हमारा शहर तभी
अच्छा लगेगा जब इस शहर के निवासी इसे मन से प्रेम करते हों. यह स्वाभाविक ही है कि
जिसे हम प्रेम करते हैं वह गंदा कैसे हो सकता है? किसी भी शहर के सार्वजनिक
स्थानों को देख कर वहां रहने वाले लोगों के स्वभाव का अनुमान लगाया जा सकता है.
सार्वजनिक स्थानों के अंतर्गत वहां की सड़कें, चौंक-चौराहे, गलियाँ, बारात-घर,
धर्मशालाएं, स्कूल तथा कालिज आदि आते हैं. यदि शहर का प्रवेश द्वार ही तंग
होगा तो बाहर से आने वाले लोगों को और भी अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता
है. द्वार पर रुकावट अथवा गंदगी होने से बाहरी लोगों का शहर के प्रति मोह भंग हो
सकता है. अतः शहर के सभी प्रवेश मार्ग साफ़-सुथरे एवं खुले होने चाहिएं ताकि लोगों
को पहली नज़र में ही शहर से प्यार हो जाए. शहर की गलियाँ साफ़-सुथरी रहनी आवश्यक
हैं. कई स्थानों पर लोग अपने घर की गंदगी बाहर डाल देते हैं जो उचित नहीं है. केवल
अपना घर और दुकान साफ़ रखने की मनोवृत्ति के कारण हम अपनी सड़कों और गलियों के
स्वरुप को बिगाड़ते जा रहे हैं. जाहिर है मैं अपने शहर के सभी सार्वजनिक स्थलों को
खुला, हवादार तथा साफ़-सुथरा देखना चाहूंगा क्योंकि हमारे नागरिक इन्हीं स्थानों का
सर्वाधिक उपयोग करते हैं. जिस स्थान पर लोग अधिक समय तक रहते हों वहां गंदगी फैलने
की संभावना भी अधिक होती है. अतः इन सब स्थानों पर हर रोज़ कम से कम दो बार झाडू
लगनी चाहिए ताकि कूड़ा-करकट दिखाई ही न दे. इसके अतिरिक्त सभी मुख्य स्थानों पर
कूड़ेदान रखवा देने चाहिएं ताकि लोग इन्हीं में कूड़ा डालें. मनुष्य की सहज
मनोवृत्ति है कि किसी स्थान पर गंदगी देखते ही वह वहां गंदगी फैलाने को प्रेरित हो
जाता है. जहां पहले से कूड़ा-कचरा पड़ा हो वहां अन्य लोग भी कूड़ा डालने लगते हैं जो
सही नहीं है. ऐसे स्थानों को चिन्हित करके वहां कैमरे लगाए जाने चाहिएं ताकि
सार्वजनिक चेतावनी द्वारा ऐसे लोगों को न केवल जुर्माना लगा कर बल्कि सामाजिक
चेतना जागृत करके सही पटड़ी पर लाया जा सके. कुछ लोग इन स्थानों के आस-पास कूड़ा
एकत्र करके आग लगा देते हैं जिससे न केवल प्रदूषण होता है बल्कि जले हुए अवशेषों
की गंदगी भी चारों और फैलती है. धूम्रपान करने वाले लोग बीड़ी-सिगरेट एक दम से तो
छोड़ नहीं सकते किन्तु उनके लिए एक अलग स्थान की व्यवस्था अवश्य ही की जानी चाहिए
ताकि ये लोग सार्वजनिक स्थानों पर धुंआ प्रदूषण न कर सकें. कुछ लोग इन स्थानों पर
खड़े-खड़े या चलते हुए चिप्स, टॉफ़ी, चोकलेट, आइसक्रीम अथवा कोल्ड ड्रिंक्स लेने के
शौक़ीन हैं, उन्हें सभी पैकिंग रैप्पर इकट्ठे करके कूड़े-दान में ही डालने चाहिएं.
यहाँ-वहां गंदगी फैलाने वालों को पहले सावधान करने चाहिए तथा न मानने पर जुर्माने
का प्रावधान होना चाहिए. अनुशासन के बिना मनुष्य का जीवन पशु के समान होता है.
गंदगी फ़ैलाने एवं इसमें रहने की मनोवृत्ति पशुओं में होती है. मानव जीवन गंदगी में
पनपने के लिए नहीं है. जो लोग सार्वजनिक स्थानों पर मिलते हैं, वे एक दूसरे से मिल
कर खुश होते हैं तथा सामाजिक सौहार्द्र बढ़ता है. यदि ऐसे स्थानों पर गंदगी होगी तो
कोई वहां एक पल भी नहीं ठहर पाएगा. सामाजिक मेल-जोल भी साफ़-सफाई पर ही अधिक निर्भर
करता है. लोग पार्कों एवं उद्यानों में भी इसी लिए जाते हैं कि वहां उन्हें ठंडी व
ताज़ी हवा मिल सके. शहर की भीड़-भाड़ वाली संकरी गलियों से हर कोई ऊब जाता है.
सार्वजनिक स्थान हम सबके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि यहाँ हमें अन्य
लोगों के साथ मिलने, बैठने और खुशियाँ बांटने का अवसर मिलता है. ये स्थान सर्वजन
हिताय और सर्वजन सुखाय की तर्ज़ पर बनाए जाते हैं ताकि किसी भी व्यक्ति को कोई
असुविधा न हो. अक्सर देखा जाता है कि हमार बाजारों में दूर दूर तक जन-सुविधा हेतु
टॉयलेट या शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं होती. ऐसे में लोग बीच सड़क पर या खुली
नालियों में ही अपने बच्चों को शौच करवा देते हैं. यह हमारी नगर-पालिका का कर्तव्य
है कि वह सभी प्रमुख स्थानों पर जन-सुविधाओं पर समुचित ध्यान दे. शहर भर में
साफ़-सफाई एक या दो लोगों का काम नहीं अपितु इसमें जन-जन की भागीदारी सुनिश्चित
करनी होगी. अधिकतर लोग अज्ञानतावश ही गंदगी फैलाते रहते हैं. इन्हें जीवन भर किसी
ने बताया ही नहीं होता कि सफाई इनके जीवन हेतु कितनी महत्त्वपूर्ण है? हमारे देश
में फैलने वाले अधिकतर रोग केवल गंदगी से होते हैं और ये गंदगी सार्वजानिक स्थानों
पर ही अधिक होती है. हमें सफाई का सन्देश अपने बच्चों से ही आरम्भ करना होगा. जब
तक हम अपने बच्चों को सफाई के महत्त्व के बारे में नहीं बताएंगे, वे आजीवन गंदगी
फैलाते रहेंगे. अतः हमें अपने सभी स्कूलों में बच्चों को साफ़-सुथरे रहने के ढंग
सिखाने चाहिएं. बच्चों में बड़ों की तरह कोई अहम् भावना नहीं होती जिससे ये हमारे
माहौल को अधिक तेज़ी से समझ सकते हैं. इन्हें बचपन में ही सिखाना चाहिए कि यहाँ-वहा
थूकने की मनोवृत्ति कितनी बुरी है? परन्तु जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो इन्हें आप
थूकने या गंदगी फ़ैलाने से रोक नहीं पाएंगे. साफ़-सफाई हमारी आदतों में होनी चाहिए.
जिन लोगों को जीवन भर गंदगी में रहने की आदत हो जाए उनका सुधारना बहुत कठिन होता
है. यदि हमने भविष्य में अपने सार्वजनिक स्थलों को साफ़-सुथरा रखना है तो अपनी आने
वाली पीढ़ी को इस दिशा में सचेत करना होगा. आजकल आवारा पशु एवं कुत्तों के कारण भी
सार्वजनिक स्थलों पर भीड़ एवं गंदगी बढ़ती जा रही है. सभी पशुओं को समीप की गौ-शाला
में भेजा जा सकता है ताकि लोग साफ़-सुथरे स्थानों पर आसानी से रह सकें. यदि देखा
जाए तो गंदगी फैलने का सबसे बड़ा कारण मनुष्य स्वयं ही है. वह अपने स्वार्थ के लिए
तरह तरह के प्रपंच करता रहता है जिससे न केवल वातावरण दूषित होता है बल्कि अन्य
लोगों में असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है. लोग तथाकथित पुण्य कमाने की होड़ में
आवारा कुत्तों को न केवल खिलाते-पिलाते हैं अपितु सार्वजानिक स्थलों पर विचरण करने
हेतु भी प्रेरित करते हैं. इस प्रकार इन कुत्तों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है जो
एक खतरनाक संकेत है. हमारे सार्वजनिक स्थान कुत्ते पालने के स्थान नहीं हैं. यदि
किसी को इन कुत्तों से इतना ही लगाव है तो इन्हें अपने घर ले जा कर पालना चाहिए, न
कि सार्वजनिक स्थान पर! अंत में सर्वाधिक जिम्मेवारी हमारी न्यायपालिका की बनती है
जो देश के कानून के मुताबिक़ लोगों को सफाई के रास्ते पर चलने में अपना योगदान दे
सके.
रौशन है मेरी दुनिया तेरी शाने- रहमत से, बिन माँगे दिया तूने नहीं शिकवा है किस्मत से
गुरुवार, 11 अगस्त 2016
मंगलवार, 26 जनवरी 2016
भारत में दलित राजनीति-2
पिछली कड़ी में मैंने भारत में तथाकथित ‘दलित’ श्रेणी के
प्रादुर्भाव का उल्लेख किया था. क्या तथाकथित दलित लोग वास्तव में शोषित हैं?
हालांकि भारतीय संविधान सभी नागरिकों को बराबरी के अधिकार देता है फिर भी कुछ
जातियों एवं सम्प्रदायों के व्यक्तियों को सरकार द्वारा विशेषाधिकार दिए गए हैं.
ये विशेषाधिकार देश की आजादी के बाद कुछ ही वर्षों तक जारी रखने की व्यवस्था थी परन्तु
हमारे नेताओं की राजनैतिक पैंतरेबाजी के चलते ये अब भी जारी हैं. वर्तमान
परिस्थितियों में ऐसा प्रतीत होता है कि देश का तथाकथित दलित एवं शोषित समाज कभी
आगे बढ़ना ही नहीं चाहता. उसे तो केवल संविधान द्वारा दी गई विशेष सुविधाओं से ही
सरोकार है. यदि आप किसी व्यक्ति को लाठी के सहारे ही चलाते रहेंगे तो वह कभी भी
अपने पाँव पर खड़ा नहीं हो सकता!
देश में सरकारी नौकरियों के लिए जहां सामान्य श्रेणी के
नवयुवकों को गला-काट स्पर्द्धा से जूझना पड़ रहा है वहाँ तथाकथित दलित एवं पिछड़े
कहीं कम योग्यता से ही अच्छी नौकरी पाने में कामयाब हो जाते हैं. ऎसी व्यवस्था के
कारण जहां कम योग्यता वाले अभ्यर्थी सरकारी कार्यालयों में नियुक्ति पा रहे हैं
वहीं अत्यधिक शिक्षा प्राप्त लोग नौकरी के लिए दर-दर की ख़ाक छान रहे हैं. परिणामस्वरूप
हमारे समाज की विभिन्न जातियों में नफरत और गुस्से का माहौल पनपने लगा है. आज तक
चयनकर्ता अभ्यर्थियों की शक्ल देख कर ही अंक दिया करते थे ताकि सरकारी पदों पर
अपने मन पसंद लोगों की भर्ती की जा सके. हालाँकि प्रधानमंत्री महोदय ने बहुत-सी
नौकरियों के लिए साक्षात्कार की अनिवार्यता को दरकिनार कर दिया है फिर भी इस दिशा
में बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है. साक्षात्कार में किसी छात्र की जाति या
धर्म का अनुमान लगाने या पक्षपात करने की संभावना रहती है जो अब समाप्त हो गई है. इसके
लिए हमारी वर्तमान सरकार अवश्य ही बधाई की पात्र है.
हमें अब ऎसी प्रशासनिक व्यवस्था पर विचार करने की आवश्यकता
है जिससे सामाजिक भेदभाव पूरी तरह समाप्त हो सके. इसके लिए तथाकथित दलितों एवं
पिछडों को सरकारी नौकरियों की भिक्षा नहीं अपितु शैक्षिक योग्यता में उच्चतर स्थान
प्राप्त करने की आवश्यकता है जो स्कूलों में बेहतर पढ़ाई, पढ़ने के उपयुक्त अवसरों
और अच्छे स्कूलों में दाखिले द्वारा ही सम्भव हो सकता है. अयोग्य छात्रों को सरकारी
नौकरियों में ऊंचे पद देने से तथाकथित अगड़ों एवं पिछडों में सामाजिक विद्वेष ही
बढ़ता है. यह तो अब उन तथाकथित ‘दलितों’ को ही तय करना है कि वे ‘दलित’ कहलवा कर
आरक्षण चाहते हैं या स्वयं को अपनी योग्यता के बल पर ऊंचा उठा कर तथाकथित ‘सवर्णों’
के साथ चलना चाहते हैं. कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है. आप आरक्षण छोड़ते हैं
तो आपको अपनी योग्यतानुसार सम्मान मिलता है. अगर स्वयं को दलित अथवा पिछड़ा बता कर
ही कुछ पाना चाहो तो आप अपनी ही नज़रों में ‘बौने’ बने रहते हैं.
कहते हैं कि हर जाति का व्यक्ति साधु हो सकता है परन्तु
साधु लोग कभी आपस में यह प्रश्न नहीं करते कि वह किस जाति से आया है? साधुओं की
पांत में सभी बराबर हैं. इसी प्रकार भारत माँ की हर संतान बराबर है. इन्हें दलित
या पिछड़ा बताना माँ का भी अपमान है. यदि आप भी आत्म-सम्मान से जीना चाहते हैं तो
सब कुछ अपनी योग्यता से हासिल करिए और सर्वोच्च सम्मान पाइए! भिक्षा में लिया गया
सम्मान या आरक्षण द्वारा पाया गया लाभ आपको सरकारी स्थान तो दिलवा सकता है किन्तु
यथोचित सामाजिक सम्मान नहीं. आजकल जाति-पाति में किसी का कोई विश्वास नहीं है. हम
भी जाति-पाति में विश्वास नहीं करते. जब कोई व्यक्ति स्वयं को दलित बताता है तो
हमें बहुत बुरा लगता है क्योंकि ईश्वर ने सभी को एक समान बनाया है. अगर हम सब
बराबर हैं तो स्वयं को ‘दलित’ बताने वाले लोग एक तरह से ईश्वर की रचना का ही अपमान
कर रहे होते हैं. क्या आप ईश्वर का अपमान करना चाहेंगे?
आजकल हैदराबाद विश्वविद्यालय में चल रहे धरना-प्रदर्शन में कुछ
छात्रों ने अपने शिक्षकों पर यह आरोप लगाया है कि वे दलित एवं पिछड़े छात्रों के
साथ भेदभाव करते हैं. यदि यह बात सत्य है तो इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए. क्या
इन आरोपी शिक्षकों की भर्ती में सभी नियमों की अनुपालना हुई थी? सम्भव है ये लोग
भी येन-केन-प्रकारेण शिक्षकों के पद पर पहुंचे हों और अब अपनी मनमानी पर उतर आए
हों. जो व्यक्ति शिक्षा जैसे ‘पुनीत’ विभाग में नियुक्ति पाने के लिए जुगाड़ लगा
सकता है, वह शिक्षण जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए कैसे उपयुक्त हो सकता है?
आजकल कई मामलों में शिक्षकों की शिक्षण गुणवत्ता में कमी पाई गई है. जब शिक्षकों
को ही पर्याप्त ज्ञान नहीं होगा तो वे अपने विद्यार्थियों को क्या सिखाएंगे? यदि
छात्र जान-बूझ कर अपने शिक्षकों को कलंकित कर रहे हैं, तो यह और भी गंभीर मामला
है. विश्वविद्यालयों में राजनैतिक स्वार्थों के कारण कुछ भी सम्भव हो सकता है. अतः
इस प्रकार की सभी घृणित गतिविधियों पर लगाम लाने की आवश्यकता है. जहां तक हमें
स्मरण है, हमारे शिक्षक सभी छात्रों को बराबरी की नज़र से देखते थे और अपना अध्यापन
कार्य करने में किसी से कम न थे. सरकार की आरक्षण नीति के कारण आजकल कुछ ऐसे
अध्यापक भी नियुक्ति प्राप्त कर रहे हैं जिन्हें विद्यार्थियों को शिक्षित करने
हेतु आवश्यक योग्यता अथवा अनुभव न के बराबर है. हाल ही में कुछ राज्यों के उच्च-न्यायालयों
द्वारा उपयुक्त योग्यता के अभाव में बहुत-सी नियुक्तियां रद्द करने की खबर भी सामने
आई थी. आजकल सामान्य श्रेणी के विद्यार्थी अत्यंत विकट परिस्थितियों का सामना कर
रहे हैं. एक तरफ उन्हें आर्थिक अभावों के बा-वजूद स्कूलों में मोटी फीस देनी पड़ती
है तो दूसरी ओर शिक्षा समाप्ति पर आरक्षण व्यवस्था के चलते नौकरी हेतु हर बार
असफलता का मुंह देखना पड़ता है.
प्रस्तुत लेख में दलितों एवं तथाकथित पिछड़े छात्रों का
विरोध करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता! सरकार को चाहिए कि वह भारत के सभी
नागरिकों हेतु शिक्षा के उपयुक्त अवसर सृजित करे. यदि किसी छात्र को शिक्षा में
कोई कठिनाई हो तो उसके लिए विशेष कोचिंग कक्षाओं की व्यवस्था करवाए. लेकिन जब
सरकारी पदों की नियुक्ति का समय आए तो शैक्षिक गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं होना
चाहिए. सभी जातियों एवं धर्मों के लोगों को स्वस्थ स्पर्द्धा का सामना करते हुए ही
अपनी योग्यतानुसार नौकरी मिलनी चाहिए. यह शैक्षिक गुणवत्ता के साथ किया गया समझौता
ही है जो हमारे स्कूलों में शिक्षण गुणवत्ता में आई गिरावट के लिए जिम्मेवार है.
क्या आप प्रथम श्रेणी में पास हुए स्नातकों को छोड़ कर तृतीय श्रेणी के लोगों को
केवल इसलिए शिक्षक लगा सकते हैं क्योंकि वे तथाकथित दलित या पिछड़े वर्ग से हैं?
ऐसा कदाचित नहीं होना चाहिए, क्योंकि अयोग्य शिक्षक भविष्य में अयोग्य छात्रों को
ही आगे बढ़ाएंगे. ऐसे में देश का भविष्य क्या होगा, आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं!
क्या तथाकथित दलितों और पिछड़े वर्ग के लोगों को सामाजिक
असमानता का सामना करना पड़ता है? यह सत्य नहीं है. कुछ विश्वविद्यालयों के छात्रों
ने यह भी आरोप लगाया था कि दलित एवं पिछड़े वर्ग के छात्रों को जान-बूझ कर परीक्षा
में फेल कर दिया जाता है ताकि वे आगे न बढ़ सकें. यह सर्वथा निंदनीय है. जो अध्यापक
ऐसा करते हैं उन्हें इस अक्षम्य अपराध के लिए कड़े से कड़ा दंड दिया जाना चाहिए. परन्तु इस समस्या का समाधान भी कोई इतना कठिन
कार्य नहीं है. अगर सरकार चाहे तो मान्य विश्वविद्यालयों में परीक्षा-पत्रों की
जांच का काम अन्य विश्वविद्यालयों के अध्यापकों से करवा सकती है ताकि किसी
हेरा-फेरी या भेदभाव की कोई गुंजाइश ही न रहे. यू.जी.सी. विश्वविद्यालयों में इस
प्रकार की कोई शिकायत नहीं मिलती जहां हज़ारों की संख्या में छात्र परीक्षा देते
हैं तथा उनकी पहचान का किसी को भी पता ही नहीं चलता. वैसे यह भी सत्य है कि आजकल
देश के मान्य-विश्वविद्यालयों में शिक्षा का स्तर तीव्रता से गिर रहा है. ऐसे
स्थानों पर शिक्षा की गुणवत्ता में तुरन्त सुधार लाए जाने की आवश्यकता है.
निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि सामाजिक समरसता बढ़ाने के
लिए समाज के विभिन्न वर्गों को साथ-साथ चलने की आवश्यकता है. किसी को ऊंचा या नीचा
करने से समस्या का समाधान सम्भव नहीं हो सकता. यदि आरक्षण करना है तो शिक्षा का
आरक्षण करें, ताकि सभी लोगों को शिक्षा के उपयुक्त अवसर प्राप्त हों. क्या आप किसी
ऐसे व्यक्ति को फ़ौज में भर्ती कर देंगे जिसे लड़ना नहीं आता किन्तु वह दलित या
पिछड़े वर्ग से है? क्या पिछड़े वर्ग का कोई ऐसा व्यक्ति जज बनाया जा सकता है जिसे
क़ानून की शिक्षा में सबसे कम अंक मिले हैं? क्या आप सरकारी बस चलाने हेतु किसी
पिछड़े को नियुक्ति देते समय उसकी शैक्षिक योग्यता व ड्राइविंग लाइसेंस की जांच
नहीं करेंगे? क्या आप मेडिकल शिक्षा में न्यूनतम अंक पाने वाले को तथाकथित दलित
समुदाय होने के कारण डाक्टर के पद पर नियुक्ति दे देंगे? अगर आप ऐसा करना उचित
समझते हैं तो फिर देश में एक पिछड़े वर्ग की बटालियन या एक तथाकथित ‘दलित’ बटालियन
क्यों नहीं है? देश में दलितों व पिछडों के अस्पताल क्यों नहीं हैं? क्या आप चाहते
हैं कि तथाकथित दलितों एवं पिछडों की अलग अदालतें बनें? जाहिर है कि हमारे देश में
कोई दलित अथवा पिछड़ा है ही नहीं. हमें सबका साथ और सबका विकास चाहिए जो समाज में
भेदभाव के चलते नहीं हो सकता. आइए, इस समस्या पर एक सार्थक दृष्टिकोण से विचार
करें और आरक्षण रूपी भेदभाव-पूर्ण व्यवस्था को समाप्त करने के लिए अपने कदम आगे
बढ़ाएं. यह हमारे देश के व्यापक हित में ही है.
भारत में दलित राजनीति-1
हिंदी भाषा में दलित शब्द का अर्थ ‘शोषित’ बन गया है जो
अंग्रेजी के ‘ओप्रेस्ड’ के समतुल्य मानते हुए “oppressed by a sense of failure” द्वारा परिभाषित भी किया गया है. शब्दकोश डॉट कॉम नामक
पोर्टल पर इसकी व्याख्या “burdened psychologically
or mentally” द्वारा भी की गई है. अर्थात
दलित एक ऐसा व्यक्ति है जो मानसिक रूप से दबा हुआ है अथवा जिसे स्वयं के असफल होने
का एहसास है. उपर्युक्त शब्दावली से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि कोई भी व्यक्ति
अपने जन्म के समय दलित नहीं होता क्योंकि उस समय उसकी मानसिक संवेदनाएं इतनी
विकसित नहीं होती जो उसे अपने ‘दलित’ होने का एहसास करवा सकें. अब यह शोध का विषय
है कि कोई व्यक्ति ‘दलित’ कैसे बनता है? जब मैं अपनी प्राथमिक पाठशाला में पढता था
तो मुझे और मेरे सहपाठियों को यह बिल्कुल भी नहीं मालूम था कि हमारी जाति क्या है.
हम सब साथ-साथ पढते और खेलते थे. जब उच्च-विद्यालय में
पहुंचे तो मालूम हुआ कि कुछ विद्यार्थियों की फीस माफ़ है तथा कुछ ऐसे भी हैं
जिन्हें फीस माफी के साथ छात्रवृत्ति की सुविधा प्राप्त हो सकती है. ऐसे सभी
छात्रों ने इन सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए अपने आवश्यक घोषणा पत्र एवं जाति
प्रमाण-पत्र विद्यालय में जमा करवाए थे. इन्हीं प्रमाण-पत्रों के आधार पर इन्हें
वे सब सुविधाएं मिली थी जिनसे सामान्य श्रेणी के सभी छात्र वंचित रहे थे. हमारे
बाल-सुलभ मन में फिर भी अपने साथियों की जाति जानने की कोई इच्छा नहीं होती थी. हम
सब अपने सहपाठियों के साथ उसी तरह मिल-जुल कर खेलते थे जैसे अपने भाइयों के साथ.
कालेज तक पहुंचते-पहुँचते अनुसूचित जाति के छात्रों को और भी अधिक सुविधाएं मिलने
लगी थी जिससे कई बार हम जैसे छात्रों को ईर्ष्या का भाव भी होने लगता था. यह जरूरी
नहीं था कि इन छात्रों को यह वित्तीय लाभ उनकी खराब आर्थिक दशा के कारण मिलता हो.
कुछ ऐसे छात्र भी थे जो आर्थिक रूप से संपन्न परन्तु अनुसूचित जाति के होने के
कारण सभी लाभ ले रहे थे.
मुझे अच्छी तरह से याद है कि हम जिस कक्षा में बैठते थे,
उसी कक्षा में ही अनुसूचित जाति के छात्र भी होते थे. हमें उनके साथ बैठने में कोई
परहेज़ नहीं था. हमारा शिक्षक भी सभी को समान रूप से पढाता था. स्नातक परीक्षा
उत्तीर्ण करने के बाद हमें स्नातकोत्तर कक्षाओं में दाखिले के लिए भी संघर्ष करना
पड़ा जबकि हमारे साथ पढ़ने वाले अनुसूचित जातियों के छात्र आसानी से ही आगे दाखिला
पाने में सफल हो गए थे. इनके लिए सभी स्थानों पर आरक्षण सुविधा उपलब्ध करवाई गई
थी.
पढ़ाई के कारण छात्रों का तनाव-ग्रस्त होना कोई नई बात नहीं
है. हम भी परीक्षा के दिनों में पर्याप्त नींद न आने से अक्सर परेशाँ रहते आए हैं.
विशेष तौर पर जो छात्र पढ़ाई के साथ छात्र-संघ की गति-विधियों में भाग लेते हैं
उन्हें अत्यधिक तनाव का सामना करना पड़ता है. अतः विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत
शोधार्थियों को यथासम्भव ऎसी राजनैतिक गतिविधियों से दूर रहना चाहिए ताकि वे अपनी
पढ़ाई के लिए अधिक समय निकाल सकें. अक्सर देखा गया है कि विभिन्न राजनैतिक दल से
मान्यता प्राप्त करके छात्र परस्पर विरोधी गतिविधियों में भाग लेने लगते हैं तथा
अपने उद्देश्य से भटक जाते हैं. सरकार के बदलने पर सबसे अधिक नुक्सान उस राजनैतिक
छात्र संघ के सदस्यों को होता है जो सत्ता से बाहर हो. विश्वविद्यालयों में
राजनैतिक हस्तक्षेप पर तुरन्त रोक लगनी चाहिए ताकि छात्रों के हितों की रक्षा की
जा सके. छात्रों को होने वाला मानसिक तनाव जाति-पाति में विश्वास नहीं करता और यह
सभी प्रकार के भेदभावों से परे है परन्तु न्यूज़ मीडिया के प्रतिनिधि अक्सर ऎसी खबर
की फिराक में रहते हैं जहां यह तनाव किसी दलित अथवा पिछड़े समुदाय के छात्र को हुआ
हो.
यदि कोई ऐसा छात्र तनावग्रस्त हो कर आत्महत्या कर ले तो
मीडिया को टी.वी. पर अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के शानदार अवसर मिलते हैं. यह
दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारा मीडिया एवं राजनैतिक दल किसी छात्र की मृत्यु पर
संवेदना व्यक्त करने के स्थान पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने में अधिक रूचि लेते
हैं. हमें अपने छात्रों को हर हाल में शैक्षिक तनाव से बचा कर उनके उज्जवल भविष्य
हेतु प्रयास करने चाहिएं.
अभी हाल ही में हैदराबाद के एक छात्र द्वारा आत्महत्या करने
पर राजनीति का बाज़ार गर्म हो रहा है. यदि वर्तमान प्रकरण में जान देने वाला
विद्यार्थी सामान्य जाति का होता तो शायद कोई हैदराबाद तक जाने की जहमत ही न उठता
किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में दिल्ली के मुख्यमंत्री भी अपने समस्त
उत्तरदायित्वों को त्याग कर आग में घी डालने हेतु हैदराबाद पहुँच गए. यह अलग बात
है कि दिल्ली में कुछ लोग अत्यधिक सर्दी के कारण अपने प्राण गंवा रहे हैं परन्तु
मुख्यमंत्री महोदय को इसकी कोई फ़िक्र ही नहीं है.
कमोबेश सभी राजनैतिक दल अपने वोट बैंक में इजाफा करने के
लिए इस प्रकार की ओछी हरकतों से बाज़ नहीं आते. क्या देश में कोई न्याय प्रणाली
नहीं है? आखिर क़ानून एवं व्यवस्था बनाने वाले लोग भी तो अपना काम करते ही होंगे न!
ऐसे में हर नेता किसी न किसी परिणाम तक पहुँच कर अपनी ऊटपटांग राय आगे बढ़ा रहा है!
ऐसा लगता है कि सारे देश की केवल एक ही प्राथमिकता है कि किसी तरह उस छात्र की
दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु से कुछ चुनावी लाभ उठाया जाए. पहले ये लोग धरने-प्रदर्शन
करते हैं तथा बाद में हालात बेकाबू होने पर भाग जाते हैं. अन्तोत्गत्वा विश्वविद्यालय
के छात्रों को ही इस सबकी कीमत चुकानी पड़ती है. अब तो यही इच्छा है कि ईश्वर सभी
पक्षों को सद्बुद्धि प्रदान करे तथा पीड़ित पक्ष को देश के क़ानून के मुताबिक़ न्याय
मिले, बस....यही उम्मीद की जा सकती है. आजादी से पूर्व अंग्रेजों ने हमारे समाज
में फूट डाली और सौ बरस तक शासन किया. अब हमारे नेता समाज को अगड़े, पिछड़े और दलित
समुदायों में बाँट कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. अब तक तो शायद आपको मालूम हो ही
गया होगा कि हमारे समाज में ‘दलित’ नाम के शब्द का आविष्कार किसने और क्यों किया! क्रमशः
शुक्रवार, 15 जनवरी 2016
धार्मिक सहिष्णुता के दोहरे मापदंड
भारत एक विभिन्न धर्मों का देश है जहां सभी धर्मों के लोग
मिल-जुल कर ऐसे रह रहे हैं जैसे किसी गुलदस्ते में रंग-बिरंगे खुशबू और बिना खुशबू
वाले फूल एक साथ दिखाई देते हैं किन्तु एक दूसरे पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं करते.
हालांकि धर्म आस्था से जुड़ा हुआ ऐसा मामला है जहां कोई तर्क-वितर्क काम नहीं आते
फिर भी कई बार ऎसी परिस्थितियाँ बनी हैं जब धार्मिक असहिष्णुता पर सवाल उठाने की
नौबत आई है. अभी हाल ही में हिन्दू महासभा के एक नेता को मुस्लिम धर्म के विषय में
आपत्तिजनक टिप्पणी करने पर गिरफ्तार कर लिया गया था. वह आजकल जेल में है तथा उसके शीघ्र
छूटने की संभावना भी कम ही दिखाई देती है.
अभी लोग इस घटना को भूले ही नहीं थे कि टी.वी. पर कोमेडी
करने वाले एक व्यक्ति ने हरियाणा के डेरा धर्मावलम्बियों के गुरु का अशोभनीय मजाक
उड़ा दिया जिसे डेरा-प्रेमियों ने अत्यंत गंभीरता से लिया और कोमेडियन को गिरफ्तार
कर कानूनी कार्यवाही की माँग कर डाली. इस व्यक्ति को आनन-फानन में गिरफ्तार भी कर
लिया गया किन्तु कुछ लोगों के दबाव में छोड़ने की नौबत भी आ गई. ज्ञातव्य है कि
डेरा प्रमुख ने घटनाक्रम जानने के बाद इस कोमेडियन को तो माफ़ कर दिया किन्तु
मुस्लिम धर्म पर टिप्पणी करने वाले व्यक्ति के लिए फांसी की माँग की जा रही है.
सबसे बड़ा प्रश्न देश में असहिष्णुता को लेकर भी है. जब एम. एफ.
हुसैन ने हिंदू देवी-देवताओं की नग्न तस्वीरें बना कर सबको चौंकाया था तो हिंदुओं
ने काफी हद तक अपनी परम्परागत सहिष्णुता का परिचय दिया था. वर्तमान परिस्थितियों
में भी कुछ वैसा ही देखने को मिल रहा है परन्तु लोगों को देश के क़ानून पर जैसे कोई
भरोसा ही नहीं रहा है. ये लोग अपनी मर्जी से किसी को मुजरिम करार देते हुए फांसी
पर लटका देना चाहते हैं. हमने पिछले दिनों और भी कई ऐसे घटनाक्रम देखे हैं जब कुछ
मुस्लिम नेताओं ने हिन्दू देवीदेवताओं पर अशोभनीय टिप्पणियाँ की थी परन्तु हिंदुओं
ने अपनी पारंपरिक सहिष्णुता दिखाते हुए मामले को तूल देना उचित नहीं समझा तथा सब
कुछ क़ानून पर छोड़ दिया गया.
अब सवाल ये नहीं है कि अगर कोई कोमेडीयन है तो उसे किसी की
भी खिल्ली उड़ाने का अधिकार मिल सकता है परन्तु नेता है तो उसे बख्शा ही न जाए! क्या
नेता किसी कलाकार से कम है? आखिर वह भी तो जनता पर अपना विशेष प्रभाव दिखाकर ही
वोटें हासिल करता है न! जो व्यक्ति इतना बड़ा कलाकार हो, उसे कोमेडीयन से कमतर
क्यों समझा जाए? हमारे ख्याल में तो सभी मामले एक जैसे दिखाई देते हैं. दूसरों के
धार्मिक मामले में नाहक हस्तक्षेप करने वाला हर एक व्यक्ति अपराधी की श्रेणी में
आता है चाहे वह कलाकार है या नहीं.
जब देश में ‘जुवेनाइल’ जस्टिस पर बहस चल रही थी तो सारा देश
‘जुवेनाइल’ को फांसी देने पर उतारू हो गया जबकि क़ानून में ‘जुवेनाइल’ को विशेष
अधिकार दिए गए थे! अब वही तर्क यहाँ भी लागू होने चाहिएं. क्या कोई व्यक्ति अपने आपको
कलाकार बता कर क़ानून से बच सकता है? अगर नहीं तो इस कोमेडीयन को गिरफ्तार करने पर
सारा बोलीवुड एक जुट कैसे हो गया? जब कोई
व्यक्ति दूसरों के धर्म पर अशोभनीय टिप्पणी करे तो सजा के मापदंड अलग-अलग नहीं हो
सकते. सजा तो क़ानून ही तय करेगा. धर्म चाहे कोई भी हो सजा देश के क़ानून के अनुसार
ही होनी चाहिए.
उपर्युक्त विवादित मामलों में धरने-प्रदर्शन व जलूस निकाल
कर कुछ नेता अपनी राजनैतिक रोटियां तो सेक सकते हैं किन्तु समस्या का उचित समाधान
नहीं जुटा सकते. यह हम सब का कर्तव्य है कि हम अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर सभी
धर्मों के लोगों को उनकी इच्छानुसार आचरण करने दें, इसी में हम सब की भलाई है! धर्म
का मकसद लोगों को जोड़ना है न कि नफरत पैदा करना. देश के जिम्मेवार नागरिकों का यह फ़र्ज़
है कि वे अपने धर्म के दायरे में रहते हुए देश के क़ानून का पालन करें क्योंकि धर्म
तो व्यक्ति के घर तक सीमित होता है परन्तु देश के क़ानून पर चलना राष्ट्र धर्म की
श्रेणी में आता है, जो सबसे ऊपर होना चाहिए.
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