My expression in words and photography

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

जीवन में जल एवं भोजन का महत्व


जीव भोजन के बिना कितना समय जीवित रह सकता हैइस प्रश्न का उत्तर बहुत सी बातों पर निर्भर करता है. जेलों में रहने वाले बहुत से कैदी कई सप्ताह तक भोजन के बिना जीवित रह पाए हैं, हालांकि यह व्यक्ति विशेष के स्वास्थ्य एवं इच्छा शक्ति पर भी निर्भर करता है कि वह भोजन के बिना कितनी देर तक जीवित रह सकता है. कई लोग जंगलों में विकट परिस्थितियों के चलते कई सप्ताह तक जीवित रहने में भी सफल हुए हैं. मेडिकल साईंस के अनुसार स्वस्थ मनुष्य आठ सप्ताह तक भोजन के बिना रह सकता है बशर्ते उसे पीने के लिए पर्याप्त जल मिलता रहे. कई लोग भोजन के बिना इस अवधि से कम समय में ही दम तोड़ देते हैं. देखा गया है कि मजबूत शारीरिक गठन वाले व्यक्ति में जमा वसा कठिन परिस्थियों में ऊर्जा का एक प्रमुख स्रोत मन जाता है. शरीर में ऊर्जा कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन वसा के रूप में विद्यमान होती है. भोजन लेने से सर्वप्रथम संग्रहीत कार्बोहाइड्रेट तथा बाद में वसा का उपभोग होता है. इन दोनों के भण्डार समाप्त होने पर शरीर में विद्यमान प्रोटीन का क्षरण होने लगता है जिससे प्राणी में बहुत कमजोरी आने लगती है.
शरीर में भोजन से ऊर्जा मिलना चय-अपचय क्रियाओं की गति पर भी निर्भर करता है. यदि भोजन मिले तो ये क्रियाएं स्वतः धीमी गति से चलने लगती हैं ताकि भोजन से प्राप्त ऊर्जा लम्बे समय तक प्राप्त होती रहे. इन क्रियाओं को वातावरणीय परिस्थितियाँ भी प्रभावित करती हैं. यदि मौसम बहुत ठंडा या गर्म हो तो दोनों ही अवस्थाओं में भोजन के बिना निर्वाह करना कठिन होता है. यदि ठण्ड अधिक हो तो शरीर को गर्म रखने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है, परन्तु मामूली गर्मी में प्राणी भोजन के बिना अपेक्षाकृत अधिक समय तक जीवित रहने में सक्षम होता है.
भोजन मिलने से शरीर में दुर्बलता जाती है तथा प्राणी ठीक तरह से सोच नहीं पाता. उसे दस्त भी हो सकते हैं तथा उसकी निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है. कुछ दिन की समयावधि में ही प्राणी की रोग-प्रतिरोध क्षमता प्रभावित होने लगती है. बहुत ज्यादा दिनों तक भूखा रहने पर चक्कर आना तथा शरीर के अकड़ जाने की नौबत जाती है. मांसपेशियों की सिकुडन अनियमित हो जाती है जिससे दिल की धड़कन कम ज्यादा होने लगती है. उपर्युक्त तर्कों से स्पष्ट है कि भोजन के बिना प्राणी कई सप्ताह तक जीवित रह सकता है. परन्तु जल के बिना जीवन की कल्पना करना अत्यंत कठिन हो सकता है.गर्मी के मौसम में जल के बिना एक घंटे में ही निर्जलन की स्थिति उत्पन्न होने लगती है तथा कुछ ही घंटों में प्राण संकट में सकते हैं. शरीर से जल की हानि पसीने, पेशाब, मल त्याग एवं श्वसन क्रियाओं के दौरान होती है. शरीर को सामान्य रूप से काम करने के लिए इस जल की आपूर्ति करना आवश्यक होता है.
गर्मी के समय एक स्वस्थ मनुष्य लगभग 1.5 लीटर पानी केवल पसीने के द्वारा ही निकाल देता है. यदि इस जल का पुनःभरण किया जाए तो शरीर का तापमान बढ़ने लगता है तथा ताप-घात से मृत्यु हो सकती है. ऐसे समय में पानी पीने से शरीर का तापमान सामान्य होने लगता है तथा प्राणी अधिक समय तक जीवित रहने में सक्षम हो सकता है.  निर्जलन की स्थिति में मुँह की लार सूखने लगती है. पेशाब बहुत कम आता है तथा इसकी मात्रा भी कम होने लगती है. पेशाब का रंग गहरा होने लगता है तथा इसकी गंध तीव्र हो जाती है. ज्यादा समय तक निर्जलन होने पर आँखें अन्दर की ओर धंसने लगती हैं तथा ह्रदय गति बढ़ जाती है. यदि ऎसी स्थिति और अधिक समय तक बनी रहे तो पेशाब आना बंद हो जाता है. शरीर में सुस्ती आने लगती है. उल्टियाँ दस्त हो जाते हैं जिससे से रक्त चाप कम होती है शरीर ठंडा होने से ताप-घात की आशंका बन जाती है. कोई भी व्यक्ति जल के बिना 3 से 5 दिन तक ही जीवित रह सकता है, चाहे वह कितना ही स्वस्थ क्यों हो. अच्छे स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त मात्रा में जल पीना अत्यंत आवश्यक है. विभिन्न जीवों की जल ग्रहण क्षमता उनकी आवश्यकतानुसार कम अथवा अधिक हो सकती है

बुधवार, 7 नवंबर 2012

एक प्रश्न


अक्षम्य अपराध है इनका 
कल इन्होंने देखा
एक मासूम का
खून होते हुए
देखा एक अबला 
नारी की अस्मत लुटते हुए
और देखा बार बार
बाल-शोषण होते हुए
फिर भी खामोश रहीं ये 
देखा है इन्होंने न जाने
कितने जुल्म होते हुए
लेकिन सब अनदेखा किया
डाली है इन्होंने
बुरी नज़र 
न जाने कितनों पर
और कितनी बार  
घोर पापी हैं ये 
इन्हें कठोर दंड मिले
लेकिन कौन देगा
इनको दंड  
जब एक ही हों 
मुंसिफ और मुजरिम
शायद आपको भी
यकीं न आये
क्योंकि यह जुर्म
अपनी आँखों ने किया है
क्या अंतर्मन गवाही देगा
खुद को दोषी मान कर
अगर नहीं तो
फिर कैसे सजा दोगे
अपनी ही आँखों को ?

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

बाल-वाटिका


कक्षा में मेरा प्रथम दिन

जब मैं प्रतिदिन अपने घर की छत से स्कूल जाने वाले बच्चों को देखता था तो मेरा मन भी उनके साथ चलने को होता था. मेरे बार बार कहने पर मुझे सब समझा देते कि अभी मैं छोटा बच्चा हूँ. मैं तो बस चुप करके ही रह जाता था. मैं सोचता था कि स्कूल में बच्चे कैसे पढते होंगे? वहाँ पर बड़े मैदान में खेलने का तो अलग ही मज़ा आता होगा! सुना था कि अध्यापक भी बच्चों को बहुत प्यार करते होंगे. ऐसे ही ढेरों विचार मेरे मन में आते परन्तु मैं कुछ भी नहीं कर सकता था.

आखिर एक दिन मुझे बताया गया कि मैं अब बड़ा हो गया हूँ. मेरी आयु स्कूल में प्रवेश योग्य हो गई थी. मैं अपनी मम्मी तथा पापा जी के साथ कार द्वारा स्कूल पहुँचा. मन में पहली बार स्कूल जाने की खुशी के साथ साथ एक अनजाना डर भी बना हुआ था.  मुझे स्कूल टीचर ने प्रवेश की अनुमति दे दी थी. पापाजी मुझे कक्षा में छोड़ कर जैसे ही जाने लगे मुझे एक दम रोना आ गया. मैं अपने मम्मी पापा से अलग नहीं होना चाहता था. मम्मी जी ने मुझे याद करवाया कि मैं कैसे उन्हें बार-बार स्कूल जाने के लिए कहता था. अब सारा मामला बदल गया था और मुझे अचानक अकेलापन खलने लगा था. तभी स्कूल टीचर ने मुझे अपने पास बुला लिया तथा मम्मी व पापाजी को बाय बाय करने को कहा. मैंने डर के मारे ऐसा ही किया.

टीचर ने मुझे खाने को चोकलेट दी तथा कक्षा में अपने सामने वाली कुर्सी पर बिठा दिया. सभी बच्चों से मेरा परिचय करवाया. मुझे यह सब बड़ा अच्छा लग रहा था तथा अब दो-तीन बच्चों से मेरी अच्छी दोस्ती भी हो गई थी. टीचर ने बड़े प्यार से हमें अंग्रेज़ी व हिन्दी पढाई व हमें लिखने को कहा. दोपहर की छुट्टी होते ही घंटी बज गई. मैंने अपने दो दोस्तों के साथ बैठ कर खाना खाया. इसके बाद हम सब मैदान में खेलने चले गए. खेलने के बाद जैसे ही घंटी बजी हम दुबारा कक्षा में आ गए. अब हमें पढाने के लिए दूसरी टीचर आ गयी थी. हमें बहुत अच्छी बातें बतायी गई. मैं सोच रहा था कि आज का दिन सचमुच बहुत ही अच्छा है.  आज मैंने पहली बार कक्षा में पढ़ाई की तथा दो अच्छे दोस्त भी मिले.  मुझे अपने टीचरों से बहुत अच्छी अच्छी बातें भी सीखने को मिली. जाते समय टीचर ने हमें होम वर्क भी करने को दिया.
मैं कक्षा में बिताए अपने पहले दिन को कभी नहीं भूल पाऊँगा.

सोमवार, 24 सितंबर 2012

“रूपया पेड़ों पर नहीं उगता”


“रूपया पेड़ों पर नहीं उगता” यह शास्वत सत्य है. परन्तु न जाने क्यूं बार-बार यही प्रश्न मस्तिष्क को अंदर तक झकझोर रहा है कि ऐसा क्यूं नहीं होता. काश रुपया पेड़ों पर उगता! कम से कम इनके दोहन के लिए भी सरकार द्वारा बोली वाली प्रक्रिया अपनाई जाती. अगर बोली की बजाय ये पेड़ किसी रसूखदार व्यक्ति या कंपनी को आबंटित होते तो इस पर भी शीर्ष ऑडिट संस्थाएं अपनी नुक्ताचीनी करती. सरकार की देश भर में निंदा होती. न जाने कितने जुलूस व मोर्चों का आयोजन होता. देश भर की राजनीति आखिर यूं ही तो नहीं गहराती है.

अगर देखा जाए तो पेड़ भी तो अपने लिए लवण, खनिज तथा जल भूमिगत स्रोतों से ही प्राप्त करते हैं. भूमिगत खनिज सम्पदा राष्ट्रीय सम्पति है, जिसका दोहन सरकार की आज्ञा के बिना हो ही नहीं सकता. वैसे भी आजकल जल को राष्ट्रीय सम्पति घोषित करने की मांग उठने लगी है. अगर रूपए पेड़ों पर ही उगते तो इनके बीजों का वितरण सरकार ही करती. इसके लिए आवश्यक उर्वरकों का आयात विदेशों से किया जाता. आखिर रुपये छापने के लिए भी तो बेहतरीन आयातित कागज़ की आवश्यकता जो पड़ती है! बढ़िया रुपयों की पैदावार के लिए हर वस्तु उच्च गुणवत्ता की ही लगाई जाती है.

‘रुपये के पेड़ों’ की खेती नियंत्रित करने के लिए एक मलाईदार मंत्रालय भी स्थापित किया जाता. इस मंत्रालय को पाने के लिए नेताओं में अच्छी खासी होड़ लग जाती. बढ़िया नस्ल के ‘कुबेर’ पेड़ों के बीज भी विदेशों से मंगवाए जाते. इनके बीजों के चुनाव के लिए हमारे मंत्री सरकारी खर्चे पर विदेशों का दौरा करते. वहाँ से ‘रूपए’ की खेती के लिए आधुनिक तकनीकी हमारे देश में लाई जाती. हो सकता है कि ‘रुपयों की खेती’ के लिए अन्य देशों के साथ संयुक्त उपक्रम भी स्थापित किए जाते. कुल मिलाकर यह निश्चित है कि इस खेती पर हमारे बज़ट का एक बहुत बड़ा भाग व्यय किया जाता.

‘रूपए के पेड़ों’ की खेती के लिए लाइसेंस लेना आवश्यक हो जाता. इसकी फसल के लिए समर्थन मूल्य घोषित करने की तो आवश्यकता ही न रहती. हो सकता है देश में खाद्यान्नों के दाम बहुत अधिक बढ़ जाते. क्योंकि रुपये के पेड़ उगाने वाले आखिर अनाज या सब्जियां क्यों उगाएंगे! अगर ‘रूपए’ की भरपूर खेती होने लगे तो बैंकों का कामकाज बढ़ जाता. किसान क़र्ज़ लेने की बजाय क़र्ज़ देने लगते. किसान सरकार से कोई माफी की मांग नहीं करते, उल्टा सरकार किसानों को अपना क़र्ज़ माफ करने के लिए कहती रहती. ‘कुबेर’ पेड़ों की खेती का अर्थ यह नहीं कि लोग गरीबी रेखा के नीचे नहीं हो सकते. गरीबी रेखा तो अवश्य रहेगी परन्तु काफी अधिक रूपए रखने वाले लोग भी इस रेखा के नीचे आ जाते. अर्थात रूपए अगर पेड़ों पर लगने लगें तो भी कुछ लोग गरीबी रेखा के नीचे रहेंगे ही!

अगर रूपया पेड़ों पर लगने लगे तो लोग फिर भी इन्कम टैक्स चुकाने में दकियानूसी दिखाएंगे. अपनी पैदावार कम बताएंगे. रूपया बैंक में डालने की बजाए स्विस बैंकों में रखेगे. आजकल एक हज़ार से कुछ लाख रुपयों की रिश्वत से फिर भी कोई काम हो जाता है. रूपया पेड़ों पर लगने के कारण संभव है कि अपना कार्य सिद्ध करने के लिए शायद करोड़ रुपयों की रिश्वत भी कम पड़ने लगे. लोग अस्पताल में अपने मरीजों के लिए दवाई तो खरीद पाएंगे मगर हो सकता है जिंदगी पहले से अधिक सस्ती हो जाए. संभवतः सब लोग गाड़ियों में घूमने लगे और सड़क पर यातायात नियंत्रण की समस्या पैदा हो जाए. दुर्घटनाएं बढ़ने से मनुष्य का जीवन नर्क बन सकता है.

पेड़ों पर रूपए उगने से इच्छाएं तो बढ़ती हैं परन्तु संतोष की प्राप्ति नहीं होती. हे ईश्वर! तेरा लाख लाख शुक्र है कि तूने रुपयों को पेड़ों पर नही उगाया. अगर रूपए पेड़ों पर उगते तो शायद लोग तुझे भी खरीद लेते. दुनिया से तेरा डर ही समाप्त हो जाता. कम से कम लोग अब यह तो स्वीकार करते ही हैं कि रूपया सब कुछ नही होता. फिर भी हम आज इस सदमे से दो-चार हैं कि रूपया पेड़ों पर नहीं उगता. इसके पीछे भी एक दर्द छुपा है. एक कड़वाहट है, टीज़ सी उठती है. एक शिकायत है कि रूपया पेड़ों पर क्यों नहीं लगता.

कुछ ऐसे बुद्धिमान लोग भी हैं जो रूपया शायद अपनी हथेली पर उगाना बखूबी जानते हैं. यह बात अलग है कि ऐसा करने के लिए आपको अत्यंत पोषक राजनीति-युक्त मौसम के साथ साथ कोयले की खाद, रिश्वत का पानी, टू जी के विटामिन, और ढेरों प्रकार की अन्य आवश्यक सामग्री की ज़रूरत पड़ेगी जो शायद बहुत कम लोगों को ही मयस्सर होती है. परन्तु जिनके पास ये सामग्री है वही लोग बार बार यह बात कहते हैं कि “रूपया पेड़ों पर नहीं उगता”.

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

परोपकार


जब मैंने
मखमली घास के
तिनकों से पूछा
कैसा लगता है तुम्हें
जब लोग
तुमको रौंद कर
दूर चले जाते हैं...
कष्ट तो होता होगा न
तो आवाज आई
बिलकुल नहीं
मेरे ऊपर पड़ने वाले
हर पाँव को
मैं सुकून देता हूँ
जिससे इतनी
खुशी होती है कि
मैं अपना दर्द
भूल जाता हूँ

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

तीन क्षणिकाएं

यथार्थ
दुनिया सिंधु महान्
मानव बूँद समान.

आम
आम
आजकल नहीं रहा आम
क्योंकि
खास लोग ही
अब खाते हैं
आम.

कल और आज
कल तक
माँ-बाप ही थे
दौलत
आज
दौलत हो गई है
माँ-बाप.

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

कल आज और कल

लोग समझते हैं कि
बुजुर्गों की सोच अलग है
उनकी अपनी सोच से
दोनों में फासला है
एक पीढ़ी का
शायद इसीलिए
अपने बुजुर्गों का
वे आदर नहीं करते.

न जाने वही बुजुर्ग
मुझे इतने अच्छे
क्यूं लगते हैं?
इनकी किसी भी बात पर
गुस्सा नहीं आता.
अनायास ही मैं कल
एक बुजुर्ग से टकरा गया.
हालांकि गलती उनकी थी
फिर भी कुछ न कह पाया
बस मुस्कुरा कर रह गया.

शाम को देखा पार्क में फिर
दो बुजुर्गों को बतियाते हुए
सुना रहे थे शायद
अपनी कथा-व्यथा
एक दूसरे को.
हल्की सी मुस्कान दौड गई
मेरे चेहरे पर
जब मैंने बड़ी हसरत से
देखा एक टक
उन दोनों की ओर क्योंकि
चलता नहीं किसी का
यहाँ वृद्धावस्था पर जोर.

सुबह सुबह देखा मैंने
फिर एक बुजुर्ग को
छोटे से बच्चे के साथ
घास पर टहलते हुए.
मन ही मन
खुश हो रहा था मैं
क्योंकि वर्तमान ने
देख लिया था आज
अपना बीता हुआ कल
और आने वाला कल !