My expression in words and photography

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

क्या बैंकों को ए.टी.एम. सुरक्षा शुल्क वसूलने का हक़ है?


बैंकों द्वारा प्रस्ताविक ए.टी.एम. सुरक्षा शुल्क की वसूली किसी भी प्रकार से जायज़ नहीं ठहराई जा सकती. ऐसा प्रतीत होता है कि इस मुद्दे पर सरकार भी अधिक गंभीर नहीं है. सम्भव है सरकार को जनता से अधिक कर वसूली करने के लिए देश में कुछ अधिक ही उर्वरा ज़मीन बनती दिखाई दे रही है. क्या यह बैंक और सरकार के असफल हो रहे कार्य-कलापों की एक जीती-जागती मिसाल नहीं है? जनता की गाढ़ी कमाई के अरबों रूपए हड़प लेने के बाद भी किसी देश की सरकार अपने नागरिकों को बुनियादी सुरक्षा ही न उपलब्ध करा पाए तो ऐसी सरकार का औचित्य ही क्या है?
अगर सरकार ने प्रस्तावित शुल्क वसूलना शुरू कर दिया तो क्या वह लोगों से पुलिस शुल्क की भी माँग करेगी? क्योंकि हर जिला मुख्यालय में जनता की सेवा एवं सुरक्षा हेतु पुलिस तैनात है. हमें कोई हैरानी नहीं होगी कि एक दिन ये सरकार सीमावर्ती जिलों में रहने वालों से सीमा सुरक्षा शुल्क की भी माँग करने लगे. फिर तो रेलें भी जेब-कतरों व लुटेरों से आपको सुरक्षित रखने के लिए सुरक्षा शुल्क की माँग रख सकती हैं. सम्भव है कि बैंक भी आपसे कहने लगें कि वे आपका पैसा बैंक में सुरक्षित रखते हैं, जिसपर बैंक धन खर्च कर रहा है. इसलिए आप हमसे व्याज की माँग नहीं कर सकते. आखिर लोकर पर भी तो आपको शुल्क चुकाना ही पड़ता है न! ज़रा सोचिए, अगर ऐसा हुआ तो बैंकों में धन कौन रखेगा? कुछ देशों में तो अपना धन बैंक में सुरक्षित रखने के लिए भी बैंकों को घूस देनी पड़ती है. क्या ऐसा ही चलन हमारे यहाँ नहीं आने की कोशिश करेगा? ध्यातव्य है कि एक गलत परम्परा पूर्णतया गलत नियमों की नींव रखती है. अतः मन में ऐसे बुरे विचारों को आने से पहले ही शमन कर देना चाहिए.
      आइए, इस समस्या को बैंकों के स्तर पर सुलझाने की कोशिश करते हैं. ज्ञातव्य है कि देश के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए साकार ने बरसों पहले बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था. ये एक अच्छा कदम तो था परन्तु इसके वांछित परिणाम मिलने की बजाए बैंकों को घाटा होने लगा. कारण, सरकार की लोक लुभावन योजनाएं. इन योजनाओं से सरकार को वोट तो मिले किन्तु राजस्व घाटा बढ़ता गया. बैंकों के क़र्ज़ लोगों ने लौटाने बंद कर दिए. इन सब कारणों से बैंकों पर आर्थिक बोझ बढ़ने लगा. कुछ बैंक तो वित्तीय अनुशासन-हीनता के चलते घाटे में आ गए जबकि कुछ बैंक सरकारी नीतियों के कारण क़र्ज़ के बोझ तले दब गए. फिर से निजी बैंकों का दौर आया. आजकल ये बैंक खूब मुनाफ़ा कमा रहे हैं.
कई निजी बैंकों में तो कर्मचारियों को दस-दस घंटे से अधिक काम करना पड़ता है जिसकी कोई सुनवाई नहीं करता. इन बैंकों को जब भी कोई अवसर मिलता है, अपना आर्थिक बोझ ग्राहकों पर लादने की कोशिश करते हैं. कई बैंकों ने ‘न्यूनतम’ राशि जमा करने की कड़ी शर्तें लागू की हैं. कुछ ऐसे बैंक भी हैं जहां आम आदमी का प्रवेश ही वर्जित है! अगर किसी को ड्राफ्ट बनवाना हो तो इसके लिए मोटी फीस देनी होती है, फिर भी बैंक ड्राफ्ट इश्यू करने में अक्सर नखरे दिखाते हैं. कई बैंक पास-बुक इश्यू ही नहीं करते. कुछ सेवाएं ऐसी हैं जो ग्राहकों को बिना मांगे बैंक से मिलनी चाहिएं परन्तु बैंक कुछ भी सुनाने को तैयार नहीं हैं. ऐसा लगता है कि आम आदमी बैंक तथा सरकार रूपी चक्की के दो पाटों के बीच में पिस कर रह गया है. अभी हाल ही में बैंक ग्राहकों को उनकी अधिशेष जमाराशि की जानकारी एस.एम.एस द्वारा बताने के लिए भी साठ रूपए प्रति वर्ष तक वसूलने लगा है. क्या बैक अपने ग्राहकों को ये जानकारी देकर उन पर एहसान कर रहा है? जब ग्राहक बैंकों में आते थे तो बैंक का अधिक रूपया खर्च होता था जबकि आजकल ग्राहक अधिकतर कार्य आधुनिक साधनों जैसे कम्प्ययूटर व टेल्लर मशीनों से करने लगा है जिससे बैंकों का आर्थिक बोझ काफी कम हो गया है.
ये निजी बैंक सिद्धांततः ऐसे  लोगों को क़र्ज़ देते हैं जिनको इसकी आवश्यकता नहीं होती, परन्तु इन ग्राहकों में क़र्ज़ वापिस लौटाने की क्षमता सबसे अच्छी होती है. अब आप ही अनुमान लगा लें की ऐसे बैंकों से देश का क्या उद्धार होने वाला है. अगर देखा जाए तो बैंक का कार्य है कि वह उन लोगों से रुपया लेकर अपने पास सुरक्षित रखे जिन्हें अभी इसकी आवश्यकता नहीं है. बैंक कुछ ऐसे लोगों को ऋण वितरित करता है जिन्हें व्यापार आदि के लिए धन की आवश्यकता होती है. बैंकों को क्रेडिट कार्ड तथा अन्य बैंकर सेवाओं से भी अतिरिक्त आय होती है. आजकल तो बैंक बीमा पालिसी व सोना जैसी चीज़ें भी बेचने लगे हैं. इस लेन-देन से ही बैंक के सभी खर्चे निकलते हैं तथा आमदनी भी होती है. यह सोचने का विषय ही कि आजकल बैंक वह सब काम करता है जिससे उसे मोटी आमदनी हो. जब कोई खर्च करने की बात आती है तो ये एक दम पीछे हट जाते हैं. बैंकों का यह रवैय्या कहाँ तक उचित है?
पहले तो बैंक ने अपने कर्मचारियों को कम करने के लिए टेक्नोलोजी का सहारा लिया तथा ए.टी.एम. के माध्यम से रुपयों की निकासी शुरू की. जब देखा कि इसमें लूट-मार होने लगी, तो झट से सुरक्षा शुल्क लगाने की माँग कर डाली. अब बैंकों ने नया सुर अलापना शुरू कर दिया है कि हम अपने खर्चे पर सुरक्षा गार्ड क्यों रखें. परन्तु सवाल तो यह भी है कि जनता इसका खर्च क्यों दे? अगर कल कोई पब्लिक स्थानों पर लूट-पाट करेगा तो क्या इसे रोकने के लिए जनता से अतिरिक्त कर वसूला जाएगा? आखिर मौजूदा प्रकरण में बैंकों ने अपने कर्मचारियों की संख्या घटा कर ही अधिक लाभ अर्जित किया है. अगर बैंकों ने इन मशीनों के कारण अधिक धन कमाया है तो सरकार को भी लाभ हुआ है क्योंकि बैंक भी इनको भारी-भरकम कारपोरेट टैक्स देते हैं. अतः देखा जाए तो सुरक्षा की जिम्मेवारी सरकार की ही बनती है.
जनता से इस प्रकार का खर्च वसूल करना अनुचित है क्योंकि वह तो पहले से ही इस सरकार को नाना प्रकार के टैक्स देती आ रही है. आप घर से बाहर निकलते हैं तो आपको यात्रा कर चुकाना होता है. अपनी गाड़ी से जाने पर तेल का खर्च, उस पर टैक्स का खर्च. सड़क पर चले तो टोल टैक्स. कपडे धुलवाए तो सर्विस टैक्स. बच्चे कोचिंग से पढाए तो उस पर सेवा कर. खाने-पीने का सामान होटल से लिया तो उस पर भी कर. कुछ ज्यादा कमा लिया तो इनकम टैक्स. कहने का अर्थ है कि आज गरीब से गरीब व्यक्ति भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से इस सरकार को ढेरों रूपए कर के रूप में चुकाता है. क्या इसके बदले में देश की सरकार अपने नागरिकों को उचित सुरक्षा भी नहीं दे सकती? यह न केवल निंदनीय है अपितु शर्मनाक भी है! आज आवश्यकता इस बात की है कि हमारे नागरिक शिक्षित एवं जागरूक बनें ताकि कोई भी सरकार उनका शोषण न कर सके. अतः हमें अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति सदैव सचेत रहना होगा. 

सोमवार, 30 सितंबर 2013

सांसारिक रेलगाड़ी और हमारा समाज


यद्यपि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथापि संसार में इसका कोई भी काम किसी अन्य व्यक्ति के कारण नहीं अटकता. ये संसार इसी प्रकार अनवरत चलता ही रहता है. संसार की तुलना आप एक ऐसी रेलगाड़ी से कर सकते हैं जिसमें विभिन्न गंतव्य स्थानों के लिए प्रस्थान करने वाले यात्री सवार होते हैं.
संसार रूपी इस रेलगाड़ी का अंतिम स्टेशन तो एक ही है किन्तु कुछ लोगों की यात्रा समय से पहले ही पूरी हो जाती है जिसे आप असामयिक मृत्यु भी कह सकते हैं. कुछ यात्री अपने सद्कर्मों से ज्यादा लंबा सफर करने में सक्षम हो सकते हैं और लंबी उम्र कों प्राप्त होते हैं जबकि अन्य लोग इस सुविधा से वंचित रहते हैं. कौन सा मुसाफिर कहाँ उतरेगा, अर्थात मृत्यु कों प्राप्त होगा, ये कोई नहीं जानता.  हालांकि रास्ते से कुछ नए मुसाफिर भी सवार हो सकते हैं जिनकी तुलना आप नवजात शिशु से कर सकते हैं. सफर के दौरान लोग एक दूसरे से बातचीत भी कर सकते हैं.
अगर किसी को कोई सहयात्री अच्छा लगे तो वह प्रेम सम्बन्ध भी बना सकता है, जो आपसी विश्वास पर निर्भर करता है. जो लोग परस्पर सम्बन्ध नहीं बना पाते, वे इसके लिए अपने अभिभावकों की सहायता ले सकते हैं. सांसारिक रेलगाड़ी में कई प्रकार के ताने-बाने विकसित होते रहते हैं जो अपनी कतिपय आवश्यकताओं के अनुरूप इसकी व्याख्या करते हैं. कुछ लोग माता-पिता हो सकते हैं तो कुछ पति-पत्नी या फिर भाई बहिन आदि. पहले पति-पत्नी के इस बंधन कों वैवाहिक बंधन कहा जाता था, आजकल कुछ लोग इसे लिव-इन कहना ज्यादा उपयुक्त मानने लगे हैं. जो बंधन अपेक्षाकृत कम विकसित होता है उसे आप भावनात्मक संबंधों का नाम भी दे सकते हैं.
कई बार पिता-पुत्र या माता-पुत्र के बीच अविश्वास बढ़ने से रिश्ते कमज़ोर पड़ जाते हैं तथा सामाजिक सम्बन्ध होने पर भी इनका कोई अर्थ नहीं रहता. कुछ यात्री आपसी सम्बन्ध बनाने में कोई विश्वास नहीं रखते क्योंकि उन्हें स्वयं पर ही अधिक भरोसा होता है. ऐसे लोग शादी करने की बजाय एकाकी जीवन जीने में अधिक विश्वास रखते हैं. कई लोग ऐसे हैं जो अपने जीवन के लंबे सफर को बहुत उबाऊ अनुभव करते हैं. उन्हें स्वयं के लिए एक उपयुक्त जीवन साथी की तलाश रहती है जो शादी-विवाह के बंधन द्वारा ही प्राप्त हो सकता है.
आजकल युवकों द्वारा शादी करना या न करना भी इसी प्रकार से ही देखा जा सकता है. ये सब हमारे देश में पाश्चात्य सभ्यता के बढते हुए प्रभाव के कारण हो रहा है. मनुष्य अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति सांसारिक वस्तुओं से करने लगा है तथा भावनात्मक सम्बन्ध कहीं पीछे छूट गए हैं. लोग आपसी प्रेम और विश्वास पर आधारित संबंधों कों बोझ समझने लगे हैं हैं जो उचित नहीं है.
ज़रा सोचिए, अगर लोग आपस में पति-पत्नी न होते तो परिवार कैसे बनता? किस प्रकार हम अपनी विरासत आने वाली पीढ़ियों कों सौंप पाते? हमें अपनी गलतियों से सबक कैसे मिलता, अगर कोई हमारा भला चाहने वाला सम्बन्धी ही नहीं होता? समाज, मोहल्ला, गाँव, शहर, महानगर और देश किस प्रकार अस्तित्व में आते? हम अपना काम बाँट कर कैसे कर पाते, अगर सभी अपने ही स्वार्थ की पूर्ति में लगे रहते?
अब आप स्वयं ही यह निर्णय कर सकते हैं कि आप चाहे लड़के हैं या लडकियां...आपको विवाह की आवश्यकता क्यों है! आने वाली पीढ़ियों का भविष्य आप सबकी सोच पर निर्भर करेगा. आप अपने अल्प-कालिक हितों के लिए दीर्घकालिक दुष्परिणामों की संकल्पना भी नहीं कर सकते. अतः शादी करके आप सब एक सुनहरे कल हेतु भावी पीढ़ी का निर्माण करें ताकि लोग वस्तुओं से अधिक आपसी रिश्तों कों महत्व दें. सुख-दुःख में एक दुसरे के भागीदार बनें. बिना-शादी विवाह के कोई भी सम्बन्ध विश्वसनीय नहीं हो सकता.

मनुष्य एक जीता-जागता प्राणी है न कि एक मशीन जिसे न थकावट होती है और न ही दूसरों कों खाली बैठे देख कर ईर्ष्या! जगत में केवल मानव ही एक सर्वोत्तम प्राणी है जिसमें सभी प्रकार की संवेदनाएं एवं अनुभूतियां पाई जाती हैं. हम सब का यह परम कर्तव्य है कि हम शादी-विवाह की इस परम्परा को बनाए रखें ताकि हम न केवल अपने सुख-दुःख सांझे कर सकें अपितु अपने देश के लिए एक बेहतर कल का सपना भी देख सकें!

रविवार, 29 सितंबर 2013

एक अध्यापक की सेवानिवृति

बहुत बरस तक न जाने
कितने शिष्यों को हमने पढ़ाया
निःस्वार्थ भाव से प्रेरित कर
जीवन पथ पर आगे बढ़ाया.
खुशी है मुझको मेरा जीवन
कुछ आपके काम भी आया
आपके स्नेह और विश्वास ने
मुझे इसके योग्य बनाया.
आज है मौका लेखे-जोखे का
क्या किया और क्या हो न पाया
इतना तो संतोष है लेकिन
स्कूल तुम्हारा मेरे मन भाया.
आभारी हूँ सबके सहयोग की
अब सेवा-निवृति का दिन आया
मैं भी कुछ कर पाऊँ घर पर
वक्त आराम करने का आया!
कहीं पर भी रहें हम तुम
रहोगे मेरे बन कर तुम
जरूरत हो तुम्हें जब भी
चले आएँगे फ़ौरन हम!
न भूलोगे कभी हमको
न भूलेंगे कभी हम भी
रहेंगे याद बन कर हम

भुला नहीं पाएंगे हम तुम! - अश्विनी रॉय ‘सहर’

सोमवार, 23 सितंबर 2013

मेरी ख्वाहिश

मेरी हर सांस में हो गुम
जिंदगी की हर धडकन में हो तुम
जीने की हर वजह हो तुम
फिर क्यों भटक रहा हूँ
मैं तेरी तलाश में
जानता हूँ ये कि
तुम कहीं आस-पास हो
न जाने किस बात पर
मुझसे नाराज़ हो
आ जाओ अब तो सामने
कहीं इतनी न देर हो
तुम हो करीब मेरे
और मैं ही न रहूँ!

शनिवार, 14 सितंबर 2013

भारतीय टी.वी. मीडिया एवं हमारी राजनीति

मामला थोड़ा राजनैतिक विषय से सम्बंधित है अतः मैं सर्वप्रथम स्पष्ट करना चाहता हूँ कि न तो मैं किसी दल का समर्थक हूँ और न ही विरोधी. एक सामान्य नागरिक होने के नाते मेरे ये निजी विचार हैं, हो सकता है कुछ लोग इससे सहमत न हों. परन्तु फिर भी मुझे ऐसा लगा कि जैसे हमारे टी.वी. मीडिया को एक अद्यतन खबर कुछ रास नहीं आई. अभी हाल ही में एक राजनैतिक दल द्वारा अपने एक नेता को आगामी लोकसभा चुनावों से पहले ही प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया गया है.
इस घटना में असामान्य कुछ भी नहीं है. कल से सभी टी.वी. मीडिया वाले इस पर विस्तार से चर्चा कर रहे हैं कि ऐसा क्यों हुआ? आखिर इस दल ने अपने वरिष्ठतम नेता को भी विश्वास में लेना उचित नहीं समझा. क्या उस वरिष्ठ नेता के दिन अब लद गए हैं? मीडिया के लोग नाना प्रकार के प्रश्नों की बौछार करके ये मालूम करना चाहते थे कि किसी वरिष्ठ नेता को दरकिनार करके एक कनिष्ठ व्यक्ति को कैसे प्रधानमंत्री के रूप में प्रक्षेपित किया गया. टी.वी. परिचर्चा सुनते हुए ऐसा प्रतीत होता था कि मीडिया के लोग प्रधानमंत्री पद के संभावित दावेदार के बारे में एक ही दल के भीतर चर्चा चाहते थे, जैसे सत्ता दल से उन्हें कोई सरोकार ही न हो.
किसी भी चैनल वाले ने सत्ता दल की प्रतिक्रिया जानने की बजाए एक ही दल के दो व्यक्तियों पर ही स्वयं को केंद्रित रखा. लगता है हमारा मीडिया भी “मीलों तक आ पहुंचा है और इसे अभी मीलों तक और जाना है.” सत्ता पक्ष को नाराज़ करके इन्हें विज्ञापन कौन देगा? आजकल व्यावहारिकता का ही दौर है. खैर चलिए, अगर उस वरिष्ठतम व्यक्ति को प्रधानमंत्री के लिए स्वीकार कर लिया जाता तो भी ये लोग सवाल करते कि इतने बूढ़े व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद के लिए क्यों आगे लाए?
मेरे विचार से इस वरिष्ठतम व्यक्ति को भी प्रधानमंत्री बनने के पर्याप्त अवसर मिले थे जो फली-भूत नहीं हो पाए. अब इनकी उम्र भी काफी है, ऐसे में इन्हें स्वयं ही राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए था जो इन्होंने नहीं किया. खैर, जैसी इनकी मंशा. परन्तु मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि सम्पूर्ण मीडिया को इनसे खासी हमदर्दी मिल रही थी. ढलती उम्र में सहानुभूति नहीं बल्कि आत्मशक्ति और विश्वास काम आता है. कहते हैं संघे शक्ति कलयुगे! ये वरिष्ठ नेता जब अपने ही दल में अकेले पड़ गए हैं तो केवल मीडिया की सहानुभूति इन्हें कैसे प्रधानमंत्री बनवा सकती है?
हाँ, मीडिया ने काफी कोशिश की कि किसी प्रकार इस प्रतिपक्ष पार्टी में फूट पड़ जाए ताकि सत्ता दल खुश होकर इन्हें विज्ञापन गंगा में स्नान करवाता रहे. अब इन मीडिया वाले लोगों को तो बोलना ही है क्योंकि इनका काम तो बोलने से ही चलता है चाहे आप सही बोलो या गलत. हैरानी की बात तो यह है कि जब सत्ताधारी दल से सम्बंधित कोई बवाल होता है तो वही मीडिया तुरंत पतली गली से निकल जाता है. पिछले दो वर्षों में उत्तर प्रदेश में न जाने कितने दंगे हुए, लेकिन उनकी चर्चा को इन चैनलों द्वारा कोई विशेष समय आबंटित नहीं हो पाया. वहीं गुजरात के दंगो की चर्चा के लिए ये मीडिया मानो हरदम तैयार रहता है.

उल्लेखनीय है कि लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया का स्थान सर्वोच्च होता है परन्तु उसे अपना स्वभाव निष्पक्ष रखने की आवश्यकता है. सरकारें आती जाती रहेंगी, परन्तु मीडिया की चमक कभी फीकी नहीं होती. अगर मीडिया निर्भीक एवं निष्पक्ष नहीं होगा तो वह उस मुनादी वाले की तरह है जो सुबह से शाम तक गला फाड़ कर चिल्लाता रहता है परन्तु उसकी बात कोई भी नहीं सुनता.

क्या आप बेटा एवं बेटी में कोई फर्क रखते हैं?

आजकल चर्चा का विषय है कि माँ-बाप द्वारा बेटियों से किया गया प्रेम ही निःस्वार्थ और सच्चा प्रेम है. परन्तु मैं इससे सहमत नहीं हूँ. संभवतः सौ में से शायद एक बेटी को इस तरह का प्रेम मिलता होगा वह भी शिक्षित माँ-बाप के कारण. अन्यथा अधिकतर मामलों में यह प्रेम अत्यंत निष्ठुर ही है.
जब पढाने-लिखाने की बात आती है तो अधिकतर माँ-बाप सोचते हैं की बेटी तो पराया धन है इसे बस थोडा बहुत पढ़ा दो ताकि इसे शादी योग्य बना सकें. येन-केन-प्रकारेण पढ़ा भी दिया तो कोई वोकेशनल मार्गदर्शन नहीं करते और सब कुछ उसकी भावी ससुराल पर छोड़ देते हैं. उनके अनुसार जिसे नौकरी करवानी होगी वह जैसा उचित समझे कर लेगा. हमें बेटी की कमाई थोड़े ही खानी है.  जब बेटे की बात आती है तो उसे व्यावसायिक शिक्षा दी जाती है क्योंकि माँ-बाप को उसके कारण घर में उजाला नज़र आता है. उन्हें लगता है कि भविष्य में ये हमारी सेवा करेगा. बेटे के लिए तो तमाम ज़मीन जायदाद है लेकिन लड़कियों के लिए कुछ भी नहीं.
जिनके पास बेटे नहीं होते वे भी बाहर से बेटा गोद लेकर उसे अपना वारिस बना देते हैं किन्तु बेटियों को फूटी कौड़ी भी नहीं देते. यह सब हमारे समाज में संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है. मैंने कुछ समय पहले भी लिखा था कि बेटा और बेटी में कोई अंतर नहीं होता. बेटे को ब्याह कर आप बहू लाते हैं जो किसी की बेटी होती है, आप चाहें तो उसे लाड-प्यार से अपनी बेटी के समकक्ष ला सकते हैं. इसी प्रकार बेटी को ब्याह कर आप दामाद लाते हैं जो किसी का पुत्र है, किन्तु आप चाहें तो प्यार व दुलार से उसे अपना पुत्र बना सकते हैं.

आजकल हमें न्यायोचित ढंग से विचार करना होगा कि हम हमारे बेटों और बेटियों में कोई अंतर नहीं है तथा ये एक दूसरे के पूरक हैं. घर में इज्ज़त दोनों से ही है. हम एक को लाड दें और दूसरे को ताड़ दें, यह परम्परा अधिक समय तक व्यवहारिक नहीं हो सकती.- अश्विनी रॉय ‘सहर’

अपराध-मुक्त समाज की परिकल्पना

हमारी राजधानी में हाल ही में एक दुष्कर्म के मुकद्दमें पर फैसला आया है जिसमें सभी अभियुक्तों को फांसी की सजा दी गयी है. कुछ लोगों को विश्वास है कि ऐसा होने से लोगों को नजीर मिलेगी और वे कोई गुनाह करने से पहले कई बार सोचेंगे. परन्तु ऐसा संभव होगा, कम से कम अभी तक तो इसकी संभावना नज़र नहीं आती. आप सबको याद होगा कि बरसों पहले एक फ़ौजी अफसर जनाब चौपड़ा साहेब के बच्चों का दिल्ली में अपहरण हुआ था और बाद में उनके मृत शरीर ही पुलिस के हाथ लगे थे. पूरे देश में इसका विरोध हुआ था तथा बिल्ला व रंगा नाम के दो अपराधियों को इस प्रकरण में फांसी की सजा सुनाई गई थी. लोगों ने तब भी ऐसा ही सोचा था कि इस प्रकार की घटनाएं अब बंद हो जाएँगी. परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ. तो फिर इन सब घटनाओं पर लगाम कैसे लग सकती है?
अगर देखा जाए तो हमारी न्याय प्रणाली अत्यंत धीमी गति से चलती है. कुछ मामलों में तो ये इतनी धीमी गति पर चलती है कि अपराध के शिकार भी दुनिया छोड़ जाते हैं और अपराधी बच निकलते हैं. इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था के चलते कुछ लोगों को लगता है कि वे छूट जाएंगे. अतः अपराध होते ही रहते हैं. हमारी शिक्षा प्रणाली भी दोष पूर्ण है. लोग शिक्षित होने के बावजूद संस्कारित नहीं बन पाते. उन्हें सच और झूठ में भेद नहीं पढ़ाया जाता. एक ही कक्षा में बैठे हुए छात्र अपने साथियों के विषय में बुरा सोचते रहते हैं. जब बुराई की मात्रा अधिक हो जाती है तो वह इन्हें अपराध के मार्ग पर ले जाती है.
सरकार द्वारा शिक्षा पर न के बराबर ही धन खर्च किया जाता है जबकि लोक-लुभावन योजनाओं पर बिना किसी बजट के ही धन खर्च होता रहता है. अपराध करने वाले व्यक्ति की जाति व धर्म पर विचार होता है. अगर वोटों का नुक्सान नज़र आए तो अपराधी के अपराध पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता. हमारी पुलिस भी उतनी निष्पक्ष नहीं है जितना उसे होना चाहिए. अगर आप रसूखदार हैं तो थाने में प्राथमिकी दर्ज हो जाती है अन्यथा नहीं. जब गरीबों को न्याय न मिले तो वे अपराध की दुनिया में आगे बढ़ने लगते हैं. एक या दो अपराधियों को फांसी देने से कोई लाभ नहीं होगा जब तक हम उन कारकों को ही समाप्त न कर दें जिनसे अपराध करने की प्रवृति बनती है.
भ्रष्टाचार भी लोगों में सामाजिक विद्वेष का एक बड़ा कारण है जिससे कुछ लोग अमीर व अन्य अत्यंत गरीब हो रहे हैं. बराबरी पर आने के लिए लोग छोटे रास्ते द्वारा धन कमाना चाहते हैं, जो इन्हें अपराध की दुनिया में ले जाता है. स्कूलों में तो अच्छी शिक्षा का अभाव पहले से ही बना हुआ है, ऊपर से हमारे सिनेमा हत्या, नशा, बलात्कार, हिंसा व तड़क-भड़क वाले अश्लील नज़ारे दिखा कर हमारे युवाओं को खराब कर रहे हैं. सभी बच्चे इतने भाग्यशाली नहीं हैं कि उन्हें पढ़े लिखे माँ-बाप का सानिध्य एवं प्रेम मिले. इनके अपराधिक पृष्ठभूमि वाले माँ-बाप अपनी ही संतान का भविष्य दाव पर लगा कर इन्हें अपराध की दुनिया में भेज देते हैं.
हमारा समाज जितना शिक्षित होगा उतना ही मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं के प्रति संवेदनशील होगा. हमारी सरकार नहीं चाहती कि लोग शिक्षित हों. अगर लोग शिक्षित हो गए तो उन्हें भले-बुरे की पहचान हो जाएगी. फिर ये लोग बुरे व्यक्तियों को कभी भी अपने जन प्रतिनिधियों के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे. अगर हमारे जन-प्रतिनिधि साफ़-सुथरी छवि वाले होंगे तो वे किसी भी कीमत पर अपराध नहीं पनपने देंगे. परन्तु देखने में आया है कि हमारे नेताओं का चरित्र शक के दायरे में है. कई लोगों के विरुद्ध अपराधिक मामले चल रहे हैं, जिनपर फैसला शायद इनके जीवन काल में आना तो असंभव है.

इस लेख का उद्देश्य अपराधियों के प्रति नरम रवैया अपनाना नहीं है, परन्तु उन विसंगतियों की ओर ध्यान आकृष्ट करना है जिनसे हमारे समाज में दिनों-दिन अपराध बढ़ रहे हैं. हमें न्यायोचित न्याय प्रणाली की आवश्यकता है जो सभी प्रकार के अपराधियों के साथ सख्ती से पेश आए. ज्ञात स्त्रोतों से अधिक आय रखने पर कुछ लोग तो बच जाते हैं परन्तु हमारे जैसे व्यक्तियों को हज़ार पांच सौ रूपए कर जमा कराने के लिए तुरंत नोटिस जारी हो जाते हैं. देखा गया है कि कुछ लोग करोड़ों की ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लेते हैं तो उन पर कोई कार्यवाही नहीं होती, परन्तु अगर कोई अपराधी सौ या दो सौ रूपए की चोरी करे तो उम्र भर सलाखों के पीछे सडता रहता है. अपराधी मनोवृति हमारे समाज से ही पनपती है. अतः हमें अपनी सोच को बदलना होगा ताकि अपराध को कभी भी संरक्षण न मिल सके. जब अपराधियों को संरक्षण मिलना बंद हो जाएगा तो फिर किसी भी परिवार में अपराध नहीं पनप सकेगा.

शनिवार, 7 सितंबर 2013

मनुष्य झूठ क्यों बोलता है?

कुछ लोग झूठ इसलिए बोलते हैं कि उन्हें ऐसा करने में शायद कुछ मज़ा आता है. परन्तु इस प्रकार झूठ बोलने वाले लोग शायद अपरिपक्वता के कारण ही ऐसा करते हैं. इसमें उनका कोई स्वार्थ नहीं होता. झूठ बोलकर कोई भी व्यक्ति खुश नहीं रह सकता. झूठे व्यक्ति को उसकी अंतरात्मा बार बार झकझोरती है कि तूने झूठ बोलकर अच्छा नहीं किया. उल्लेखनीय है कि मनुष्य फिर भी झूठ बोलता है क्योंकि इसके लिए शायद कुछ विशेष परिस्थितियाँ अधिक उत्तरदायी हैं. आइए, देखते हैं कि मनुष्य को किन-किन परिस्थियों में झूठ बोलने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
      हम फेसबुक पर हैं, तो अपनी बात यहीं से शुरू करते हैं. अक्सर लोग इस सामाजिक वेब साईट पर अपनी पोस्ट डालते रहते हैं जिसे आपके मित्र एवं पाठक पढकर अपनी प्रतिक्रया देते हैं. कुछ लोग केवल लाइक करके ही इतिश्री कर लेते हैं, जबकि अन्य लोग इसे पढकर अपनी स्वाभाविक एवं व्यावहारिक प्रतिक्रया देने में ज़रा भी संकोच नहीं करते. अच्छा मित्र वही है जो आपकी त्रुटियों को आपके संज्ञान में लाए. परन्तु देखा यह गया है कि किसी पोस्ट में त्रुटि बताने वाले मित्रों से बहुत से लोग शीघ्र किनारा कर लेते हैं. अगर त्रुटि न बताएं, तो कभी कभी आपके मित्रों को अपनी पोस्ट पर शर्मिंदगी उठाने की नौबत भी आ सकती है.
      अब आपके पास दो विकल्प हैं. पहला तो ये कि आप पोस्ट में त्रुटि होने की जानकारी अपने मित्र को दें ताकि उसे बाद में बुराई न मिले. दूसरा यह कि आप उस पोस्ट में कोई दोष न बताएं और इसे ऐसे ही रहने दें. पहले विकल्प में आपका मित्र आपसे तुरंत नाराज़ हो सकता है. दूसरे विकल्प में आप स्वयं को नाराज़ कर लेते हैं. जाहिर है आप स्वयं को तो मना सकते हैं परन्तु मित्र को मनाना कुछ कठिन अवश्य हो सकता है. अतः आप झूठी प्रशंसा करके मित्र को खुश कर देंगे हालांकि पोस्ट में प्रशंसा के लायक कुछ भी नहीं था.

      स्पष्टतः सच बोलने के लिए साहस की आवश्यकता पड़ती है जो सभी लोगों में सभी परिस्थितियों के अंतर्गत शायद नहीं हो सकता. हम घर में बीवी-बच्चों को क्षणिक आनंद देने के लिए भी झूठ बोल देते हैं. अगर कोई सामान घर के लिए नहीं खरीद पाएं तो हम इसे अगले दिन पर टाल देते हैं तथा अगले दिन फिर झूठ बोलते हैं कि ये तो बाज़ार में उपलब्ध नहीं था. हम ऐसा इस लिए करते हैं कि हमें डर लगता है कि सच बोलने से घर में क्लेश छिड़ सकता है. यह सच है कि सभी लोग सच बोलकर ही खुश रह सकते हैं, परन्तु इसके लिए साहस न जुटा पाने के कारण लोग अक्सर झूठ बोलने को मजबूर होते हैं. अतः हमें साहसी बनने की आवश्यकता है ताकि सच का सामना कर सकें.

गीत

देखो देखो, हाँ देखो, हाँ देखो दोस्तो
यूं न देखो, तुम देखो, न देखो दोस्तो.

अच्छी होती, है अच्छी, अदाएँ दोस्तो
नहीं होती, हैं अच्छी, जफ़ाएं दोस्तो
देखो देखो, हाँ देखो, हाँ देखो दोस्तो
यूं न देखो, तुम देखो, न देखो दोस्तो. 1

तुम हो अच्छे, तो अच्छी, है दुनिया दोस्तो
वरना कुछ भी, नहीं है, ये दुनिया दोस्तो
देखो देखो, हाँ देखो, हाँ देखो दोस्तो
यूं न देखो, तुम देखो, न देखो दोस्तो. 2

ये जो नफरत, है नफरत, बुराई दोस्तो
कर लो प्यार, मिटा दो, बुराई दोस्तो
देखो देखो, हाँ देखो, हाँ देखो दोस्तो
यूं न देखो, तुम देखो, न देखो दोस्तो. 3

जो है तेरा, है मेरा, हाँ मेरा दोस्तो
जो है मेरा, हाँ मेरा, वो सबका दोस्तो
देखो देखो, हाँ देखो, हाँ देखो दोस्तो

यूं न देखो, तुम देखो, न देखो दोस्तो. 4

रविवार, 1 सितंबर 2013

गज़ल


करते नहीं अब लोग आइना-लुक
जब से यहाँ आ गई है फेसबुक!
सब मसरूफ हो गए हैं आजकल
इस तरह अब छा गई है फेसबुक.
पीरों-जवां पे कर दिया जादू इसने
इक ऐसा मुकाम पा गई है फेसबुक.
दिन को आराम है न चैन रात में
लोगों को ऐसे भा गई है फेसबुक.
घर-बाहर की किसी को फिक्र नहीं

सबको दीवाना बना गई है फेसबुक.-अश्विनी रॉय सहर

शनिवार, 31 अगस्त 2013

गज़ल

वो सोने की तरह तोल रहा है
सोना नहीं प्याज तोल रहा है.
डॉलर के सामने सिसक रहा है
वो कहते हैं रूपया बोल रहा है.
गिरा है ये ओंधे मुंह फिर भी
रूपए पर हर दिल डोल रहा है.
लुटती है सरे-बाजार आजकल
अस्मत का नहीं मोल रहा है.
काला धन खामोश है लेकिन

देश के ये राज़ खोल रहा है.

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

मेरा दोस्त


मेरा दोस्त कहीं खो गया है
आपने उसे कहीं देखा है?
मेरे साथ रहता था हर दम
खेलता, कूदता और मुस्कुराता था
न जाने अब कहाँ चला गया है!
मेरा दोस्त कहीं खो गया है
आपने उसे कहीं देखा है?
वो मेरा हमराज़ था
मुझको उस पर नाज़ था
उसका अक्स मेरे पास रह गया है!
मेरा दोस्त कहीं खो गया है
आपने उसे कहीं देखा है?
सदा सभी से मिल कर रहना
बुरा लगे तो चुपके से सहना
न जाने क्यों अब असहनीय हो गया है!
मेरा दोस्त कहीं खो गया है
आपने उसे कहीं देखा है?
जिंदगी की इस धूप-छाँव में
चल रहा हूँ अकेला छाले हैं पाँव में
ऐसा लगता है कि वो आ गया है!
मेरा दोस्त कहीं खो गया है

आपने उसे कहीं देखा है?

सोमवार, 8 जुलाई 2013

गीत

उम्र गुज़र गई यूं ही
यादों के सहारे
कोई हमको भूल गया
किसी को हमने भुला दिया.
उम्र गुज़र गई यूं ही...
जीवन में चलते चलते
लोग मिलते रहे
बढ़ने लगे जब आगे
तो फिर कारवां हुआ.
कोई आगे को बढ़ गया
कोई पीछे ही रह गया
कोई हमको भूल गया
किसी को हमने भुला दिया.
उम्र गुज़र गई यूं ही...
अपने अपनों का साथ
हर किसी को मिले
सबको मिले वो यार
जो प्यार अच्छा लगे.
यूं ही प्यार करते करते
बस प्यार हो गया
कोई हम को भूल गया
किसी को हमने भुला दिया.

उम्र गुज़र गई यूं ही...

गुरुवार, 27 जून 2013

कितना अच्छा था !

कितना अच्छा था पापा पापा कहना
लेकिन बड़ा मुश्किल है पापा कहाना.

अपना था रोज का वही गोरख-धंधा
मगर अच्छा लगता था बाप का कंधा
बहुत मुश्किल था तब कोई डांट सहना.
कितना अच्छा था पापा पापा कहना
लेकिन बड़ा मुश्किल है पापा कहाना.

वो टी.वी. में कोई विज्ञापन का देखना
पापा से कहना “मेरे वास्ते भी ये लाना”
और ज़रा ज़रा सी बात पे फिर रूठना.
कितना अच्छा था पापा पापा कहना
लेकिन बड़ा मुश्किल है पापा कहाना.

अक्सर पापा से डांट खा कर रोना
फिर माँ की गोद में जाकर सोना
बस बे-फिकर, हर दम मस्ती करना.
कितना अच्छा था पापा पापा कहना
लेकिन बड़ा मुश्किल है पापा कहाना.

अब शुरू हो गया है पापा कहाना
ढूँढता रहता हूँ हर दम कोई बहाना
कल वो बहला दिया आज क्या कहना.
कितना अच्छा था पापा पापा कहना

लेकिन बड़ा मुश्किल है पापा कहाना.