My expression in words and photography

बुधवार, 22 जुलाई 2015

योग का विरोध क्यों?


भारत सरकार 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग-दिवस के अवसर पर पूरे देश में योग दिवस का आयोजन कर रही है. सम्पूर्ण विश्व ने योग की महिमा एवं इससे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को मान्यता दी है. योग केवल जीवन पद्धति एवं स्वस्थ परम्परा ही नहीं बल्कि मानव चित्त को शांत रखने के एक काला भी है. आज कई देशों के लोग आपस में वैरभाव एवं वैमनस्य के कारण लड़ रहे हैं. ऐसे में योग सबको जोड़ने का काम करेगा. मनुष्य चाहे किसी भी देश, धर्म अथवा जाति का हो, उसे स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार है. क्या स्वास्थ्य सीमित लोगों की आवश्यकता है? सभी लोग स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त रहना चाहते हैं. ऐसे में उन्हें योग से बेहतर कोई विकल्प नहीं मिल सकता जो अत्यंत आसानी से उपलब्ध हो. योग शब्द का अर्थ है जोड़ना परन्तु लोग इस शब्द के कारण आज एक दूसरे से अलग होने की कोशिश कर रहे हैं. कुछ लोग इसे अपने स्वास्थ्य हेतु अच्छा मानने की बजाय अपने धर्म का विरोधी मान बैठे हैं. यह कैसी सोच है?
हमारे देश में कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी राजनैतिक दल आज योग के विरोध में खड़े हो गए हैं. वे इसे भारतीय जनता पार्टी एवं संघ परिवार का निजी एजेंडा बता रहे हैं. हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट किया है कि योग दिवस के चलते कोई भी कार्यकर्ता पार्टी का झंडा नहीं फहराएगा. इसी तरह किसी भी हिन्दू संगठन को इस आयोजन से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए. आजकल योग कई यूरोपीय एवं अमेरिकी देशों में लोकप्रिय हो रहा है. क्या वहाँ पर इसे भारतीय जनता पार्टी ने लोकप्रिय किया है? जो भी व्यक्ति यौगिक क्रियाओं में भाग लेता है वह इसका महत्त्व बखूबी समझता है. ऐसे में देश के विपक्षी दलों का योग-विरोध समझ के परे है. विरोध करने के लिए देश में अन्य कई मुद्दे हैं परन्तु विपक्ष इन पर विरोध करना तो दूर, कभी चर्चा करना भी गवारा नहीं करता.
ऐसा ही एक मुद्दा आरक्षण का है. कांग्रेस को डर है कि अगर जाटों के आरक्षण का विरोध किया तो उनके वोट अन्यत्र चले जाएंगे. अधिकतर पार्टियां इस मुद्दे पर खामोश हैं क्योंकि वोट किसे बुरे लगते हैं?  हमारे सभी राजनैतिक दल वोटों के लिए देश को बांटने की राजनीति कर रहे हैं.  कहते हैं धडा धर्म से भी महान है. अगर आपका धडा मजबूत है तो आप धर्म पर भी विजय पा सकते हैं. आज समूचा  विश्व ऐसे ही कई मजबूत धडों में बाँट गया है जो आपस में लड़ते रहते हैं. जो विजयी होता है वह अधिक दौलतमंद और प्रभावशाली हो जाता है. क्या जीवन का ऊदेश्य केवल दौलतमंद एवं बलशाली होना ही है? अगर जीतना है तो स्वयं को विजय करो. मानवता को प्रेम सिखाओ न कि नफरत. नफरत के बीज बोने से नफरत ही पैदा होगी. हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को इस प्रकार क्या सन्देश देंगे? आने वाली नस्लें जब अपने पुरखों के बारे में सोचेंगी तो उन्हें कैसा लगेगा?
हम सबको एक अच्छी एवं स्वस्थ परम्परा का वाहक बनना चाहिए. आज देश की राजनीति इतनी दूषित हो गई है कि सब लोग विरोध की खातिर विरोध करने में लगे हैं. आम आदमी पार्टी एक अलग तरह की छवि ले कर आई थी परन्तु लोगों को इससे भी घोर निराशा ही मिली है. जब दिल्ली के क़ानून मंत्री को फर्जी डिग्री प्रकरण में गिरफ्तार किया तो इनके नेताओं ने इसका जम कर विरोध किया. ये लोग अपने फर्जी डिग्रीधारी मंत्री के बचाव में खुल कर आगे आ गए. आज सारा देश जानता है कि सही कौन है तथा गलत कौन है! कोई भी व्यक्ति अपने अंदर झाँक कर देखना नहीं चाहता. सत्ताधारी दल कुछ गलत करता है तो अन्य दल उसकी आलोचना कर सकते हैं. परन्तु सत्ताधारी दल पूर्ववर्ती सरकारों के निर्णयों को एक परम्परा के रूप में प्रस्तुत करता है जो सही नहीं है. अगर पिछली सरकार ने कुछ गलत किया है तो वर्तमान सरकार को इससे सबक लेना चाहिए. आजकल विदेश मंत्री द्वारा मानवीय आधार पर ललित मोदी की सहायता करने के लिए हमारे विदेश मंत्री की आलोचना हो रही है जो सही भी है. अगर आप कोई अच्छा काम करते हैं तो लोग आपको सर-आँखों  पर  बिठाते हैं, परन्तु एक बुरा काम करने से ही लोग आपके विरोध में उठ खड़े होते हैं. स्वस्थ लोकतंत्र में सभी को अपनी बात रखने का अधिकार है.
लोकतंत्र में लोगों की इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए परन्तु अगर लोग क़ानून को अपने हाथ में लें तो यह भी उचित नहीं है. आज लोगों में असहिष्णुता  बढ़ती जा रही है. किसी एक जाति को आरक्षण मिलने से अन्य जातियों के लोग भी इसकी माँग करने लगते हैं. इसकी नौबत यहाँ तक आ गई है कि आरक्षण न मिलने पर ये लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं. ज़रा सोचिए, अगर यही क्रम जारी रहा तो एक दिन सभी लोग आरक्षण की माँग करने लगेंगे! सरकार को तो अपनी वोटों की फ़िक्र है. ऐसे में कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले भी अप्रभावशाली हो सकते हैं. क्या चंद लोगों को खुश करने के लिए संविधान संशोधन लाना उचित रहेगा? यह चिंतन का विषय हो सकता है. जिस जाति को सुप्रीम कोर्ट भी आरक्षण हेतु उपयुक्त नहीं मानता उसे आरक्षण देने के लिए आज राजनैतिक दलों में होड़-सी मची है. क्या राजनीति का अर्थ केवल सत्ता प्राप्त करना ही है? अगर यह सिलसिला यूं ही चलता रहा तो एक दिन देश में अराजकता की स्थिति भी आ सकती है. सरकार को आर्थिक, रक्षा, विदेश नीति के मोर्चे पर तो भारी चुनौतियों से निपटना पद ही रहा है, वहीं आरक्षण जैसी सामाजिक बुराई ने अगर सर उठाया तो इसके परिणाम और भी भयावह हो सकते हैं.

क्या देश के सभी राजनैतिक दल वोटों की राजनीति छोड़ कर देश हित की कोई बात करेंगे?