My expression in words and photography

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

धर्मांतरण पर कैसा बवाल?

हमारे देश में सभी नागरिकों को छूट है कि वे किसी भी धर्म का पालन करें. फिर भी यदा-कडा इस मुद्दे पर सियासत गरमाती रहती है कि देश में कुछ संगठन जबरन धर्म परिवर्तन करवाने में लगे हैं. किसी ने ठीक ही कहा है कि-
“उम्र बीती बुतपोशी में, अब क्या ख़ाक मुसलमान होंगे!” अर्थात सारी जिंदगी तो मूर्ति-पूजा करते रहे, अब आप मुसलमान कैसे बन सकते हैं? कुछ लोग अदूरदर्शिता अथवा आर्थिक प्रलोभन के कारण भी धर्म परिवर्तन हेतु तत्पर रहते हैं. ये लोग अपने अल्पकालिक हितों के लालच में दूरगामी परिणामों की अनदेखी कर देते हैं. कहा जाता है कि “पहला रंग ही रंग है, दूजा रंग बदरंग!” अगर आप भगवां रंग के वस्त्र पर हरा रंग चढाने की कोशिश करेंगे तो वह न तो भगवां रहेगा और न ही हरा.
हमारे देश में अब तक हुए असंख्य धर्म परिवर्तनों से यह साफ़ हो गया है कि धर्म कोई वस्त्र नहीं हैं, जो जब जी चाहा बदल लें. ये तो एक आस्था का विषय है. जो व्यक्ति अपने धर्म में आस्था नहीं रखता, उसे दूसरों के धर्म में कैसे आस्था हो सकती है? राजस्थान में बरसों पहले कुछ हिन्दू लोग मुसलमां हो गए थे. आज वे सब अलग-थलग ही नज़र आते हैं क्योंकि वे अब न तो हिन्दू ही रहे और न ही मुसलमान. हिन्दू परिवार इनके साथ कोई वैवाहिक सम्बन्ध स्वीकार नहीं करते और न ही ये अपने बच्चों की शादियाँ मुसलामानों में कर पाते हैं. परिणामस्वरुप इन लोगों की एक अलग ही श्रेणी बन गई है जिन्हें कायमखानी मुसलमान कहा जाता है.
कुछ लोगों ने धर्म परिवर्तन इसलिए भी किया क्योंकि उनके धर्म में सामाजिक भेदभाव अधिक होता है. हिंदुओं में तथाकथित ऊँची व नीची जातियों में मतभेदों के कारण लोग ईसाई व मुसलमान बनने लगे. जो लोग ईसाई बने उन्हें ईसाइयों ने अपनी मुख्यधारा में शामिल नहीं किया. ये लोग स्वयं को उपेक्षित अनुभव करते रहे तथा जब दलित एवं पिछड़े हिंदुओं को आरक्षण दिया जाने लगा तो ये ‘परिवर्तित’ ईसाई और मुसलमान भी आरक्षण की माँग करने लगे. अब प्रश्न ये उठता है कि यदि ईसाइयों और मुसलामानों में ऊंच-नीच का भेद नहीं होता तो इन्हें आरक्षण क्यों दिया जाए? अगर कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन के बाद भी उपेक्षित है तो उसने अपना धर्म ही क्यों छोड़ा? उपर्युक्त बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव वस्तुतः लोभी प्रवृत्ति का प्राणी है. उसे जहां भी लाभ दिखाई देता है, वह वहाँ चला जाता है.

हमारे देश के राजनीतिज्ञ संसद में इस विषय पर चर्चा करते हुए नहीं थकते परन्तु समस्या के मूल में कोई झांकने को भी तैयार नहीं है. जिसे देखो वह वोटों की राजनीति करता हुआ दिखाई देता है. “कौन व्यक्ति किस धर्म को अपनाए” इसका निर्धारण हमारे राजनेता नहीं कर सकते. जिस देश में लोगों को भरपेट खाने को न मिलता हो, वहाँ अपने धर्म के प्रति कौन वफादार होगा? क्या धर्म व्यक्ति का पेट भर सकता है? एक भिखारी के लिए तो पेट भरना अधिक महत्वपूर्ण है न कि वह मंदिर या मस्जिद जहां से उसे कुछ खाने को मिल सकता है.   

‘अपराधमुक्त’ भारत की संकल्पना

देश में अपराध का हर रोज बढ़ता हुआ ग्राफ नई ऊंचाइयां छूने लगा है. दिल्ली में बलात्कार की एक और घटना ने साबित कर दिया है कि देश में महिलाएं अब भी सुरक्षित नहीं है. हर नई घटना के बाद मीडिया का बेसुरा प्रलाप, राजनीतिज्ञों द्वारा घटना की भर्त्सना, पुलिस द्वारा तेज़ी से जांच करने के आश्वासन और सरकार की नित्य होने वाली छीछालेदर देखकर सभी लोग परेशाँ हो रहे हैं. आखिर इस तरह की घटनाओं पर लगाम कैसे कसी जाए? अगर देखा जाए तो इन घटनाओं की पुनरावृत्ति के लिए हमारा समूचा तंत्र एवं समाज दोनों ही जिम्मेवार हैं. इसकी शुरुआत घर से ही हो जाती है. कोई भी व्यक्ति अपराधी क्यों बनता है? या तो उसके घर की पृष्ठ-भूमि अपराधिक होती है या फिर उसके परिवार में कोई न कोई व्यक्ति पहले से अपराधी होता है. प्रदूषित वातावरण में पलने वाले बच्चे घर की अपराधिक पृष्ठ-भूमि से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते. हमारे परिवार एवं समाज दोनों की यह जिम्मेवारी है कि अपराधों को संरक्षण देने की बजाय हम इन्हें उचित मंच तक ले जाएँ ताकि इन्हें जड़ से ही पनपने का अवसर न मिले.
      हमारे बच्चों को अच्छी शिक्षा एवं संस्कार अपने परिवार के बाद स्कूल से मिलते हैं. यदि स्कूलों में अध्यापक अपराधिक पृष्ठभूमि के होंगे तो आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि देश का क्या होगा? कुछ लोग स्कूलों में अध्यापक का पद प्राप्त करने के लिए फर्जी सर्टिफिकेट बनवाने से लेकर तरह-तरह की हेराफेरियाँ करते हैं. ये सब देश में फ़ैल रहे भ्रष्टाचार से ही होता है. अध्यापकों की चरित्र जांच या ‘वेरिफिकेशन’ अक्सर पुलिस द्वारा रिश्वत लेकर की जाती है. जब लोग रिश्वत देकर अपने काम करवाने लगेंगे तो गुणवत्ता से तो समझौता करना ही पडेगा. इसी तरह पुलिस में होने वाली भर्ती भी भ्रष्टाचार के आशीर्वाद से होती है. हमारे समाज की जड़ें खोखली करने में भ्रष्टाचार की भूमिका सर्वाधिक है. हैरानी की बात है कि जब ड्राईविंग लाइसेन्स बनवाना हो तो कुशल नेत्र दृष्टि के साथ-साथ मनुष्य का स्वस्थ होना भी जरूरी है. जब कोई व्यक्ति अपराधिक छवि का हो, तो उसे किसी भी हालत में  ड्राईविंग लाइसेन्स नहीं मिलना चाहिए क्योंकि वह इसका दुरुपयोग कर सकता है. परन्तु वास्तविकता एक दम अलग है. आजकल लोग रिश्वत देते हैं तथा ड्राईविंग लाइसेन्स अपने आप बन कर आपके घर चला आता है. जब अपराधों को रोकने के लिए बनी पुलिस ही सभी अपराधों को न्यौता देने लगे तो आप कहाँ जाएंगे?
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि हम आज़ाद तो हो गए किन्तु आजादी के इतने साल बाद भी हमारे देश में क़ानून का शासन नहीं है. लोग अपराध करके बे-खौफ घूमते रहते हैं. हम केवल सरकार को बुरा-भला कह कर अपना पल्ला झाड लेते हैं. परिणाम फिर वही.... जस का तस! हाल ही में घटी ‘रेप’ की घटना के अपराधी को पकड़ने से मालूम हुआ है कि उस व्यक्ति पर पहले से ही बलात्कार के आरोप में मुकद्दमा चल रहा है जिसमें वह अभी बरी नहीं हुआ था. यह उतना ही आश्चर्यजनक है कि इस प्रकार के अपराध करने वाला व्यक्ति ड्राईविंग लाइसेन्स कैसे बनवाने में सफल हो गया? एक कंपनी को ‘कैब-सर्विस’ के व्यवसाय में कोताही बरतने का दोष दिया जा सकता है परन्तु क्या यह हमारे तंत्र का दोष नहीं है कि अनधिकृत व्यक्ति इस देश में किस प्रकार कारें व टेक्सियाँ चला सकते हैं? कुछ लोगों का मानना है कि महिला ड्राइवरों को टैक्सी के ड्राईविंग लाइसेन्स दिए जाएँ तो अच्छा रहेगा. परन्तु इस बात की क्या गारंटी है कि टैक्सियों में सफर करने वाले पुरुष या महिलाएं कोई अपराध नहीं करेंगे?
हमें अपराध के मामलों को सख्ती से निपटने की आवश्यकता है. आजकल अपराधियों को या तो पकड़ा ही नहीं जाता, या पकड़ने में बहुत लंबा समय लगता है जिससे घटना के सभी साक्ष्य कमज़ोर पड़ जाते हैं. कई बार पुलिस घटना की एफ.आई.आर. दर्ज करने में आना-कानी करती है. हमारा क़ानून बहुत कमज़ोर है जो तरह-तरह की बैसाखियों के सहारे चलता है. ये बैसाखियाँ भ्रष्टाचार के रस से सराबोर हैं. कभी वकीलों की फीस, कभी राजनैतिक हस्तक्षेप, तो कभी गवाहों की बेरुखी अपराधियों को सजा दिलाने में संकोच करती है. न्याय मिलने में देरी होने के कारण लोगों का हमारी न्याय व्यवस्था से ही विश्वास उठ गया है.

आज हमें अपने भीतर झांकना होगा. हम सब मिलकर इस तरह के अपराधों को अवश्य ही रोक सकते हैं. अपराधी हमारे परिवार, समाज, शहर तथा राज्यों में ही छुपे हुए हैं. हमें इनकी पहचान करके क़ानून के हवाले करना होगा. क़ानून से कोई बचने न पाए, इस पर सारे समाज की नज़र होनी चाहिए. हमारा कर्तव्य है कि हम सभी अपराधियों के प्रति अतिसंवेदनशील बनें तथा इन्हें पकडवाने में अपना अधिकाधिक योगदान दें. ‘अपराधमुक्त’ भारत की संकल्पना शायद हम सबके सहयोग से ही सम्भव हो सकती है. 

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

एल.पी.जी.सब्सिडी पर रोक

आजकल सरकार अमीरों को मिलने वाली एल.पी.जी. सिलेंडर पर सब्सिडी रोकने पर विचार कर रही है. समझ नहीं आता कि इस तरह से सरकार कितने रुपयों में बचत कर लेगी? देश में अमीरों की संख्या कितनी है? अगर मुट्ठी-भर अमीरों ने साल भर में एक गैस सिलेंडर अतिरिक्त उपयोग कर भी लिया तो कौन-सा पहाड़ टूट जाएगा? जो अमीर व्यक्ति देश को लाखों रूपए कर के रूप में दे रहे हैं, उन्हें एल.पी.जी. की मामूली सब्सिडी अगर चली भी गई तो क्या हर्ज है? सरकार अपने संसाधनों की चोरी पर अंकुश क्यों नहीं लगाती?
जो अपना आयकर ईमानदारी से देता है उस पर सभी प्रतिबन्ध लागू हो सकते हैं. जो व्यक्ति कोई कर नहीं देते वे फर्जी ढंग से सभी प्रकार के फायदे सरकार से लेते रहते हैं. अगर देखा जाए तो हमारे जनप्रतिनिधि ही सर्वाधिक सिलेंडरों की खपत कर रहे हैं. क्या सरकार ने उन पर कोई अंकुश लगाने की बात सोची है? ये लोग बिजली और टेलीफोन का भी सबसे अधिक उपयोग करते हैं तथा अपने बिल भी समय पर नहीं चुकाते. सरकार इन लोगों पर तो कोई कार्यवाही नहीं करती!

इस तरह के नकारात्मक क़दमों से देश में भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा मिलता है. यदि किसी अधिक वेतन पाने वाले कर्मचारी से सरकार सब्सिडी हटाएगी तो वह एल.पी.जी. का कनेक्शन कम आय वाले परिवार के किसी और व्यक्ति के नाम से भी तो ले सकता है. अगर ऐसा हुआ तो फिर सरकार क्या कर लेगी? घरेलू एल.पी.जी. सिलेंडरों के व्यावसायिक उपयोग को तो वह रोक नहीं पाई अब इस तरह की कवायद करके भी क्या हासिल हो जाएगा? अगर सब्सिडी को नियंत्रित करना ही है तो घरेलू गैस के उपयोग को वाहनों में प्रतिबंधित करना चाहिए. 

स्कूलों में संस्कृत या जर्मन?

आजकल केन्द्रीय विद्यालयों में संस्कृत को तीसरी भाषा के रूप में पढाने पर एक नया विवाद छिड़ गया है. अभी कुछ समय पहले तक इसके स्थान पर जर्मन भाषा पढ़ाई जाती थी. यह अत्यंत आश्चर्यजनक बात है कि हमारे देश में इतनी अधिक संख्या में समृद्ध भाषाएँ होते हुए भी हम विदेशी भाषाओं के प्रति अपने मोह को दूर नहीं कर पा रहे हैं.
समूचे भारत में तीन भाषाएँ पढ़ने व सीखने का चलन पहले से ही है. इसके अनुसार स्कूली बच्चों को एक क्षेत्रीय भाषा के साथ अंग्रेजी तथा हिन्दी का ज्ञान दिया जाता है. एक अंग्रेजी अखबार में छपे सर्वेक्षण के अनुसार भारतीय बच्चे संस्कृत के स्थान पर विदेशी भाषा पढ़ने को ही अहमियत देते हैं. अखबार का कहना है कि ये बच्चों को एक अच्छे रोज़गार की ओर भी अग्रसर करता है. हम इसे विडम्बना ही कहेंगे कि हमारी सोच कितनी छोटी है? जर्मन या फ्रेंच भाषा सीख कर कितने लोग रोज़गार पा सकते हैं? मुश्किल से कुछ सौ या हज़ार व्यक्ति ही इन भाषाओं को सीख कर नौकरी पा सकते हैं. अगर देखा जाए तो हिन्दी सीखे हुए लाखों और करोड़ों लोगों को आज नौकरी के कहीं बेहतर अवसर मिल रहे हैं.
इन अंग्रेजियत तथा विदेशी भाषाओं के समर्थकों से कोई आज ये तो पूछे कि जर्मनी व फ्रांस के कितने लोग हिन्दी सीखना चाहते हैं? शायद कोई भी नहीं. कारण स्पष्ट है, इन्हें अपनी जबान से बढ़ कर कुछ भी अच्छा नहीं लगता. फ्रांस में तो आप अंग्रेजी में बात नहीं कर सकते. वहाँ सभी साइन-बोर्ड उनकी अपनी फ्रेंच भाषा में ही पढ़ने को मिलते हैं. हमारे देश के लोगों को अंग्रेज़ न जाने कौन सी घुट्टी पिला गए हैं, जो ये अब भी अंग्रेजी की भक्ति और महिमा-मंडन में लगे हुए हैं!
तीसरी भाषा संस्कृत ही सहीकम से कम आप अपने बच्चों को भारतीय भाषा ही तो सिखा रहे हैं! इसमें बुरा क्या है? फ्रेंच या जर्मन सिखाने से तो अच्छा है आप अपने ही देश की किसी भाषा को तीसरी भाषा का स्थान दें! क्या हमारे देश में भाषाओं की कमी है? विदेशी भाषा तो आप स्नातक अथवा स्नातकोत्तर करने के बाद भी सीख सकते हैं. हम विदेशी भाषा सीखने पर प्रतिबन्ध लगाने की बात नहीं कर रहे हैं. मेरे विचार में स्वदेश रहते हुए किसी विदेशी भाषा को तीसरी भाषा का सम्मान देना निंदनीय है.

कोई भी व्यक्ति अगर चाहे तो संस्कृत भाषा में अपना केरियर बना सकता है. आजकल देश में संस्कृत पढाने वाले अध्यापकों की काफी माँग है. हमारे प्राचीन धर्म-ग्रन्थ संस्कृत में हैं, जिनकी टीका करके लोग आज अपना नाम कमा रहे हैं. जर्मनी में तो वेदों के संस्कृत ज्ञान पर लगातार अनुसंधान होता रहा है. प्राचीन आयुर्वेद के हज़ारों नुस्खे संस्कृत में लिखे हैं, जिन्हें कोई भी व्यक्ति संस्कृत ज्ञान के बिना नहीं समझ सकता. आधुनिक भाषाओं का अपना महत्व है, परन्तु संस्कृत जैसी प्राचीन एवं समृद्ध भाषा को कमतर बता कर नहीं आंका जा सकता. हरियाणा के सभी स्कूलों में यह भाषा नियमित रूप से पढ़ाई जा रही है. विश्वविद्यालयों में संस्कृत का अलग विभाग होता है. विदेशों के विश्वविद्यालयों में तो संस्कृत की एक अलग से पीठ भी स्थापित की गई है.