My expression in words and photography

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

बातां ऊंटा री!

बातां ऊंटा री हो, बातां ऊंटा री!
जावो कठी थे इण ने भूल सके न कोई
बातां ऊंटा री हो! बातां ऊंटा री!
सुणूला मैं बातां, ऊंटा री न्यारी-न्यारी
बातां ऊंटा री हो! बातां ऊंटा री!

सवारी ऊंटा री हो, सवारी ऊंटा री
सबसूं  निराली है, ये जाने दुनिया सारी
सवारी ऊंटा री हो, सवारी ऊंटा री!
म्हारो मन तरसे, हो म्हारो मन तरसे
मैं भी करूंला आंगी सवारी, हो सवारी
सवारी ऊंटा री हो, सवारी ऊंटा री!

सारा जग जाणे हो, सारा जग जाणे
ऊंटनी रो दूध, कितना होवे गुणकारी
म्हारे मन भावे, हो म्हारे मन भावे!
ऊंटनी रे दूध सूं बने है बढ़िया मिठाई
सारा जग खावे, हो सबके मन भावे
ऊंटनी रा दूध, है बहुत ही गुणकारी! 

ताकत ऊंटा री हो, ताकत ऊंटा री
बोझ उठावे ओ तो सबसूं ही भारी.
म्हारो मन बोले, हो भेद ये सब खोले
बातां ऊंटा री हो, बातां ऊंटा री!
जाणे है ये दुनिया, म्हारा मन भी ओ बोले

बातां ऊंटा री हो, बातां ऊंटा री!

क्या हमारे देश में असहिष्णुता है?


आजकल हमारे देश में असहिष्णुता को लेकर चर्चा का बाज़ार गर्म है. कुछ लोगों का कहना है कि देश में असहिष्णुता बहुत बढ़ गई है. आपका क्या ख्याल है? मुझे तो ऐसा लगता है कि इस विषय पर हमें गहन चिंतन करने की आवश्यकता है तभी किसी उपयुक्त निष्कर्ष तक पहुँचा जा सकता है. आइए, हम सब इसके बारे में गैर-राजनैतिक ढंग से सोच-विचार करें! हमारे देश की आबादी दुनिया में दूसरे स्थान पर है तथा यहाँ विभिन्न मजहब एवं सम्प्रदाय के लोग सदियों से मिल-जुल रहते आए हैं. सदियों से हमारा समाज बहुसंप्रदायवादी रहा है परन्तु फिर भी कुछ राजनैतिक दलों के लोग निहित स्वार्थ के लिए बार-बार हमें यह बताने की कोशिश करते रहते हैं कि हम असहिष्णु हो गए हैं. क्या वास्तव में ऐसा हुआ है? कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं दिखाई देता. आप घर से निकल कर अपने पूजा स्थलों की ओर जाते हैं तो सभी जानकार लोग आपका अभिवादन परम्परागत ढंग से करते हुए दिखाई देते हैं. कोई नमस्कार करता है, तो कोई जय राम जी की! कोई असलामवलेइकुम कहता है तो कोई गुड मोर्निंग. लब्बो-लुआब ये है कि अभिवादन करने के ढंग पर किसी को कोई एतराज़ नहीं है. इसका अर्थ ये हुआ कि हम सब एक दूसरे का अभिवादन एवं पूजा पद्धति सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं! क्या यह हमारी सहिष्णुता का परिचायक नहीं है कि हम सब बिना मजहब को बीच में लाए एक दूसरे की शुभकामनाएं और अभिवादन स्वीकार कर रहे हैं? क्या ऐसा करने के लिए किसी क़ानून ने हमें पाबन्द किया है? अगर नहीं, तो बारहा इस विषय पर प्रश्न-चिन्ह क्यों लगाया जाता है कि देश में सहिष्णुता कम हो रही है? क्या इतने बड़े देश में चंद अप्रिय घटनाओं को असहिष्णुता का नाम दिया जा सकता है? ऎसी अपराधिक घटनाएं सभी देशों में होती रहती हैं जिन पर सख्त कानूनी कार्यवाही करने की आवश्यकता है.


यहाँ सभी जातियों एवं धर्म के लोग एक ही जहाज़, बस या रेल में सफर करते हैं. क्या कोई इन्हें स्थान विशेष पर उतरने के लिए बाध्य करता है? कदाचित नहीं. कोई भी व्यक्ति जहां जी चाहे जा सकता है. यहाँ किसी रोक-टोक का तो सवाल ही नहीं है. स्कूलों में भी सभी मजहबों के लोग एक साथ बैठ कर शिक्षा ग्रहण करते हैं. कोई ऊँच-नीच नहीं है. यदि कोई फर्क है तो वह भी कुछ लोगों ने आरक्षण एवं वोटों की मिली-जुली राजनीति के अंतर्गत ही विशेषाधिकार द्वारा प्राप्त किया है जिसके लिए उनकी अपनी सहमति है. तो क्या देश में सभी धर्मों के लोग एक ही शहर या कालोनी में निवास नहीं करते? जब आप बाज़ार से सामान खरीदते हैं तो क्या बेचने वाले से उसकी जाति या धर्म पूछते हैं? हम सब आमतौर पर किसी भी टी-स्टाल पर चाय पी लेते हैं. कम से कम मुझे तो ऐसा याद नहीं आ रहा कि जब मैंने किसी चाय वाले से उसका नाम ही पूछा हो. क्या आप अस्पताल जा कर पहले डाक्टर से उसका नाम या मजहब पूछ कर अपना इलाज़ करवाते हैं? कभी नहीं. तो क्या आप खून चढ़वाते समय रक्तदाता का धर्म या जाति पूछते हैं? अगर नहीं तो क्या यह सब हमारी असहिष्णुता एवं भाई-चारे का परिचायक नहीं है? इन सब बातों के बा-वजूद हमें अपनी असहिष्णुता का इम्तिहान बार-बार क्यों देना पड़ता है? आइए, इसका पता लगाते हैं.


यहाँ एक बात का उल्लेख करना अति आवश्यक है कि आजकल हमारी सहिष्णुता की मिसाल वास्तव में अद्वितीय है. देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, बढ़ती हुई महँगाई, जमाखोरी, बेरोजगारी से हम ज़रा भी विचलित नहीं होते. इन विषयों पर किसी न्यूज़ चैनल ने चर्चा करवा कर कभी यह नहीं कहा कि हमारी सहिष्णुता उच्चतम स्तर पर पहुँच गई है. हम अपने चारों ओर भ्रष्टाचार को अच्छी तरह पनपते हुए देख रहे हैं. हमें रिश्वतखोरों से कोई परहेज़ नहीं है. स्पष्ट है कि इस प्रकार की सहिष्णुता से राजनैतिक दलों को लाभ मिलता है तथा वे नहीं चाहते कि लोग इन मुद्दों को लेकर कभी उनके विरुद्ध आंदोलन न छेड़ दें.


हमारे देश में बरसों से केवल एक ही राजनैतिक दल की सत्ता रही है. इतनी लम्बी अवधि तक सत्ता में काबिज रहने से कुछ लोग घमंडी तथा निरंकुश हो कर दोबारा सत्ता हथियाने के लिए ओछी राजनीति पर उतर आए हैं. जनता द्वारा नकारे गए भ्रष्ट राजनेता सत्ता पाने के लिए अपने देश को बदनाम करने एवं नीचा दिखाने से भी बाज़ नहीं आते. यह सच है कि हमारे देश में सभी को बोलने की स्वतंत्रता है. परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि आप कुछ ऐसा बोलने लगें कि जिसे दूसरे लोग स्वयं को किसी संभावित खतरे में अनुभव करने लगें! जब बात निकलती है तो दूर तक जाती है. अगर किसी को किसी से कोई ख़तरा ही नहीं है तो फिर बार-बार ऐसा कहने की आवश्यकता ही क्यों है? जाहिर है, इस तरह की हरकतों से समाज में अविश्वास फैलता है. जो लोग अत्यधिक संवेदनशील होते हैं, उन्हें ये सब नागवार गुज़रता है. अतः हम सबको कुछ बोलने से पहले तोलना जरूर चाहिए. रही बात असहिष्णुता की, तो यह सत्य है कि साधारण परिवार में सहिष्णुता की बहुत कमी है. आज बाप बेटे की बात नहीं सुनता और बेटा बाप की नहीं. पारिवारिक कलह बढ़ रही है जिसकी पुष्टि अदालतों में लंबित लाखों मुकद्दमों से की जा सकती है. हमारे परिवार टूट कर बिखरने लगे हैं. पति-पत्नी में छोटी-छोटी बातों से तलाक तक की की नौबत आ जाती है. परन्तु पारिवारिक असहिष्णुता का कहीं कोई ज़िक्र ही नहीं मिलता. करण स्पष्ट है कि इससे किसी परिवार का भला तो हो सकता है किन्तु राजनेताओं को कोई लाभ नहीं मिल सकता.


पिछले दिनों हमारे देश में कुछ अमानवीय एवं झकझोरने वाली घटनाएं सामने आई हैं जो चिंता का विषय है. किसी को किसी की शक्ल अच्छी न लगे तो वह उस पर कालिख पोतने पर उतर आता है. अभी कल ही की एक घटना में किसी भिखारी को भीख नहीं मिला, तो उसने भीख न देने वाले व्यक्ति को ही चलती गाड़ी के आगे धक्का दे दिया. यह बात अलग है कि वह स्वयं भी उसी गाड़ी की चपेट में आ गया. ये सभी अपराधिक घटनाएं हैं जिन्हें साम्प्रदायिकता का जामा नहीं पहनाया जा सकता. अगर नियत सही न हो तो भीख मांगने वाला व्यक्ति भी किसी न किसी मजहब का रहा होगा. अगर उसने किसी दूसरे मजहब के व्यक्ति को धक्का दे दिया तो इसका अर्थ यह कैसे हो गया कि लड़ाई मजहबी है? सारा झगडा तो भूख का है. जब लोगों को भरपेट या जेब-भर नोट नहीं मिलते तो वह ऎसी ओछी हरकतों पर उतर आते हैं. चुनावों में हमारे नेता संयम से कोई बात नहीं करते. ऐसे में सामान्य नागरिक क्या कर सकता है? देश का आम नागरिक इन सभी घटनाओं से चिंतित है.


हाल ही में हमारे देश में साहित्य पुरस्कार प्राप्त करने वाले कुछ लेखक अपना सम्मान लौटाने में रूचि ले रहे हैं. इनका कहना है कि वे ऐसा बढ़ती हुई असहिष्णुता के विरोध में कर रहे हैं. हमारे देश की जनसँख्या 125 करोड़ से अधिक है तथा सम्पूर्ण विश्व में ऎसी विविधता की मिसाल शायद ही कहीं ओर हो. इसीलिए इसे विविधता में एकता का देश भी कहा जाता है. अगर ऎसी घटनाओं के लोग असहिष्णुता को बढ़ावा दे रहे हैं तो हमारे साहित्यकार क्या कर रहे हैं? क्या उनकी लेखनी अब निस्तेज हो गई है जो लोगों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित नहीं कर सकती? क्या हमारा लेखक वर्ग स्वयं असहिष्णुता को बढ़ावा नहीं दे रहा? क्या हम दूसरों द्वारा विरोध प्रकट करने पर अधिक संवेदनशील नहीं हो गए हैं? अगर इन साहित्यकारों को अपना सम्मान लौटना ही है तो इस पर राजनीति क्यों हो?


सम्मान लौटाने के भी अपने ढंग होते हैं. पुरस्कार स्वरुप प्राप्त की गई सारी धन राशि व्याज समेत लौटाई जानी चाहिए. क्या कुछ लोगों के असहिष्णु होने में सरकार का कोई योगदान है? अगर नहीं तो फिर इसके लिए सरकार को ही क्यों कोसा जाता है? करे कोई, भरे कोई! लगता है अब सरकार को भी पुरस्कार बांटते समय ‘अंडरटेकिंग’ लेनी होगी कि पुरस्कार विजेता भविष्य में राजनैतिक अथवा अन्य कारणों से अपना इनाम नहीं लौटाएगा. जब ऐसे लेखकों की लेखनी दम तोड़ने लगे तो ये अपनी ‘जीवन संध्या’ में ऐसी ही कोई बात करते हैं जिससे ये ख़बरों में बने रह सकें. जब चंद सरफिरे लोगों की बातों पर ही लेखक वर्ग उत्तेजित होने लगे तो इनकी असहिष्णुता कहाँ चली गई? क्या ये लोग इस इस बात का जवाब अपने देशवासियों को दे पाएंगे? कमोबेश सभी न्यूज़ चैनल वालों ने इस विषय पर बहस करवाई है. उल्लेखनीय है कि किसी भी चैनल ने पुरस्कार न लौटाने वाले व्यक्तियों का पक्ष जानने की कभी कोई कोशिश नहीं की जबकि इन लोगों की संख्या हज़ारों में है! क्या यह अत्यंत पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं है? उल्लेखनीय है कि हम केवल वही सुनना चाहते हैं जो हमें अच्छा लगता है. यदि कुछ अच्छा न लगे तो हम या तो बोलने वाले को चुप करवाते हैं या फिर ऊंचे स्वर में वह बात कहते हैं जिसे कोई सुनना नहीं चाहता! क्या आप इसे असहिष्णुता कहेंगे? सारा मामला बोलने की आजादी को लेकर है. अधिकतर लोग इस आजादी का दुरुपयोग करते हैं जिसे लोगों ने असहिष्णुता मान लिया है परन्तु वास्तव में असहिष्णुता जैसी कोई समस्या हमारे देश में है ही नहीं. ये सब तो भ्रष्ट राजनेताओं के मस्तिष्क की ओछी सोच है जो लोगों को आपस में झगड़ने के लिए प्रेरित करते रहते हैं.

रविवार, 2 अगस्त 2015

देश में सांप्रदायिक दंगों पर राजनीति


आज से बाईस बरस पहले मुंबई में बम विस्फोट हुए थे जिसमें बहुत-से लोगों की जाने गई तथा अन्य कई जख्मी भी हुए. यह मनुष्य का स्वभाव है कि उसे हर बुरी घटना को भुलाना ही पड़ता है क्योंकि आप इन्हें याद करके जीवन में आगे नहीं बढ़ सकते. हमारे देश की क़ानून व्यवस्था इतनी लचर है कि इन बम विस्फोटों के लिए जिम्मेवार व्यक्ति आज तक पकड़ में नहीं आए. कई अभियुक्त अब तक फरार हैं, जो पकड़ में आया उस पर कई साल मुकद्दमा चला तथा शीर्ष अदालत ने उसे फांसी की सजा सुनाई. अभियुक्त ने सज़ा कम करने के लिए राष्ट्रपति को अपील की, जो खारिज हो गई. उसे बचाव का पूरा मौका देते हुए अंतिम सुनवाई रात भर चली लेकिन अगली सुबह अपने फैसले में अदालत ने फांसी की सजा को कायम रखा और उसे फांसी दे दी गई. इस सज़ा पर देश भर में तीखी बहस शुरू हो गई कि फांसी की सज़ा मुनासिब नहीं थी. अभियुक्त को इस मामले में रहम का पूरी तरह हकदार बताया गया. मैं कोई क़ानून का जानकार तो नहीं हूँ लेकिन इतना अवश्य जानता हूँ कि यह फैसला कई बरसों तक मुकद्दमा चलने के बाद ही आया होगा.
अगर किसी अभियुक्त का धर्म देख कर रहम की अपील पर फैसला होता तो देश के मुस्लिम राष्ट्रपति किसी भी मुसलमान को फांसी पर नहीं चढ़ने देते और इसी तरह हिन्दू राष्ट्रपति सभी हिन्दुओं का अपने धर्म के अनुसार बचाव करते. लेकिन हमारे देश में ऐसा कभी नहीं हुआ. कुछ राजनैतिक लोगों द्वारा इस सज़ा की तीव्र आलोचना की गई. सबने अपने-अपने स्वार्थ में अंधे हो कर विवादास्पद एवं विरोधी बयान दिए. इस दौड़ में देश का न्यूज़ मीडिया भी पीछे रहने वाला नहीं था. कई टेलीविजन चैनल इस विषय पर दिन-रात चर्चा में लगे हैं कि क्या यह सज़ा न्यायसंगत थी? ख़बरों के अनुसार जिन लोगों के परिवार इन बम विस्फोटों से प्रभावित हुए उन्हें कुछ हद तक इन्साफ मिला परन्तु एक वर्ग ऐसा भी था जो इस फैसले से नाखुश था. यह पहली बार नहीं हुआ कि किसी फैसले पर देश के विभिन्न लोगों की राय में विभाजन हुआ हो. विचारों में मतभेद होना लोकतंत्र की विशेषता है. हमें विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता है किन्तु अपनी बातों से दूसरों को आहत करने का अधिकार किसी को भी नहीं मिला है. पूर्व में भी कोर्ट द्वारा दिए गए कई फैसलों की सार्वजनिक आलोचना होती रही है. ज़रा सोचिए कि अदालतों में न्याय करने वाले भी हमारी तरह इंसान ही हैं. ध्यातव्य है कि न्यायमूर्ति के सिंहासन पर बैठने के बाद कोई भी व्यक्ति स्वार्थ से प्रेरित होकर अपना फैसला नहीं कर सकता. फिर इस फैसले पर इतना विवाद क्यों? कुछ राजनैतिक दलों द्वारा इस मामले को बे-वजह तूल देने की कोशिश की गई है जो सर्वथा निंदनीय है.
कुछ मुस्लिम संगठनों ने यह कह कर विस्फोटों के अभियुक्त का बचाव किया है कि वह गुजरात के दंगों का बदला लेने के लिए ही ऐसा कर रहा था. यह चिंता का विषय है क्योंकि कई हिन्दू भी गुजरात के दंगों को गोदरा काण्ड की सहज प्रतिक्रिया मानते हैं. कुछ मुस्लिम संगठनों का तो यह भी कहना है कि मुसलमानों द्वारा किए गए दंगों पर तो तुरंत कानूनी कार्यवाही की जाती है जबकि हिन्दुओं द्वारा किए गए दंगों पर न्यायालय धीरे-धीरे कार्यवाही करते हैं. कुछ तथाकथित नेताओं से यह भी सुनने में आया है कि पहले बाबरी मस्जिद गिराने वालों और गुजरात में दंगा करने वालों को फांसी दो फिर किसी मुस्लिम अभियुक्त के खिलाफ कोई कार्यवाही हो! यह सुनने में बड़ा अजीब लगता है. अगर कुछ सिरफिरे लोगों ने कोई अपराध कर दिया तो उसकी सजा देश के अन्य लोगों को बिना मुकद्दमा चलाए कैसे दी जा सकती है? यह विचार किस तरह से तर्कसंगत हो सकता है? अगर किसी अमरीकी नागरिक का इराक में सर कलम किया गया है तो क्या अमेरिका वाले भी किसी इराकी को इसकी सजा देते हुए बदला लेंगे? यह भी दलील दी गई कि देश में फांसी की सज़ा को ख़त्म कर देना चाहिए. सभ्य समाज में फांसी की सज़ा होना सर्वथा अनुचित है. हम सब इस विचार से सहमत हैं. इसमें कोई शक नहीं कि सभ्य समाज में किसी भी व्यक्ति के प्राण न लिए जाएं परन्तु जो लोग बम विस्फोट द्वारा लोगों की हत्याएं करते हैं, क्या वह सभ्य समाज का काम है?
मुझे याद है कि वर्ष 1984 में एक सिख व्यक्ति द्वारा देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी की हत्या करने के बाद दंगे भड़के थे जिसमें हज़ारों सिखों की मौत हुई थी. हम यह भी जानते हैं कि आज तक किसी भी दंगाई को पकड़ा नहीं जा सका और न ही कोई प्रभावी मुकद्दमा चल पाया. यह समुदाय हमारी क़ानून एवं व्यवस्था से अत्यंत निराश हुआ है परन्तु इन्होंने कभी भी इसका बदला अन्य समुदायों से लेने की बात नहीं सोची. क्या यह इनकी महानता नहीं है? ऐसा करने से क्या ये लोग छोटे हो गए? हम सबको सिखों से सीख लेनी चाहिए. हमारा क़ानून अगर धीमा है तो इसके लिए हम सब जिम्मेवार हैं. हमारे वकील बार-बार तारीख आगे बढाते रहते हैं जिससे न्याय में देरी होती है. देश में भ्रष्टाचार के चलते लोगों को समय पर न्याय नहीं मिलता. लेकिन इस का अर्थ यह तो नहीं कि हम आपस में ही लड़ने लगें! देश में सरकार तो हमारी जनता ही चुनती है. अगर कोई राजनेता काम न करे तो उसे देश की जनता बाहर का रास्ता दिखा सकती है. कुछ मुस्लिम नेताओं का कहना है कि उनके धर्म के बहुत कम लोग संसद में पहुंचते हैं जिससे मुसलमान हर क्षेत्र में पिछड़ रहे हैं. जहां तक मुझे याद है कि देश में राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के पद तक पहुँचने वाले मुस्लिम उम्मीदवारों का समर्थन हिन्दुओं द्वारा ही होता आया है. इन सब पर हमें नाज़ है क्योंकि ये लोग स्वयं को सदा धर्म से अलग मानते थे. धर्म एक व्यक्तिगत मामला है जिसे केवल घर की चारदीवारी तक ही सीमित रखना चाहिए. कोई भी मनुष्य अपने सत्कर्मों द्वारा महान बनता है न कि अपने धर्म के कारण.
हमारे देश में सभी धर्म एवं सम्प्रदाय के लोग आज तक मिल-जुल कर रहते आए हैं. परन्तु इसकी गंगा-जमुनी तहजीब कई राजनीतिज्ञों को रास नहीं आ रही है. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि अगर इस फैसले की आलोचना करेंगे तो उन्हें आने वाले चुनावों में काफ़ी वोट मिल सकते हैं. वोटों की राजनीति ने हमारे लोकतंत्र की नींव को हिला कर रख दिया है. अतः देश की जनता की यह बड़ी जिम्मेवारी है कि इन स्वार्थी तत्त्वों पर ध्यान न देकर वे अपना भला-बुरा स्वयं सोचें तथा अपने हलके में सर्वोत्तम उम्मीदवारों का ही चयन करें. हमारे जनप्रतिनिधि चाहे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के हों, वे अपने हलके के विकास पर ही ध्यान देंगे. कोई भी विधायक या सांसद अपनी जाति या धर्म को देख कर काम नहीं करता. इसी तरह उसे जीत दिलवाने वाले लोग केवल एक मजहब या जाति के नहीं बल्कि पूरे समाज से होते हैं. मैं एक आम आदमी हूँ. मेरा धर्म मेरा राष्ट्र है जिससे मैं प्रेम करता हूँ. जब नौकरी पर जाता हूँ तो अपने परिवार को भुला देता हूँ और जो भी काम राष्ट्र हित में है, वही करता हूँ. इसी तरह हमारा मतदाता जब वोट डालने जाता है वह केवल अच्छे उम्मीदवारों का ही चयन करता है. वह उम्मीदवार की जाति या धर्म के बारे में कुछ नहीं सोचता.
अदालतों में हमारे न्यायधीश बिना पक्षपात के अपना कार्य करते हैं. देश का किसान सभी जातियों एवं धर्म के लोगों के लिए फसलें, सब्जियां एवं अन्न पैदा करता है. जब हम रक्तदान करते हैं तो हमारी जाति या धर्म का कोई उल्लेख नहीं होता. कोई भी रक्त हिन्दू, मुसलमान, इसाई या बौद्ध धर्म के लोगों के लिए उपयुक्त हो सकता है. इसी तरह अपराध करने वाले व्यक्ति किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय से हो सकते हैं. अपराध का कोई धर्म या जाति नहीं होती. अपराध केवल अपराध होता है और अपराधी सदैव दंड का भागीदार बनता है. हमें इस विषय पर किसी भी अनावश्यक बहस में नहीं उलझना चाहिए. किस व्यक्ति को कब और कितना दंड मिलेगा, वह उस मामले के साक्ष्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है. हमारे कहने से किसी व्यक्ति को कोई सज़ा नहीं मिल सकती और मिलनी भी नहीं चाहिए. आखिर देश में क़ानून का जो राज है! अगर किसी व्यक्ति को हमारी न्याय व्यवस्था पर विश्वास नहीं है तो वह अपने सुझाव दे सकता है. क़ानून बनाने के लिए संसद है और संसद का चुनाव जनता करती है. अगर हमारी न्याय प्रणाली सर्वोत्तम नहीं है तो भी कई देशों की न्याय व्यवस्था से श्रेष्ठ अवश्य है. इसमें जो भी खामियां हैं, वे हम सबके निहित स्वार्थों के कारण ही हैं.

हम अदालतों में अपने अल्पकालिक हितों के कारण मुकद्दमों को लंबा खींचते रहते हैं. कई बार अदालतों को सब का सहयोग नहीं मिलता. देश की जनसंख्या में वृद्धि के अनुसार अदालतों की संख्या नहीं बढ़ पाई है. मुकद्दमों की संख्या कई गुना बढ़ गई है तथा अक्सर फैसला आने में विलम्ब होता है. अगर हम सब मिलकर सहयोग करें तो अपनी न्याय व्यवस्था को और भी अधिक बेहतर बना सकते हैं. लोकतंत्र में हर समस्या का समाधान संभव है. हमें सहनशीलता से अपनी बात आगे बढानी चाहिए. आपस में वैमनस्य एवं राग-द्वेष फैला कर कोई भी देश अथवा समुदाय तरक्की नहीं कर सकता. कठिन परिस्थितियों में मिल-जुल कर सभी विपत्तियों का सामना किया जा सकता है. आजादी से पहले हमारा देश छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था जहां के राजा आपस में लड़ते रहते थे. अंग्रेजों ने हमारी फूट का लाभ उठा कर सौ बरस तक राज किया. क्या हम आपस में लड़-झगड़ कर स्वयं को कमज़ोर कर लें? हमारी ओर पूरी दुनिया की नज़र लगी है. अतः हमें कोई भी काम ऐसा नहीं करना चाहिए कि शत्रु देश हमारी कमजोरियों से लाभ उठा ले. यह देश हम सबका है तथा हम सबको मिलजुल कर ही आगे बढ़ना होगा. 

बुधवार, 22 जुलाई 2015

योग का विरोध क्यों?


भारत सरकार 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग-दिवस के अवसर पर पूरे देश में योग दिवस का आयोजन कर रही है. सम्पूर्ण विश्व ने योग की महिमा एवं इससे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को मान्यता दी है. योग केवल जीवन पद्धति एवं स्वस्थ परम्परा ही नहीं बल्कि मानव चित्त को शांत रखने के एक काला भी है. आज कई देशों के लोग आपस में वैरभाव एवं वैमनस्य के कारण लड़ रहे हैं. ऐसे में योग सबको जोड़ने का काम करेगा. मनुष्य चाहे किसी भी देश, धर्म अथवा जाति का हो, उसे स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार है. क्या स्वास्थ्य सीमित लोगों की आवश्यकता है? सभी लोग स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त रहना चाहते हैं. ऐसे में उन्हें योग से बेहतर कोई विकल्प नहीं मिल सकता जो अत्यंत आसानी से उपलब्ध हो. योग शब्द का अर्थ है जोड़ना परन्तु लोग इस शब्द के कारण आज एक दूसरे से अलग होने की कोशिश कर रहे हैं. कुछ लोग इसे अपने स्वास्थ्य हेतु अच्छा मानने की बजाय अपने धर्म का विरोधी मान बैठे हैं. यह कैसी सोच है?
हमारे देश में कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी राजनैतिक दल आज योग के विरोध में खड़े हो गए हैं. वे इसे भारतीय जनता पार्टी एवं संघ परिवार का निजी एजेंडा बता रहे हैं. हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट किया है कि योग दिवस के चलते कोई भी कार्यकर्ता पार्टी का झंडा नहीं फहराएगा. इसी तरह किसी भी हिन्दू संगठन को इस आयोजन से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए. आजकल योग कई यूरोपीय एवं अमेरिकी देशों में लोकप्रिय हो रहा है. क्या वहाँ पर इसे भारतीय जनता पार्टी ने लोकप्रिय किया है? जो भी व्यक्ति यौगिक क्रियाओं में भाग लेता है वह इसका महत्त्व बखूबी समझता है. ऐसे में देश के विपक्षी दलों का योग-विरोध समझ के परे है. विरोध करने के लिए देश में अन्य कई मुद्दे हैं परन्तु विपक्ष इन पर विरोध करना तो दूर, कभी चर्चा करना भी गवारा नहीं करता.
ऐसा ही एक मुद्दा आरक्षण का है. कांग्रेस को डर है कि अगर जाटों के आरक्षण का विरोध किया तो उनके वोट अन्यत्र चले जाएंगे. अधिकतर पार्टियां इस मुद्दे पर खामोश हैं क्योंकि वोट किसे बुरे लगते हैं?  हमारे सभी राजनैतिक दल वोटों के लिए देश को बांटने की राजनीति कर रहे हैं.  कहते हैं धडा धर्म से भी महान है. अगर आपका धडा मजबूत है तो आप धर्म पर भी विजय पा सकते हैं. आज समूचा  विश्व ऐसे ही कई मजबूत धडों में बाँट गया है जो आपस में लड़ते रहते हैं. जो विजयी होता है वह अधिक दौलतमंद और प्रभावशाली हो जाता है. क्या जीवन का ऊदेश्य केवल दौलतमंद एवं बलशाली होना ही है? अगर जीतना है तो स्वयं को विजय करो. मानवता को प्रेम सिखाओ न कि नफरत. नफरत के बीज बोने से नफरत ही पैदा होगी. हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को इस प्रकार क्या सन्देश देंगे? आने वाली नस्लें जब अपने पुरखों के बारे में सोचेंगी तो उन्हें कैसा लगेगा?
हम सबको एक अच्छी एवं स्वस्थ परम्परा का वाहक बनना चाहिए. आज देश की राजनीति इतनी दूषित हो गई है कि सब लोग विरोध की खातिर विरोध करने में लगे हैं. आम आदमी पार्टी एक अलग तरह की छवि ले कर आई थी परन्तु लोगों को इससे भी घोर निराशा ही मिली है. जब दिल्ली के क़ानून मंत्री को फर्जी डिग्री प्रकरण में गिरफ्तार किया तो इनके नेताओं ने इसका जम कर विरोध किया. ये लोग अपने फर्जी डिग्रीधारी मंत्री के बचाव में खुल कर आगे आ गए. आज सारा देश जानता है कि सही कौन है तथा गलत कौन है! कोई भी व्यक्ति अपने अंदर झाँक कर देखना नहीं चाहता. सत्ताधारी दल कुछ गलत करता है तो अन्य दल उसकी आलोचना कर सकते हैं. परन्तु सत्ताधारी दल पूर्ववर्ती सरकारों के निर्णयों को एक परम्परा के रूप में प्रस्तुत करता है जो सही नहीं है. अगर पिछली सरकार ने कुछ गलत किया है तो वर्तमान सरकार को इससे सबक लेना चाहिए. आजकल विदेश मंत्री द्वारा मानवीय आधार पर ललित मोदी की सहायता करने के लिए हमारे विदेश मंत्री की आलोचना हो रही है जो सही भी है. अगर आप कोई अच्छा काम करते हैं तो लोग आपको सर-आँखों  पर  बिठाते हैं, परन्तु एक बुरा काम करने से ही लोग आपके विरोध में उठ खड़े होते हैं. स्वस्थ लोकतंत्र में सभी को अपनी बात रखने का अधिकार है.
लोकतंत्र में लोगों की इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए परन्तु अगर लोग क़ानून को अपने हाथ में लें तो यह भी उचित नहीं है. आज लोगों में असहिष्णुता  बढ़ती जा रही है. किसी एक जाति को आरक्षण मिलने से अन्य जातियों के लोग भी इसकी माँग करने लगते हैं. इसकी नौबत यहाँ तक आ गई है कि आरक्षण न मिलने पर ये लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं. ज़रा सोचिए, अगर यही क्रम जारी रहा तो एक दिन सभी लोग आरक्षण की माँग करने लगेंगे! सरकार को तो अपनी वोटों की फ़िक्र है. ऐसे में कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले भी अप्रभावशाली हो सकते हैं. क्या चंद लोगों को खुश करने के लिए संविधान संशोधन लाना उचित रहेगा? यह चिंतन का विषय हो सकता है. जिस जाति को सुप्रीम कोर्ट भी आरक्षण हेतु उपयुक्त नहीं मानता उसे आरक्षण देने के लिए आज राजनैतिक दलों में होड़-सी मची है. क्या राजनीति का अर्थ केवल सत्ता प्राप्त करना ही है? अगर यह सिलसिला यूं ही चलता रहा तो एक दिन देश में अराजकता की स्थिति भी आ सकती है. सरकार को आर्थिक, रक्षा, विदेश नीति के मोर्चे पर तो भारी चुनौतियों से निपटना पद ही रहा है, वहीं आरक्षण जैसी सामाजिक बुराई ने अगर सर उठाया तो इसके परिणाम और भी भयावह हो सकते हैं.

क्या देश के सभी राजनैतिक दल वोटों की राजनीति छोड़ कर देश हित की कोई बात करेंगे?

मंगलवार, 19 मई 2015

देश में निजी स्कूल हों या सरकारी स्कूल?

पटना (बिहार) में सामाजिक समारोह के दौरान एक सात वर्षीय बच्चे ने कहा कि अगर वह प्रधानमंत्री बन गया तो देश के सभी निजी स्कूलों को बंद करवा देगा. कमोबेश इसी तरह की टिप्पणियाँ बहुत से अभिभावक भी करते रहते हैं. उक्त घटना से यह स्पष्ट है कि अधिकतर लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढाना तो चाहते हैं परन्तु इसके लिए अधिक फीस देना उन्हें गवारा नहीं है. हमारे देश में सरकारी स्कूलों की फीस तो बहुत कम है किन्तु वहाँ की पढ़ाई एक दम बेकार है. आज एक आम आदमी इसी ऊहापोह में फंस कर रह गया है कि वह अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढाए या सरकारी स्कूलों में! यह समस्या इतनी गंभीर नहीं है परन्तु लोग इस पर सार्थकता से विचार करने को भी कतई तैयार नहीं हैं.
जरा सोचिए कि निजी स्कूल बिना किसी सरकारी सहायता के इतनी अच्छी सुविधाएं कैसे जुटा लेते हैं? अधिकतर मामलों में इन्हें जमीन भी अपने ही रुपयों से खरीदनी पड़ती है. इनकी इमारतें सरकारी स्कूलों से बहुत भव्य एवं अच्छी होती हैं. यदि बैठने के स्थान की तुलना करें तो निजी स्कूलों की कक्षाएं अत्यंत आरामदेह परिस्थितियों में आयोजित की जाती हैं. निजी स्कूलों में बच्चों की अभिरुचियों पर विशेष ध्यान दिया जाता है. बच्चों के सर्वांगीण विकास हेतु नाना प्रकार के साधन जुटाए जाते हैं. सरकारी स्कूलों की तुलना में निजी स्कूल के अध्यापक बहुत कम वेतन लेते हैं जबकि उन्हें यहाँ कड़ी मेहनत से पढाना पड़ता है. इन सब बातों में कुछ अपवाद भी हो सकते हैं परन्तु अधिकतर मामलों में ये सब बातें सत्य ही है.
सरकारी स्कूलों में अध्यापकों की नियुक्तियां किस प्रकार होती हैं, यह अब जगजाहिर है. अभी हाल ही में जम्मू तथा कश्मीर हाईकोर्ट के न्यायधीश ने अपनी एक टिप्पणी में सरकारी स्कूल के एक अध्यापक के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करने को कहा है जो ‘गाय’ पर निबंध तक नहीं लिख सका. फिर उस अध्यापक ने कहा कि वह गणित का अच्छा ‘जानकार’ है लेकिन पूछने पर चौथी कक्षा के गणित से मामूली प्रश्न भी हल नहीं कर पाया. हमारे देश के अधिकतर सरकारी स्कूलों की स्थिति लगभग इसी तरह की है. अगर आज सभी अध्यापकों का टेस्ट लिया जाए तो मालूम होगा कि उनमें से आधे तो शिक्षक बनने के लायक ही नहीं हैं. आजकल सरकारी स्कूलों में नियुक्ति पाने के लिए लोग मोटी रिश्वत देने को तैयार हो जाते हैं परन्तु जब इन स्कूलों में अपने बच्चे पढाने की बात सामने आती है तो सभी कन्नी काटने लगते हैं.
कुछ लोगों का सुझाव है कि सभी अध्यापकों एवं सरकारी अफसरों के बच्चों को जबरदस्ती सरकारी स्कूलों में पढाने के लिए दबाव डाला जाए ताकि इन स्कूलों का शैक्षिक वातावरण बेहतर हो सके. क्या इस प्रकार इस् समस्या का हल सम्भव है? कदाचित नहीं. जब तक हम सरकारी स्कूलों में नियुक्त होने वाले अध्यापकों की शिक्षा एवं अनुभव पर ध्यान नहीं देंगे तब तक इन स्कूलों का स्तर सुधरने वाला नहीं है. सरकार को चाहिए कि वह शिक्षकों की शैक्षिक गुणवत्ता समय-समय पर जांचती रहे ताकि फर्जी डिग्री एवं घूस देकर नियुक्तियां प्राप्त लोग यहाँ नौकरी प्राप्त न कर सकें. जो लोग येन-केन-प्रकारेण इस व्यवसाय में जबरन घुस आए हैं उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए. अगर हमारे देश के शिक्षक ही नालायाक होंगे तो हमारी भावी पीढ़ी कैसी होगी? आज देश में सभी प्रकार की नौकरियाँ पाने के लिए लंबी कतारें लगी हुई हैं. जो व्यक्ति अपने जीवन में कोई भी नौकरी पाने में असमर्थ रहता है, वह अध्यापक बन जाता है. ऐसा क्यों होता है? क्या इस ‘नोबल’ व्यवसाय के लिए उच्च योग्यता के मापदंड नहीं होने चाहिएं? सरकार भी शिक्षा के नाम पर केन्द्रीय बजट से मामूली राशि का आबंटन करके पल्ला झाड लेती है. अगर हमारे विश्वविद्यालय  तथा स्कूल आज विश्व के शीर्ष संस्थानों में नहीं गिने जाते तो यह सब किसका दोष है? आखिर जैसा पेड़ लगाएंगे उस पर फल भी वैसा ही आएगा न!
जहां देखो, तहां देश की राज्य सरकारें बजट के अभाव में कम तनख्वाह पर ‘गेस्ट’ अध्यापकों की नियुक्तियां करने लगी हैं. बाद में यही अध्यापक पूरे वेतन तथा स्थायी नौकरी की माँग करते हैं. वोटों के दबाव में सरकार इनके साथ समझौता करती है तथा यहीं से शुरू हो जाते है हमारे छात्रों के बुरे दिन. इस लेख का उद्देश्य सुपात्र अध्यापकों को नौकरी से वंचित करना नहीं है किन्तु गेस्ट अध्यापकों को बिना किसी परीक्षा के सकूलों में स्थायी नियुक्ति कैसे दी जा सकती है? हाँ, यदि इनमें कुछ योग्य अध्यापक हैं तो उन्हें अवश्य ही सरकारी स्कूलों में लगाया जाना चाहिए. हमारे अधिकतर सरकारी स्कूलों की स्थिति आज अत्यंत दयनीय हो चुकी है. अध्यापक या तो समय पर नहीं आते या कभी-कभार ही स्कूल में दिखाई देते हैं. भ्रष्टाचार ने हमारे स्कूलों की शिक्षा को उद्देश्यहीन एवं व्यर्थ बना दिया है. बच्चे स्कूलों में कम तथा ट्यूशन पर अधिक पढते हैं.

आजकल सरकारी स्कूलों में परीक्षा परिणाम बीस प्रतिशत से भी कम आने लगे हैं. सरकार हर साल अधिक छात्रों को पास करने के लिए विशेष फार्मूले बनाती है जिसके अंतर्गत कमज़ोर छात्रों को ‘ग्रेस’ अंक दिए जाते हैं. क्या यह सरकार अपने स्कूलों को भी कभी कोई ‘ग्रेस’ दे पाएगी? यह सिलसिला कब तक चलेगा? छात्र देश का भविष्य होते हैं. इनके भविष्य से खिलवाड़ करना देशद्रोह के समान होता है. स्कूलों में केवल योग्य विद्यार्थियों को ही पास करना चाहिए वरना यही अयोग्य विद्यार्थी दोबारा शिक्षक बन कर आएँगे तथा स्कूल के परिक्षा परिणामों को इसी प्रकार प्रभावित करते रहेंगे. यदि सरकार के काम चलाने के लिए आई.ए.एस. अफसरों की आवश्यकता हो सकती है तो स्कूलों के लिए योग्य अध्यापक क्यों नहीं? यदि समय रहते इन स्कूलों का स्तर नहीं सुधरा तो लोग अपने बच्चों को इनमें पढ़ने के लिए कैसे प्रेरित कर पाएंगे?

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

किसान आत्महत्या क्यों करते हैं?


आजकल बदलते हुए जलवायु परिदृश्य से सभी हैरान और परेशान हैं. जब बारिश की आवश्यकता होती है तो सूखा पड़ता है तथा जब सूखा आवश्यक हो तो बारिश या ओलावृष्टि होने लगती है. जब इन दोनों में से कोई अपना रंग न दिखाए तो भूकंप आ जाता है. अगर देखा जाए तो प्राकृतिक आपदाएं हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग हो गई हैं. इन आपदाओं से आजकल कोई भी व्यक्ति अछूता नहीं है. तो फिर केवल किसानों में इतनी बेचैनी क्यों है जो इन्हें आत्म ह्त्या के लिए मजबूर करती है? आइए, इस समस्या पर विचार करें.
हमारा देश आरम्भ से ही कृषि पर आधारित रहा है परन्तु भारी उद्योगों का विकास होने के कारण देश की कृषि योग्य भूमि का क्षरण होने लगा है. पहले हम तीस करोड़ लोगों के खाने के लिए भी अन्न पैदा नहीं कर पाते थे परन्तु आज हम एक सौ बीस करोड़ लोगों को भरपेट खिलाने में सक्षम हैं. यह सब हरित क्रान्ति के कारण ही संभव हो सका है. आज देश में दूध का उत्पादन भी विश्व में दूसरे स्थान पर है. इसका एक अन्य पहलू यह भी है कि अत्याधिक उत्पादन के बा-वजूद हमारे देश में प्रति एकड़ पैदावार अन्य विकसित राष्ट्रों के मुकाबले बहुत कम है. इसी प्रकार दूध के मामले में भी प्रति पशु दुग्ध-उत्पादन बहुत कम है. हमारा किसान खेती के परम्परागत तरीकों को ही इस्तेमाल करता आया है. वह आज भी अपने सहेज के रखे बीजों से फसल उगाता है. हमारा किसान आज भी अशिक्षित है तथा नई तकनीकी अपनाने के मामले में उसे कोई दिलचस्पी नहीं है. वह इसे महँगा व जोखिम भरा बता कर पल्ला झाड लेता है.
आज वैश्विक स्तर पर कृषि का उत्पादन नए शिखर छूने जा रहा है जबकि भारत में अब भी कई स्थानों पर कृषि पूर्णतया बारिश पर ही निर्भर है. जहां कम पानी की फसलें उगानी चाहिएं वहां हम अधिक पानी की आवश्यकता वाली फसलें बो रहे हैं. इसी तरह देखा जाए तो हम अपने संसाधनों का युक्ति-संगत उपयोग नहीं कर रहे हैं. भूमिगत जल का लगातार दोहन होने से स्थिति और भी विकराल रूप लेती जा रही है. हमारा किसान बिना किसी सोच विचार के अपनी खेती करता जा रहा है जबकि दुनिया कहीं आगे निकल गई है. बरसों से एक जैसी फसलें बार-बार उगाने के कारण मिट्टी में कुछ विशेष तत्त्वों की कमी हो जाती है जिससे किसान अनभिज्ञ रहता है. इसका कृषि उत्पादन क्षमता पर दुष्प्रभाव पड़ता है. जलवायु परिवर्तन के कारण भी हमारी फसलों का उत्पादन कम हो रहा है. हमारा पर्यावरण दूषित हो गया है. खेतों में नई तरह के कीट एवं खरपतवार निकलने लगे हैं. इन्हें परम्परागत साधनों से नष्ट करना अब आसान नहीं रहा. किसानों को उन्नत खेती के लिए अधिक उत्पादन क्षमता वाले बीजों की आवश्यकता पड़ती है. खाद और पानी का समुचित लाभ न मिलने के कारण किसान को हानि उठानी पड़ती है. वह रुपया उधार लेकर खेती करता है जबकि प्राकृतिक आपदा के एक झटके में ही उसकी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है. वह अन्दर से टूट जाता है तथा आत्म-हत्या जैसा आसान किन्तु निंदनीय कार्य करने में भी संकोच नहीं करता.
क्या आत्म-हत्या करने से किसी समस्या का समाधान हो सकता है? कदाचित नहीं. मुसीबत का सामना तो डट कर किया जाना चाहिए. जनसँख्या बढ़ने के कारण किसान के खेत भी छोटे होते जा रहे हैं. छोटे-छोटे खेतों में अनाज उगाना उतना लाभकारी नहीं होता जितना बड़े खेतो के लिए लाभदायक है. ऐसे में किसानों को आपस में मिलजुल कर खेती करने पर विचार करना चाहिए. जो मशीन एक छोटा किसान अकेला नहीं खरीद सकता, उसे कई किसान मिलकर खरीद सकते हैं. इसी तरह उन्नत प्रौद्योगिकी द्वारा अधिक उत्पादन सुनिश्चित किया जा सकता है. आज देश में ऐसे भी किसान हैं जो एक एकड़ जमीन से इतनी आय कर लेते हैं जितनी शायद अन्य किसान दस एकड़ खेत से भी नहीं कर पाते. अतः किसानों को अपनी सहायता स्वयं करनी होगी. हमारा किसान सरकार के भरोसे रह कर खेती में कामयाब नहीं हो सकता. प्रत्येक किसान को अपने मुश्किल समय के लिए कुछ न कुछ धन अवश्य जोड़ना चाहिए. अन्यथा वह आढतियों एवं दलालों के चंगुल से कभी नहीं छूट पाएगा. किसानों को अपनी फसलें बदल बदल कर बोनी चाहिएं ताकि मिट्टी से खनिज तत्त्वों का अनावश्यक दोहन न होने पाए तथा इसकी उर्वरा शक्ति अधिक समय तक बनी रहे.
यदि हमारा किसान शिक्षित एवं समझदार होगा तो वह कभी भी आत्महत्या जैसी घिनौनी बात नहीं सोचेगा. जो लोग बैसाखी के सहारे चलते हैं वे कभी भी अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते. हर प्राकृतिक आपदा के समय उसे सरकार की ओर ताकने की बजाय अपनी मदद खुद करनी होगी. ज़रा सोचिए, अगर सरकार सभी किसानों की घटिया फसलें पूरे दाम में खरीदने लगे तो एक दिन ऐसा आएगा कि कोई भी किसान अपनी फसल को भीगने से नहीं बचाएगा क्योंकि उसे इस बात का यकीन हो जाएगा कि सरकार उचित मुआवजा दे देगी. इसी तरह किसान को भी अपने खाने के लिए भीगी और बर्बाद फसल खरीदने की नौबत आ सकती है. अतः सरकारी सहायता के दुरुपयोग को भी रोकना होगा ताकि लोग जान-बूझ कर ही इसे प्राप्त न करने लगें. जिन लोगों को इसकी आवश्यकता है उन्हें इससे वंचित न रहना पड़े. यह सब आपसी सहयोग एवं तालमेल से ही संभव हो सकता है.

हमारी सरकार तो सभी नागरिकों हेतु कई कल्याणकारी योजनाएं चलाती ही है, उसी तरह किसानों को भी अपने उत्थान के लिए स्वयं आगे आना होगा ताकि वह छोटी-मोटी प्राकृतिक आपदा से स्वयं ही निपट सके. ये आपदाएं केवल किसानों को ही नहीं बल्कि हमारे देश के सभी लोगों को प्रभावित करती हैं. ऐसे में हम सब को आत्महत्या का विचार छोड़ कर हिम्मत से काम लेना होगा ताकि मौसम की मार को बे-असर किया जा सके!

उबाऊ टी.वी., पकाऊ मीडिया; ठगता रहेगा, बिकाऊ मीडिया!


व्यावसायिक होना बुरी बात नहीं है परन्तु जिस तरह हमारा टी.वी. मीडिया ख़बरों की मार्केटिंग कर रहा है, वह अवश्य ही निंदनीय है. पिछले दिनों बोट क्लब, दिल्ली में एक रैली हुई जिसमें कथित रूप से किसी किसान ने पेड़ पर लटक कर अपनी जान दे दी. हमारा टी.वी. मीडिया जोर-शोर से इस खबर का प्रसारण ही नहीं बल्कि यूं कहें कि सुबह शाम भोंपू की तरह इसका बखान करने में लग गया. ऐसा लगता था कि देश में इस खबर के अतिरिक्त कोई दूसरी खबर है ही नहीं. अगर कोई इनसे पूछे कि जब किसान आत्महत्या कर रहा था तो आप उसकी तस्वीरें उतारने में लगे रहे. क्या आपने उसकी जान बचाने की सोची? अगर चाहते तो मीडिया वाले ही उसकी जान बचा कर देश में सबकी वाह-वाही लूट सकते थे. परन्तु सवाल तो टी.आर.पी. का है न. क्या किसान की जान बचने से इनके चैनल हेतु कोई कहानी बन पाती? फिर अचानक नेपाल में भूकंप आया तथा हज़ारों लोग बेघर हो गए तथा कईयों को अपनी जान गंवानी पडी. मैं यहाँ ये स्पष्ट कर दूँ कि इस लेख का उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष या संस्था पर दोषा-रोपण करना कतई नहीं है. यह लेख तो केवल आत्मचिंतन एवं मंथन करने की कवायद भर ही है जिसे इसी परिपेक्ष्य में लिया जाना चाहिए.
यह ठीक है कि मीडिया को संवेदनशील होते हुए तुरंत ताज़ी ख़बरें लोगों तक पहुंचानी चाहिएं परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि सभी ख़बरों को सनसनीखेज तरीके से पेश किया जाए. ज़रा इसकी एक बानगी तो देखिए! नेपाल में भूकंप, कुदरत का कहर, वहाँ सबसे पहले पहुंचे हम, नेपाल की ताज़ा तस्वीरों के लिए देखते रहिए हमारा चैनल....! अब आप ही बताइए कि ये आप खबरें दे रहे हैं या उनके माध्यम से अपने चैनल का प्रचार कर रहे हैं? कई बार तो ऐसा लगता है कि आप प्राकृतिक आपदा को अपने ढंग से दिखा कर प्रभावित परिवारों के जख्मों पर नमक छिड़क रहे हैं. भूकंप-ग्रस्त क्षेत्रों में पहुंचे विभिन्न चैनलों के विडियो कैमरा ऑपरेटर चाहते हुए भी किसी की सहायता करने की बजाय मुसीबत में फंसे लोगों की टिप्पणियाँ ‘लाइव’ दिखाने लगते हैं. यह न केवल अशोभनीय है अपितु शर्मनाक भी है. पत्रकारों को ऐसे स्थान पर जाने हेतु विशेष अनुमति दी जाती है परन्तु ये लोग केवल ख़बरें दिखाने के बहाने रोते-बिलखते आपदा-ग्रस्त लोगों की तस्वीरें प्रसारित करने लगते हैं.
टी.वी. में समाचार देखने पर मालूम होता है कि पहले किसानों की आत्महत्या से संबंधी ख़बरों का सैलाब आया था फिर उसके बाद आम आदमी पार्टी की रैली का. फिर अचानक भूकंप आने से चैनलों ने नेपाल के भूकंप को ही अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने का माध्यम बना डाला. यदि हमारे न्यूज़ चैनल वाले वास्तव में राहत कार्यों में अपना योगदान देना चाहते तो और भी रचनात्मक ढंग से अपना सहयोग कर सकते थे. परन्तु ये लोग तो केवल वही काम करते हैं जिससे इनकी टी.आर.पी. बढ़ सके. आपने एक बात और नोट की होगी कि जब एक चैनल विज्ञापन दिखा रहा होता है तो अन्य चैनल भी विज्ञापन दिखाने की गंगा में हाथ ढो रहे होते हैं, अर्थात आप विज्ञापन देखने से किसी प्रकार नहीं बच सकते. वैसे तो इन सब चैनलों में कड़ी स्पर्द्धा है किन्तु विज्ञापन दिखाने के समय सभी ने एक जैसे ही निर्धारित किए हैं ताकि इनकी कमाई में कोई फर्क न पड़े.
ख़बरें देखते-देखते अचानक टी.वी. स्क्रीन के नीचे एक पट्टी पर लिखा होता है कि शाम सात बजे जानिए कि किस शहर में हुआ महिला का बलात्कार. कहाँ हुआ भीषण सड़क हादसा? उत्तर प्रदेश में ट्रेन को कैसे लूटा गया? एक कलर्क  ने किस प्रकार भ्रष्टाचार द्वारा अकूत धन-दौलत अर्जित की? जानने के लिए देखते रहिए हमारा न्यूज़ चैनल! अब आप ही बताइए कि ये समाचार चैनल हैं या ख़बरों को महिमा-मंडित करते हुए टी.आर.पी. के भूखे भेड़िए? इसका निर्णय मैं आप लोगों पर छोडता हूँ. सीमा पर लड़ते हुए हमारा जवान शहीद हो जाता है जिस पर राजनैतिक लोग बयानबाजी शुरू कर देते हैं. चैनलों को इस ‘शहादत’ की खबर में कोई दिलचस्पी नहीं परन्तु नेताओं के बयान बार-बार दिखाए जाते हैं ताकि समाचार को सनसनीखेज ढंग से पेश किया जा सके. फिर उसी शाम को स्टूडियो में कुछ विभिन्न दलों के नेताओं को बुला कर बहसबाजी की जाती है जिसका परिणाम लगभग शून्य होता है परन्तु इस बीच इनको विज्ञापनों से भारी-भरकम आय हो जाती है.
अगर न्यूज़ चैनल चाहें तो देश की विभिन्न समस्याओं पर राष्ट्रव्यापी बहस अपने माध्यम से करवा सकते हैं. इस तरह की बहस में अलग अलग राजनैतिक दल के व्यक्तियों को बुलाने की बजाय उस विषय से सम्बंधित विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों, समाजशास्त्रियों, सिविल अफसरों, एन.जी.ओ. आदि से सम्बंधित लोगों को ही आमंत्रित किया जाना चाहिए ताकि वे एक दूसरे पर आक्षेप करने की बजाय चर्चा में सकारात्मक रूख अपना सकें. इस तरह की राष्ट्रीय बहस से अवश्य ही समाज एवं देश का हित होगा. अगर चैनल वाले चाहें तो देश के दर्शकों की प्रतिक्रियाएं भी ले सकते हैं. किसी स्थान पर सड़क दुर्घटना देखने पर फ़ौरन सहायता पहुंचाने हेतु सम्बंधित अधिकारियों से संपर्क साधना चाहिए. ये लोग मीडिया के दर से अपना कार्य तत्परता से करने लगते हैं. इसी तरह बाढ़ग्रस्त एवं भूकंपग्रस्त क्षेत्रों में ये लोग अपना सूचना केन्द्र स्थापित कर सकते हैं जो सबकी सहायता करने हेतु बेहतर समन्वय स्थापित करने में अपनी महती भूमिका अदा कर सकता है. मीडिया चाहे तो लोगों को प्रभावित स्थानों हेतु सामग्री भेजने की अपील कर सकता है जो अभी तक किसी भी टी.वी. चैनल ने नहीं की है. अच्छा काम करने के लिए आपको टी.आर.पी. का लाभ तो नहीं मिलता परन्तु लोगों के दिलों में अवश्य ही आपका सम्मान बढ़ता है.

क्या इस देश में ख़बरों के नाम पर सब कुछ उबाऊ होता जा रहा है? ये लोग टी.वी. दर्शकों को कब तक पकाते रहेंगे? इस बिकाऊ मीडिया से कब मुक्ति मिलेगी? शायद इन सब प्रश्नों का उत्तर दर्शकों के पास भी नहीं है. न जाने कब तक इस देश के लोग ऐसे भौंडे मजाक को देखने के लिए ऐसे ही मजबूर होते रहेंगे!

सोमवार, 16 मार्च 2015

खामोश चीखें – एक पुस्तक समीक्षा. (भाग-२)

हरकीरत हीर ने हाल ही में ‘आगमन’ प्रकाशक द्वारा यह कविता संग्रह पाठकों हेतु प्रस्तुत किया है जिसके कुल १२८ पृष्ठ हैं. यह पुस्तक बेजान चीज़ों में भी जान की तलाश करते हुए रूहानियत की नई बुलंदियों को छूने की कोशिश करती हुई प्रतीत होती है. कवयित्री की पंजाबी पृष्ठ भूमि का प्रभाव भी इसमें मुखर होता हुआ जान पड़ता है. कहते हैं पत्थर में खुदा का वजूद है लेकिन सबसे पहले इसे इन्सान ने ही देखा और महसूस किया. मोहब्बत भी कुदरत की बेशकीमती नेमतों में से एक एहसास है जिसका दीदार ना-मुमकिन है लेकिन इसे रूह की गहराइयों से महसूस किया जा सकता है. कहीं ‘कब्र’ में रिश्ते दफन हैं तो कहीं रिश्तों में नफरतों की दरारे हैं. एक अदद ‘तिनका’ .... चाहिए बस ... मोहब्बत को इसी का सहारा है! ऐसा प्रतीत होता है कि कवयित्री ने ‘दर्द’ को गहराइयों से अनुभव करके ही अपनी कविताओं को इस किताब के खाली सफहों यानि ‘कैनवास’ पर उकेरा है. लोग ‘हीर’ को रांझे के कारण जानते होंगे परन्तु राँझा तो उसकी आँखों में साक्षात ‘रब्ब’ को देखता था. कभी-कभी शब्दों के अर्थ इतने गहरे हो जाते हैं कि वे स्वतः बोलने लगते हैं. ‘हीर’ की इन कविताओं में कुछ ऎसी ही अनुभूतियाँ दिखाई देती हैं. इस संग्रह में यथासंभव शब्दों की अपव्ययिता से परहेज़ किया गया है. आपके लिए ‘ईद’ की एक बानगी प्रस्तुत है-
“मैं जब ‘हकीर’ थी
उसके रोज़े ही रोज़े थे
मैं जब ‘हीर’ हुई
उसकी ईद हो गई!”
‘नज़्म’ की बेचारगी पर कहा गया है कि-
”मैं तो नज़्म हूँ
जिसे हर कोई पढता तो है
पर सहेजता कोई नहीं ....”
जो लोग रूहानियत में यकीन रखते हैं उनकी पहुँच सीधे रब्ब तक होती है. कविताएं महज़ लफ़्ज़ों की कारीगरी ही नहीं बल्कि प्रेरणा-स्रोत भी हैं, जैसे एक छोटी से छोटी चिड़िया को भी अपनी ‘उड़ान’ से ये मालूम होना चाहिए कि-
“आकाश सिर्फ खूबसूरत
पंख वालों का ही नहीं
ऊँची उड़ान की सोच
रखने वालों का भी
होता है...!’
‘मिलन’ में मंज़रकशी देखते ही बनती है-
“नज़्म रात
इश्क के कलीरे बाँध
धीमे – धीमे
सीढियां उतर
तारों के घर की ओर
चल पडी ......
खौफज़दा रात
अंगारों पर पानी
डालती रही.....!”
‘माँ’ ... के बारे में लिखा है कि-
.....“आज भी जब देखती हूँ
भरी आँखों से माँ की तस्वीर
उसकी आँखों में
उतर आते हैं
दुआओं के बोल .... !
माजी में स्त्री-पुरुष के परस्पर संबंधों के विषय में बहुत कुछ लिखा जाता रहा है. हमारे समाज में इन दोनों के रिश्तों के बीच असमानता सभी को खलती रही है. “आधा रिश्ता” में इसे यूं उकेरा गया है-
“क्या कहा .... ?
औरत मर्द का
आधा हिस्सा होती है?
बताना तो ज़रा....
तुमने इस आधे हिस्से के बारे
ज़िंदगी में
कितनी बार सोचा........ ?”
कविता संग्रह की कवितायेँ बहुत सहज हैं लेकिन पढ़ने के बाद भी इनका असर दिलो-दिमाग पर छाया रहता है. ‘गुलाब’ में ज़रा इसका जलवा देखिए-
“वक़्त ने कहा
आ तुझे ‘गुलाब’ का फूल दूँ
हवा मुस्कुराई....
पतझड़ का मौसम कभी
रंगीनी नहीं देता हीर ....!”

निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि खामोशी की कोई जुबान नहीं होती, लेकिन कभी-कभी यह खामोशी बुलंद आवाज़ में चीखती हुई अपनी उपस्थिती का आभास करवाती है. हरकीरत ‘हीर’ ने इन्हें “खामोश चीखें’ बता कर पुस्तक के शीर्षक को यथोचित सम्मान देने का सराहनीय प्रयास किया है.   

रविवार, 15 मार्च 2015

दीवारों के पीछे की औरत – एक पुस्तक समीक्षा. (भाग-१)

अदबी दुनिया में हरकीरत 'हीर' एक जाना-माना हस्ताक्षर है. हाल ही में उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. प्रथम पुस्तक का शीर्षक है “दीवारों के पीछे की औरत” जबकि दूसरी पुस्तक है “खामोश चीखें” जिसकी समीक्षा मैं लेख के दूसरे भाग में करूँगा. दोनों ही पुस्तकें ‘आगमन’ मेरठ रोड, हापुड द्वारा प्रकाशित की गई हैं. आप की सभी कविताएं मुक्त-छंद शैली में हैं. वर्षों से व्याप्त समाज की रुढिवादी परम्पराओं को तोडती हुई ये कवितायेँ एक नए समाज के निर्माण हेतु अपना मार्ग प्रशस्त करती हुई प्रतीत होती हैं. हमारे समाज में महिलाएं अक्सर परदे के पीछे रह कर अपने कार्यों का निर्वहन करती आई हैं. परिणाम-स्वरुप इन्हें कई प्रकार के कष्ट एवं विषमताओं का सामना करना पड़ा है. “परदे के पीछे की औरत” ऎसी सभी वर्जनाओं को तोड़ कर आज आगे बढ़ना चाहती है. उसकी यही छटपटाहट ही इस पुस्तक में विभिन्न कविताओं के रूप में मुखर हो कर सामने आई है.
..... अपनी मर्जी से
एक बेटी को जन्म नहीं दे पाती
दीवारों के पीछे की औरत
........... मैं लिख रही हूँ
दीवारों के पार की तेरी कहानी.
अन्यत्र नारी को ‘पत्थर’ मान कर लिखा है.....
“मैं पत्थर थी
अनछपे सफहों की
इक नज़्म उतरी
कानों में सरगोशियाँ की
कुछ शब्दों को मेरी हथेली पर रखा
और ले उडी मुझे
आसमां की ऊंचाइयों पे
जिंदगी से मिलवाने
.......... पत्थर से दो बूँद आंसू गिरे
और मैं जिन्दा हो गई!”
ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी यह पुस्तक एक बहु-पृष्ठीय कैनवास की तरह है जिसके प्रत्येक सफ्हे पर एक नई शैली का चित्र है. किसी चित्र में मुस्कराहट है, कहीं खामोशी है, कहीं उम्मीद है तो कहीं ना-उम्मीदी में ‘सत्य का अलाव” जल रहा है. शब्दों के ताने-बाने में निरंतरता है, गहराई है, जीवन की सच्चाई है, दर्द है और कहीं इस दर्द को “माँ.....” का साथ भी मिला है..... मानो माँ का बुना हुआ कोई शाल एक ममतामयी हाथ के रूप में कवयित्री के सर पर रखा हुआ है और वह उस शाल से अपना सारा दर्द भुला देने में सक्षम हो गई हो ......! शब्दों से कविताओं की मंज़रकशी देखते ही बनती है. “करवा चौथ” में आपने अपना तस्सवुर कुछ यूं बयान किया है कि -
.... चाँद तब भी था
चाँद आज भी है
तन्हाइयां तब भी थी
दूरियां अब भी हैं
पर दिलों में कुछ तो है
जो बांधे हुए है अब तक
आज के दिन भीतर कहीं
कुछ सालता है .....!
कहीं शब्द संजीव हो गए हैं तो कहीं मृत.... “चलो यूं करें
आज सारे शब्दों को इकठ्ठा कर
नज़्म के जिस्म पर
ओढ़ा देते हैं इक कफ़न
और लिख देते हैं
राम नाम सत्य है...!”
कभी स्त्री चंडी बन कर अपने हक़ के लिए लड़ती है तो कहीं उसकी चीखें दीवारों के पीछे दफ़न होती हुई प्रतीत होती हैं. ऐसे में “महिला दिवस” के नाम पर हो रहे ढकोसले भी खोखले जान पड़ते हैं. कविताओं में कहीं तो औरत पत्थर बन जाती है तो कहीं वह पुनर्जीवित हो कर एक ‘तब्शीर’ की ख्वाहिश करने लगती है! पुस्तक में सफहों के खाली कैनवास पर उकेरी गई इन तस्वीरों को देख कर कुछ लोग इन्हें “कला की शौक़ीन” भी समझ लेने की भूल कर सकते हैं. परन्तु वास्तविकता तो ये है कि सर्वत्र ऎसी खामोशी है जिसमें आज की स्त्री की आवाज़ और चीखें दब कर रह गई हैं. वह चहुँ ओर ‘झूठ’ और फरेब से ‘कशमकश’ करती हुई नज़र आती है. ‘घाव’.... गहरे हैं परन्तु अंत में एक ऐसे वक़्त की परिकल्पना की गई है जिसमें आस्था और प्रेम के पुनर्जीवित होने की उम्मीद है. यहाँ वक्त को हारा हुआ कहा गया है लेकिन मरा हुआ कदाचित नहीं. शायद यही इस पुस्तक का उद्देश्य भी था कि तमाम विषमताओं के बा[-वजूद कहीं कोई जीवन की किरण दिखाई देती है जो एक दिन हमारे समाज को नई राह पर ले जाएगी जहां औरत को दीवारों के पीछे रहने को मजबूर नहीं होना पड़ेगा! -अश्विनी रॉय ‘सहर’

राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान करनाल (हरियाणा)