वीकार करने से कतराते हैं कि उनका देश भारत में बम-विस्फोट करवाने में किस तरह दिलचस्पी लेता रहता है. कहानी में एक पाकिस्तानी व्यक्ति ‘सरफराज़’ फिल्म की हिन्दुस्तानी नायिका से प्रेम करता हुआ दिखाया गया है. “बिन पूछे मेरा नाम पता, चल दो न साथ मेरे....” गीत गाते हुए सरफराज़ ऐसे लगता है मानो पाकिस्तान भारत को ही सही रास्ते पर चलने की नसीहत दे रहा हो. यह अपने आपमें संसार का आठवां आश्चर्य ही प्रतीत होता है.
 चर्चित है कि यह फिल्म अब तक बहुत ही सफल रही है. भारत के सभी सिनेमा घरों में आप चाहे ‘पोर्न’ फ़िल्में लगा कर देख लें, अब तक के सारे रिकॉर्ड टूट जाएंगे. तो क्या अधिक लोगों द्वारा किसी फिल्म को देखना ही इसकी सफलता का परिचायक है? देश में कुछ स्थानों पर इस फिल्म के विरोध में स्वर उठ रहे हैं. मैं व्यक्तिगत रूप से तो इनसे सहमत नहीं हूँ परन्तु उचित-अनुचित में भेद करने वाले फिल्म नायक से यह प्रश्न तो पूछा ही जा सकता है कि वह अपनी भडांस एक विशेष धर्म के प्रति ही क्यों निकालना चाहता है?
 फिल्म के कई दृश्य ऐसे भी हैं जिन्हें देख कर मन में करुणा के भाव तो उत्पन्न होते हैं परन्तु कोई हँसी नहीं आती. फिल्म में जो भी गीत-संगीत है वह अच्छा है, तकनीकी दृष्टि से तो सब ठीक-ठाक है लेकिन कहानी बे-सिरपैर व ऊल-जलूल है. फिल्म के एक दृश्य में टिकटों की ब्लैक करने वाले व्यक्ति को घटिया सोच वाला तथा एक बुजुर्ग व्यक्ति को ऐसे धोखेबाज के रोल में दिखाया है जो स्वयं ही ब्लैक में सिनेमा टिकट खरीद लेता है. कहते हैं कि फ़िल्में समाज का आइना होती हैं परन्तु इस फिल्म को देख कर लगता है कि सब कुछ सही नहीं है. अगर आमिर खान फिल्मों को केवल मनोरंजन ही मानते हैं तो टी.वी. पर आकर भारतीय नायिकाओं को ‘फूहड़’ अभिनय करने से क्यों रोकते हैं? अगर फ़िल्में देख कर हमारे नवयुवक नहीं बिगड़ते तो आप विभिन्न उत्पादों के प्रचार हेतु स्वयं को क्यों लगाते हैं? इससे तो यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि लोग आपके द्वारा बताई गई बातों का अनुसरण करने की कोशिश करते हैं चाहे वह सब गलत हो या सही!
 यह एक विडम्बना ही है कि जो अच्छा है लोग उस पर कोई ध्यान नहीं देते परन्तु जो बुरा है उससे खूब कमाई करते हैं. ईश्वर के होने या न होने से तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता परन्तु जो लोग ईश्वर के नाम पर अच्छे काम करते हैं वह अवश्य ही अनुकरणीय है. कई लोग राम, अल्लाह, जीसस या अपने गुरु के नाम पर अस्पताल, स्कूल, कालेज व धर्मशालाएं बनवाते हैं जो समाज के हित में है. वहीं कुछ लोग धर्म के नाम पर लोगों को बांटते हैं जो बुरी बात है. देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इन दोनों तरह के लोगों पर फ़िल्में बना कर रुपया कमाते हैं जिनके बारे में आप स्वयं ही फैसला कर सकते हैं कि ये सब अच्छा है या बुरा!

कैसे खुदगर्ज़ हो?

मेरा किया तो फ़र्ज़ है
तुम्हारा किया एहसान
मुझे इस पर हर्ज है !
दोस्ती मेरी इबादत है
तुम्हारे लिए सियासत है
ये कैसी लियाकत है?
वायदे खूब करते हो
लेकिन वफ़ा नहीं करते
खुद को बा-वफ़ा कहते हो !
हमें अपने हाल पे छोड़ दो
हमारे बीच न कोई होड़ हो

गर दीवार है उसे तोड़ दो! -अश्विनी रॉय 'सहर'