My expression in words and photography

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

हमारा शहर

हमारा शहर तभी अच्छा लगेगा जब इस शहर के निवासी इसे मन से प्रेम करते हों. यह स्वाभाविक ही है कि जिसे हम प्रेम करते हैं वह गंदा कैसे हो सकता है? किसी भी शहर के सार्वजनिक स्थानों को देख कर वहां रहने वाले लोगों के स्वभाव का अनुमान लगाया जा सकता है. सार्वजनिक स्थानों के अंतर्गत वहां की सड़कें, चौंक-चौराहे, गलियाँ, बारात-घर, धर्मशालाएं, स्कूल तथा कालिज आदि आते हैं. यदि शहर का प्रवेश द्वार ही तंग होगा तो बाहर से आने वाले लोगों को और भी अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है. द्वार पर रुकावट अथवा गंदगी होने से बाहरी लोगों का शहर के प्रति मोह भंग हो सकता है. अतः शहर के सभी प्रवेश मार्ग साफ़-सुथरे एवं खुले होने चाहिएं ताकि लोगों को पहली नज़र में ही शहर से प्यार हो जाए. शहर की गलियाँ साफ़-सुथरी रहनी आवश्यक हैं. कई स्थानों पर लोग अपने घर की गंदगी बाहर डाल देते हैं जो उचित नहीं है. केवल अपना घर और दुकान साफ़ रखने की मनोवृत्ति के कारण हम अपनी सड़कों और गलियों के स्वरुप को बिगाड़ते जा रहे हैं. जाहिर है मैं अपने शहर के सभी सार्वजनिक स्थलों को खुला, हवादार तथा साफ़-सुथरा देखना चाहूंगा क्योंकि हमारे नागरिक इन्हीं स्थानों का सर्वाधिक उपयोग करते हैं. जिस स्थान पर लोग अधिक समय तक रहते हों वहां गंदगी फैलने की संभावना भी अधिक होती है. अतः इन सब स्थानों पर हर रोज़ कम से कम दो बार झाडू लगनी चाहिए ताकि कूड़ा-करकट दिखाई ही न दे. इसके अतिरिक्त सभी मुख्य स्थानों पर कूड़ेदान रखवा देने चाहिएं ताकि लोग इन्हीं में कूड़ा डालें. मनुष्य की सहज मनोवृत्ति है कि किसी स्थान पर गंदगी देखते ही वह वहां गंदगी फैलाने को प्रेरित हो जाता है. जहां पहले से कूड़ा-कचरा पड़ा हो वहां अन्य लोग भी कूड़ा डालने लगते हैं जो सही नहीं है. ऐसे स्थानों को चिन्हित करके वहां कैमरे लगाए जाने चाहिएं ताकि सार्वजनिक चेतावनी द्वारा ऐसे लोगों को न केवल जुर्माना लगा कर बल्कि सामाजिक चेतना जागृत करके सही पटड़ी पर लाया जा सके. कुछ लोग इन स्थानों के आस-पास कूड़ा एकत्र करके आग लगा देते हैं जिससे न केवल प्रदूषण होता है बल्कि जले हुए अवशेषों की गंदगी भी चारों और फैलती है. धूम्रपान करने वाले लोग बीड़ी-सिगरेट एक दम से तो छोड़ नहीं सकते किन्तु उनके लिए एक अलग स्थान की व्यवस्था अवश्य ही की जानी चाहिए ताकि ये लोग सार्वजनिक स्थानों पर धुंआ प्रदूषण न कर सकें. कुछ लोग इन स्थानों पर खड़े-खड़े या चलते हुए चिप्स, टॉफ़ी, चोकलेट, आइसक्रीम अथवा कोल्ड ड्रिंक्स लेने के शौक़ीन हैं, उन्हें सभी पैकिंग रैप्पर इकट्ठे करके कूड़े-दान में ही डालने चाहिएं. यहाँ-वहां गंदगी फैलाने वालों को पहले सावधान करने चाहिए तथा न मानने पर जुर्माने का प्रावधान होना चाहिए. अनुशासन के बिना मनुष्य का जीवन पशु के समान होता है. गंदगी फ़ैलाने एवं इसमें रहने की मनोवृत्ति पशुओं में होती है. मानव जीवन गंदगी में पनपने के लिए नहीं है. जो लोग सार्वजनिक स्थानों पर मिलते हैं, वे एक दूसरे से मिल कर खुश होते हैं तथा सामाजिक सौहार्द्र बढ़ता है. यदि ऐसे स्थानों पर गंदगी होगी तो कोई वहां एक पल भी नहीं ठहर पाएगा. सामाजिक मेल-जोल भी साफ़-सफाई पर ही अधिक निर्भर करता है. लोग पार्कों एवं उद्यानों में भी इसी लिए जाते हैं कि वहां उन्हें ठंडी व ताज़ी हवा मिल सके. शहर की भीड़-भाड़ वाली संकरी गलियों से हर कोई ऊब जाता है. सार्वजनिक स्थान हम सबके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि यहाँ हमें अन्य लोगों के साथ मिलने, बैठने और खुशियाँ बांटने का अवसर मिलता है. ये स्थान सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय की तर्ज़ पर बनाए जाते हैं ताकि किसी भी व्यक्ति को कोई असुविधा न हो. अक्सर देखा जाता है कि हमार बाजारों में दूर दूर तक जन-सुविधा हेतु टॉयलेट या शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं होती. ऐसे में लोग बीच सड़क पर या खुली नालियों में ही अपने बच्चों को शौच करवा देते हैं. यह हमारी नगर-पालिका का कर्तव्य है कि वह सभी प्रमुख स्थानों पर जन-सुविधाओं पर समुचित ध्यान दे. शहर भर में साफ़-सफाई एक या दो लोगों का काम नहीं अपितु इसमें जन-जन की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी. अधिकतर लोग अज्ञानतावश ही गंदगी फैलाते रहते हैं. इन्हें जीवन भर किसी ने बताया ही नहीं होता कि सफाई इनके जीवन हेतु कितनी महत्त्वपूर्ण है? हमारे देश में फैलने वाले अधिकतर रोग केवल गंदगी से होते हैं और ये गंदगी सार्वजानिक स्थानों पर ही अधिक होती है. हमें सफाई का सन्देश अपने बच्चों से ही आरम्भ करना होगा. जब तक हम अपने बच्चों को सफाई के महत्त्व के बारे में नहीं बताएंगे, वे आजीवन गंदगी फैलाते रहेंगे. अतः हमें अपने सभी स्कूलों में बच्चों को साफ़-सुथरे रहने के ढंग सिखाने चाहिएं. बच्चों में बड़ों की तरह कोई अहम् भावना नहीं होती जिससे ये हमारे माहौल को अधिक तेज़ी से समझ सकते हैं. इन्हें बचपन में ही सिखाना चाहिए कि यहाँ-वहा थूकने की मनोवृत्ति कितनी बुरी है? परन्तु जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो इन्हें आप थूकने या गंदगी फ़ैलाने से रोक नहीं पाएंगे. साफ़-सफाई हमारी आदतों में होनी चाहिए. जिन लोगों को जीवन भर गंदगी में रहने की आदत हो जाए उनका सुधारना बहुत कठिन होता है. यदि हमने भविष्य में अपने सार्वजनिक स्थलों को साफ़-सुथरा रखना है तो अपनी आने वाली पीढ़ी को इस दिशा में सचेत करना होगा. आजकल आवारा पशु एवं कुत्तों के कारण भी सार्वजनिक स्थलों पर भीड़ एवं गंदगी बढ़ती जा रही है. सभी पशुओं को समीप की गौ-शाला में भेजा जा सकता है ताकि लोग साफ़-सुथरे स्थानों पर आसानी से रह सकें. यदि देखा जाए तो गंदगी फैलने का सबसे बड़ा कारण मनुष्य स्वयं ही है. वह अपने स्वार्थ के लिए तरह तरह के प्रपंच करता रहता है जिससे न केवल वातावरण दूषित होता है बल्कि अन्य लोगों में असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है. लोग तथाकथित पुण्य कमाने की होड़ में आवारा कुत्तों को न केवल खिलाते-पिलाते हैं अपितु सार्वजानिक स्थलों पर विचरण करने हेतु भी प्रेरित करते हैं. इस प्रकार इन कुत्तों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है जो एक खतरनाक संकेत है. हमारे सार्वजनिक स्थान कुत्ते पालने के स्थान नहीं हैं. यदि किसी को इन कुत्तों से इतना ही लगाव है तो इन्हें अपने घर ले जा कर पालना चाहिए, न कि सार्वजनिक स्थान पर! अंत में सर्वाधिक जिम्मेवारी हमारी न्यायपालिका की बनती है जो देश के कानून के मुताबिक़ लोगों को सफाई के रास्ते पर चलने में अपना योगदान दे सके.   

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

भारत में दलित राजनीति-2

पिछली कड़ी में मैंने भारत में तथाकथित ‘दलित’ श्रेणी के प्रादुर्भाव का उल्लेख किया था. क्या तथाकथित दलित लोग वास्तव में शोषित हैं? हालांकि भारतीय संविधान सभी नागरिकों को बराबरी के अधिकार देता है फिर भी कुछ जातियों एवं सम्प्रदायों के व्यक्तियों को सरकार द्वारा विशेषाधिकार दिए गए हैं. ये विशेषाधिकार देश की आजादी के बाद कुछ ही वर्षों तक जारी रखने की व्यवस्था थी परन्तु हमारे नेताओं की राजनैतिक पैंतरेबाजी के चलते ये अब भी जारी हैं. वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा प्रतीत होता है कि देश का तथाकथित दलित एवं शोषित समाज कभी आगे बढ़ना ही नहीं चाहता. उसे तो केवल संविधान द्वारा दी गई विशेष सुविधाओं से ही सरोकार है. यदि आप किसी व्यक्ति को लाठी के सहारे ही चलाते रहेंगे तो वह कभी भी अपने पाँव पर खड़ा नहीं हो सकता!
देश में सरकारी नौकरियों के लिए जहां सामान्य श्रेणी के नवयुवकों को गला-काट स्पर्द्धा से जूझना पड़ रहा है वहाँ तथाकथित दलित एवं पिछड़े कहीं कम योग्यता से ही अच्छी नौकरी पाने में कामयाब हो जाते हैं. ऎसी व्यवस्था के कारण जहां कम योग्यता वाले अभ्यर्थी सरकारी कार्यालयों में नियुक्ति पा रहे हैं वहीं अत्यधिक शिक्षा प्राप्त लोग नौकरी के लिए दर-दर की ख़ाक छान रहे हैं. परिणामस्वरूप हमारे समाज की विभिन्न जातियों में नफरत और गुस्से का माहौल पनपने लगा है. आज तक चयनकर्ता अभ्यर्थियों की शक्ल देख कर ही अंक दिया करते थे ताकि सरकारी पदों पर अपने मन पसंद लोगों की भर्ती की जा सके. हालाँकि प्रधानमंत्री महोदय ने बहुत-सी नौकरियों के लिए साक्षात्कार की अनिवार्यता को दरकिनार कर दिया है फिर भी इस दिशा में बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है. साक्षात्कार में किसी छात्र की जाति या धर्म का अनुमान लगाने या पक्षपात करने की संभावना रहती है जो अब समाप्त हो गई है. इसके लिए हमारी वर्तमान सरकार अवश्य ही बधाई की पात्र है.
हमें अब ऎसी प्रशासनिक व्यवस्था पर विचार करने की आवश्यकता है जिससे सामाजिक भेदभाव पूरी तरह समाप्त हो सके. इसके लिए तथाकथित दलितों एवं पिछडों को सरकारी नौकरियों की भिक्षा नहीं अपितु शैक्षिक योग्यता में उच्चतर स्थान प्राप्त करने की आवश्यकता है जो स्कूलों में बेहतर पढ़ाई, पढ़ने के उपयुक्त अवसरों और अच्छे स्कूलों में दाखिले द्वारा ही सम्भव हो सकता है. अयोग्य छात्रों को सरकारी नौकरियों में ऊंचे पद देने से तथाकथित अगड़ों एवं पिछडों में सामाजिक विद्वेष ही बढ़ता है. यह तो अब उन तथाकथित ‘दलितों’ को ही तय करना है कि वे ‘दलित’ कहलवा कर आरक्षण चाहते हैं या स्वयं को अपनी योग्यता के बल पर ऊंचा उठा कर तथाकथित ‘सवर्णों’ के साथ चलना चाहते हैं. कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है. आप आरक्षण छोड़ते हैं तो आपको अपनी योग्यतानुसार सम्मान मिलता है. अगर स्वयं को दलित अथवा पिछड़ा बता कर ही कुछ पाना चाहो तो आप अपनी ही नज़रों में ‘बौने’ बने रहते हैं.
कहते हैं कि हर जाति का व्यक्ति साधु हो सकता है परन्तु साधु लोग कभी आपस में यह प्रश्न नहीं करते कि वह किस जाति से आया है? साधुओं की पांत में सभी बराबर हैं. इसी प्रकार भारत माँ की हर संतान बराबर है. इन्हें दलित या पिछड़ा बताना माँ का भी अपमान है. यदि आप भी आत्म-सम्मान से जीना चाहते हैं तो सब कुछ अपनी योग्यता से हासिल करिए और सर्वोच्च सम्मान पाइए! भिक्षा में लिया गया सम्मान या आरक्षण द्वारा पाया गया लाभ आपको सरकारी स्थान तो दिलवा सकता है किन्तु यथोचित सामाजिक सम्मान नहीं. आजकल जाति-पाति में किसी का कोई विश्वास नहीं है. हम भी जाति-पाति में विश्वास नहीं करते. जब कोई व्यक्ति स्वयं को दलित बताता है तो हमें बहुत बुरा लगता है क्योंकि ईश्वर ने सभी को एक समान बनाया है. अगर हम सब बराबर हैं तो स्वयं को ‘दलित’ बताने वाले लोग एक तरह से ईश्वर की रचना का ही अपमान कर रहे होते हैं. क्या आप ईश्वर का अपमान करना चाहेंगे?
आजकल हैदराबाद विश्वविद्यालय में चल रहे धरना-प्रदर्शन में कुछ छात्रों ने अपने शिक्षकों पर यह आरोप लगाया है कि वे दलित एवं पिछड़े छात्रों के साथ भेदभाव करते हैं. यदि यह बात सत्य है तो इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए. क्या इन आरोपी शिक्षकों की भर्ती में सभी नियमों की अनुपालना हुई थी? सम्भव है ये लोग भी येन-केन-प्रकारेण शिक्षकों के पद पर पहुंचे हों और अब अपनी मनमानी पर उतर आए हों. जो व्यक्ति शिक्षा जैसे ‘पुनीत’ विभाग में नियुक्ति पाने के लिए जुगाड़ लगा सकता है, वह शिक्षण जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए कैसे उपयुक्त हो सकता है? आजकल कई मामलों में शिक्षकों की शिक्षण गुणवत्ता में कमी पाई गई है. जब शिक्षकों को ही पर्याप्त ज्ञान नहीं होगा तो वे अपने विद्यार्थियों को क्या सिखाएंगे? यदि छात्र जान-बूझ कर अपने शिक्षकों को कलंकित कर रहे हैं, तो यह और भी गंभीर मामला है. विश्वविद्यालयों में राजनैतिक स्वार्थों के कारण कुछ भी सम्भव हो सकता है. अतः इस प्रकार की सभी घृणित गतिविधियों पर लगाम लाने की आवश्यकता है. जहां तक हमें स्मरण है, हमारे शिक्षक सभी छात्रों को बराबरी की नज़र से देखते थे और अपना अध्यापन कार्य करने में किसी से कम न थे. सरकार की आरक्षण नीति के कारण आजकल कुछ ऐसे अध्यापक भी नियुक्ति प्राप्त कर रहे हैं जिन्हें विद्यार्थियों को शिक्षित करने हेतु आवश्यक योग्यता अथवा अनुभव न के बराबर है. हाल ही में कुछ राज्यों के उच्च-न्यायालयों द्वारा उपयुक्त योग्यता के अभाव में बहुत-सी नियुक्तियां रद्द करने की खबर भी सामने आई थी. आजकल सामान्य श्रेणी के विद्यार्थी अत्यंत विकट परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं. एक तरफ उन्हें आर्थिक अभावों के बा-वजूद स्कूलों में मोटी फीस देनी पड़ती है तो दूसरी ओर शिक्षा समाप्ति पर आरक्षण व्यवस्था के चलते नौकरी हेतु हर बार असफलता का मुंह देखना पड़ता है.
प्रस्तुत लेख में दलितों एवं तथाकथित पिछड़े छात्रों का विरोध करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता! सरकार को चाहिए कि वह भारत के सभी नागरिकों हेतु शिक्षा के उपयुक्त अवसर सृजित करे. यदि किसी छात्र को शिक्षा में कोई कठिनाई हो तो उसके लिए विशेष कोचिंग कक्षाओं की व्यवस्था करवाए. लेकिन जब सरकारी पदों की नियुक्ति का समय आए तो शैक्षिक गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं होना चाहिए. सभी जातियों एवं धर्मों के लोगों को स्वस्थ स्पर्द्धा का सामना करते हुए ही अपनी योग्यतानुसार नौकरी मिलनी चाहिए. यह शैक्षिक गुणवत्ता के साथ किया गया समझौता ही है जो हमारे स्कूलों में शिक्षण गुणवत्ता में आई गिरावट के लिए जिम्मेवार है. क्या आप प्रथम श्रेणी में पास हुए स्नातकों को छोड़ कर तृतीय श्रेणी के लोगों को केवल इसलिए शिक्षक लगा सकते हैं क्योंकि वे तथाकथित दलित या पिछड़े वर्ग से हैं? ऐसा कदाचित नहीं होना चाहिए, क्योंकि अयोग्य शिक्षक भविष्य में अयोग्य छात्रों को ही आगे बढ़ाएंगे. ऐसे में देश का भविष्य क्या होगा, आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं!
क्या तथाकथित दलितों और पिछड़े वर्ग के लोगों को सामाजिक असमानता का सामना करना पड़ता है? यह सत्य नहीं है. कुछ विश्वविद्यालयों के छात्रों ने यह भी आरोप लगाया था कि दलित एवं पिछड़े वर्ग के छात्रों को जान-बूझ कर परीक्षा में फेल कर दिया जाता है ताकि वे आगे न बढ़ सकें. यह सर्वथा निंदनीय है. जो अध्यापक ऐसा करते हैं उन्हें इस अक्षम्य अपराध के लिए कड़े से कड़ा दंड दिया जाना चाहिए.  परन्तु इस समस्या का समाधान भी कोई इतना कठिन कार्य नहीं है. अगर सरकार चाहे तो मान्य विश्वविद्यालयों में परीक्षा-पत्रों की जांच का काम अन्य विश्वविद्यालयों के अध्यापकों से करवा सकती है ताकि किसी हेरा-फेरी या भेदभाव की कोई गुंजाइश ही न रहे. यू.जी.सी. विश्वविद्यालयों में इस प्रकार की कोई शिकायत नहीं मिलती जहां हज़ारों की संख्या में छात्र परीक्षा देते हैं तथा उनकी पहचान का किसी को भी पता ही नहीं चलता. वैसे यह भी सत्य है कि आजकल देश के मान्य-विश्वविद्यालयों में शिक्षा का स्तर तीव्रता से गिर रहा है. ऐसे स्थानों पर शिक्षा की गुणवत्ता में तुरन्त सुधार लाए जाने की आवश्यकता है.

निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि सामाजिक समरसता बढ़ाने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों को साथ-साथ चलने की आवश्यकता है. किसी को ऊंचा या नीचा करने से समस्या का समाधान सम्भव नहीं हो सकता. यदि आरक्षण करना है तो शिक्षा का आरक्षण करें, ताकि सभी लोगों को शिक्षा के उपयुक्त अवसर प्राप्त हों. क्या आप किसी ऐसे व्यक्ति को फ़ौज में भर्ती कर देंगे जिसे लड़ना नहीं आता किन्तु वह दलित या पिछड़े वर्ग से है? क्या पिछड़े वर्ग का कोई ऐसा व्यक्ति जज बनाया जा सकता है जिसे क़ानून की शिक्षा में सबसे कम अंक मिले हैं? क्या आप सरकारी बस चलाने हेतु किसी पिछड़े को नियुक्ति देते समय उसकी शैक्षिक योग्यता व ड्राइविंग लाइसेंस की जांच नहीं करेंगे? क्या आप मेडिकल शिक्षा में न्यूनतम अंक पाने वाले को तथाकथित दलित समुदाय होने के कारण डाक्टर के पद पर नियुक्ति दे देंगे? अगर आप ऐसा करना उचित समझते हैं तो फिर देश में एक पिछड़े वर्ग की बटालियन या एक तथाकथित ‘दलित’ बटालियन क्यों नहीं है? देश में दलितों व पिछडों के अस्पताल क्यों नहीं हैं? क्या आप चाहते हैं कि तथाकथित दलितों एवं पिछडों की अलग अदालतें बनें? जाहिर है कि हमारे देश में कोई दलित अथवा पिछड़ा है ही नहीं. हमें सबका साथ और सबका विकास चाहिए जो समाज में भेदभाव के चलते नहीं हो सकता. आइए, इस समस्या पर एक सार्थक दृष्टिकोण से विचार करें और आरक्षण रूपी भेदभाव-पूर्ण व्यवस्था को समाप्त करने के लिए अपने कदम आगे बढ़ाएं. यह हमारे देश के व्यापक हित में ही है.  

भारत में दलित राजनीति-1

हिंदी भाषा में दलित शब्द का अर्थ ‘शोषित’ बन गया है जो अंग्रेजी के ‘ओप्रेस्ड’ के समतुल्य मानते हुए “oppressed by a sense of failure” द्वारा परिभाषित भी किया गया है. शब्दकोश डॉट कॉम नामक पोर्टल पर इसकी व्याख्या “burdened psychologically or mentally” द्वारा भी की गई है. अर्थात दलित एक ऐसा व्यक्ति है जो मानसिक रूप से दबा हुआ है अथवा जिसे स्वयं के असफल होने का एहसास है. उपर्युक्त शब्दावली से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि कोई भी व्यक्ति अपने जन्म के समय दलित नहीं होता क्योंकि उस समय उसकी मानसिक संवेदनाएं इतनी विकसित नहीं होती जो उसे अपने ‘दलित’ होने का एहसास करवा सकें. अब यह शोध का विषय है कि कोई व्यक्ति ‘दलित’ कैसे बनता है? जब मैं अपनी प्राथमिक पाठशाला में पढता था तो मुझे और मेरे सहपाठियों को यह बिल्कुल भी नहीं मालूम था कि हमारी जाति क्या है.
हम सब साथ-साथ पढते और खेलते थे. जब उच्च-विद्यालय में पहुंचे तो मालूम हुआ कि कुछ विद्यार्थियों की फीस माफ़ है तथा कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें फीस माफी के साथ छात्रवृत्ति की सुविधा प्राप्त हो सकती है. ऐसे सभी छात्रों ने इन सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए अपने आवश्यक घोषणा पत्र एवं जाति प्रमाण-पत्र विद्यालय में जमा करवाए थे. इन्हीं प्रमाण-पत्रों के आधार पर इन्हें वे सब सुविधाएं मिली थी जिनसे सामान्य श्रेणी के सभी छात्र वंचित रहे थे. हमारे बाल-सुलभ मन में फिर भी अपने साथियों की जाति जानने की कोई इच्छा नहीं होती थी. हम सब अपने सहपाठियों के साथ उसी तरह मिल-जुल कर खेलते थे जैसे अपने भाइयों के साथ. कालेज तक पहुंचते-पहुँचते अनुसूचित जाति के छात्रों को और भी अधिक सुविधाएं मिलने लगी थी जिससे कई बार हम जैसे छात्रों को ईर्ष्या का भाव भी होने लगता था. यह जरूरी नहीं था कि इन छात्रों को यह वित्तीय लाभ उनकी खराब आर्थिक दशा के कारण मिलता हो. कुछ ऐसे छात्र भी थे जो आर्थिक रूप से संपन्न परन्तु अनुसूचित जाति के होने के कारण सभी लाभ ले रहे थे.
मुझे अच्छी तरह से याद है कि हम जिस कक्षा में बैठते थे, उसी कक्षा में ही अनुसूचित जाति के छात्र भी होते थे. हमें उनके साथ बैठने में कोई परहेज़ नहीं था. हमारा शिक्षक भी सभी को समान रूप से पढाता था. स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद हमें स्नातकोत्तर कक्षाओं में दाखिले के लिए भी संघर्ष करना पड़ा जबकि हमारे साथ पढ़ने वाले अनुसूचित जातियों के छात्र आसानी से ही आगे दाखिला पाने में सफल हो गए थे. इनके लिए सभी स्थानों पर आरक्षण सुविधा उपलब्ध करवाई गई थी.
पढ़ाई के कारण छात्रों का तनाव-ग्रस्त होना कोई नई बात नहीं है. हम भी परीक्षा के दिनों में पर्याप्त नींद न आने से अक्सर परेशाँ रहते आए हैं. विशेष तौर पर जो छात्र पढ़ाई के साथ छात्र-संघ की गति-विधियों में भाग लेते हैं उन्हें अत्यधिक तनाव का सामना करना पड़ता है. अतः विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत शोधार्थियों को यथासम्भव ऎसी राजनैतिक गतिविधियों से दूर रहना चाहिए ताकि वे अपनी पढ़ाई के लिए अधिक समय निकाल सकें. अक्सर देखा गया है कि विभिन्न राजनैतिक दल से मान्यता प्राप्त करके छात्र परस्पर विरोधी गतिविधियों में भाग लेने लगते हैं तथा अपने उद्देश्य से भटक जाते हैं. सरकार के बदलने पर सबसे अधिक नुक्सान उस राजनैतिक छात्र संघ के सदस्यों को होता है जो सत्ता से बाहर हो. विश्वविद्यालयों में राजनैतिक हस्तक्षेप पर तुरन्त रोक लगनी चाहिए ताकि छात्रों के हितों की रक्षा की जा सके. छात्रों को होने वाला मानसिक तनाव जाति-पाति में विश्वास नहीं करता और यह सभी प्रकार के भेदभावों से परे है परन्तु न्यूज़ मीडिया के प्रतिनिधि अक्सर ऎसी खबर की फिराक में रहते हैं जहां यह तनाव किसी दलित अथवा पिछड़े समुदाय के छात्र को हुआ हो.
यदि कोई ऐसा छात्र तनावग्रस्त हो कर आत्महत्या कर ले तो मीडिया को टी.वी. पर अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के शानदार अवसर मिलते हैं. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारा मीडिया एवं राजनैतिक दल किसी छात्र की मृत्यु पर संवेदना व्यक्त करने के स्थान पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने में अधिक रूचि लेते हैं. हमें अपने छात्रों को हर हाल में शैक्षिक तनाव से बचा कर उनके उज्जवल भविष्य हेतु प्रयास करने चाहिएं.
अभी हाल ही में हैदराबाद के एक छात्र द्वारा आत्महत्या करने पर राजनीति का बाज़ार गर्म हो रहा है. यदि वर्तमान प्रकरण में जान देने वाला विद्यार्थी सामान्य जाति का होता तो शायद कोई हैदराबाद तक जाने की जहमत ही न उठता किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में दिल्ली के मुख्यमंत्री भी अपने समस्त उत्तरदायित्वों को त्याग कर आग में घी डालने हेतु हैदराबाद पहुँच गए. यह अलग बात है कि दिल्ली में कुछ लोग अत्यधिक सर्दी के कारण अपने प्राण गंवा रहे हैं परन्तु मुख्यमंत्री महोदय को इसकी कोई फ़िक्र ही नहीं है.

कमोबेश सभी राजनैतिक दल अपने वोट बैंक में इजाफा करने के लिए इस प्रकार की ओछी हरकतों से बाज़ नहीं आते. क्या देश में कोई न्याय प्रणाली नहीं है? आखिर क़ानून एवं व्यवस्था बनाने वाले लोग भी तो अपना काम करते ही होंगे न! ऐसे में हर नेता किसी न किसी परिणाम तक पहुँच कर अपनी ऊटपटांग राय आगे बढ़ा रहा है! ऐसा लगता है कि सारे देश की केवल एक ही प्राथमिकता है कि किसी तरह उस छात्र की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु से कुछ चुनावी लाभ उठाया जाए. पहले ये लोग धरने-प्रदर्शन करते हैं तथा बाद में हालात बेकाबू होने पर भाग जाते हैं. अन्तोत्गत्वा विश्वविद्यालय के छात्रों को ही इस सबकी कीमत चुकानी पड़ती है. अब तो यही इच्छा है कि ईश्वर सभी पक्षों को सद्बुद्धि प्रदान करे तथा पीड़ित पक्ष को देश के क़ानून के मुताबिक़ न्याय मिले, बस....यही उम्मीद की जा सकती है. आजादी से पूर्व अंग्रेजों ने हमारे समाज में फूट डाली और सौ बरस तक शासन किया. अब हमारे नेता समाज को अगड़े, पिछड़े और दलित समुदायों में बाँट कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. अब तक तो शायद आपको मालूम हो ही गया होगा कि हमारे समाज में ‘दलित’ नाम के शब्द का आविष्कार किसने और क्यों किया! क्रमशः

शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

धार्मिक सहिष्णुता के दोहरे मापदंड

भारत एक विभिन्न धर्मों का देश है जहां सभी धर्मों के लोग मिल-जुल कर ऐसे रह रहे हैं जैसे किसी गुलदस्ते में रंग-बिरंगे खुशबू और बिना खुशबू वाले फूल एक साथ दिखाई देते हैं किन्तु एक दूसरे पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं करते. हालांकि धर्म आस्था से जुड़ा हुआ ऐसा मामला है जहां कोई तर्क-वितर्क काम नहीं आते फिर भी कई बार ऎसी परिस्थितियाँ बनी हैं जब धार्मिक असहिष्णुता पर सवाल उठाने की नौबत आई है. अभी हाल ही में हिन्दू महासभा के एक नेता को मुस्लिम धर्म के विषय में आपत्तिजनक टिप्पणी करने पर गिरफ्तार कर लिया गया था. वह आजकल जेल में है तथा उसके शीघ्र छूटने की संभावना भी कम ही दिखाई देती है.
अभी लोग इस घटना को भूले ही नहीं थे कि टी.वी. पर कोमेडी करने वाले एक व्यक्ति ने हरियाणा के डेरा धर्मावलम्बियों के गुरु का अशोभनीय मजाक उड़ा दिया जिसे डेरा-प्रेमियों ने अत्यंत गंभीरता से लिया और कोमेडियन को गिरफ्तार कर कानूनी कार्यवाही की माँग कर डाली. इस व्यक्ति को आनन-फानन में गिरफ्तार भी कर लिया गया किन्तु कुछ लोगों के दबाव में छोड़ने की नौबत भी आ गई. ज्ञातव्य है कि डेरा प्रमुख ने घटनाक्रम जानने के बाद इस कोमेडियन को तो माफ़ कर दिया किन्तु मुस्लिम धर्म पर टिप्पणी करने वाले व्यक्ति के लिए फांसी की माँग की जा रही है.
सबसे बड़ा प्रश्न देश में असहिष्णुता को लेकर भी है. जब एम. एफ. हुसैन ने हिंदू देवी-देवताओं की नग्न तस्वीरें बना कर सबको चौंकाया था तो हिंदुओं ने काफी हद तक अपनी परम्परागत सहिष्णुता का परिचय दिया था. वर्तमान परिस्थितियों में भी कुछ वैसा ही देखने को मिल रहा है परन्तु लोगों को देश के क़ानून पर जैसे कोई भरोसा ही नहीं रहा है. ये लोग अपनी मर्जी से किसी को मुजरिम करार देते हुए फांसी पर लटका देना चाहते हैं. हमने पिछले दिनों और भी कई ऐसे घटनाक्रम देखे हैं जब कुछ मुस्लिम नेताओं ने हिन्दू देवीदेवताओं पर अशोभनीय टिप्पणियाँ की थी परन्तु हिंदुओं ने अपनी पारंपरिक सहिष्णुता दिखाते हुए मामले को तूल देना उचित नहीं समझा तथा सब कुछ क़ानून पर छोड़ दिया गया.
अब सवाल ये नहीं है कि अगर कोई कोमेडीयन है तो उसे किसी की भी खिल्ली उड़ाने का अधिकार मिल सकता है परन्तु नेता है तो उसे बख्शा ही न जाए! क्या नेता किसी कलाकार से कम है? आखिर वह भी तो जनता पर अपना विशेष प्रभाव दिखाकर ही वोटें हासिल करता है न! जो व्यक्ति इतना बड़ा कलाकार हो, उसे कोमेडीयन से कमतर क्यों समझा जाए? हमारे ख्याल में तो सभी मामले एक जैसे दिखाई देते हैं. दूसरों के धार्मिक मामले में नाहक हस्तक्षेप करने वाला हर एक व्यक्ति अपराधी की श्रेणी में आता है चाहे वह कलाकार है या नहीं.
जब देश में ‘जुवेनाइल’ जस्टिस पर बहस चल रही थी तो सारा देश ‘जुवेनाइल’ को फांसी देने पर उतारू हो गया जबकि क़ानून में ‘जुवेनाइल’ को विशेष अधिकार दिए गए थे! अब वही तर्क यहाँ भी लागू होने चाहिएं. क्या कोई व्यक्ति अपने आपको कलाकार बता कर क़ानून से बच सकता है? अगर नहीं तो इस कोमेडीयन को गिरफ्तार करने पर सारा बोलीवुड एक जुट कैसे हो गया?  जब कोई व्यक्ति दूसरों के धर्म पर अशोभनीय टिप्पणी करे तो सजा के मापदंड अलग-अलग नहीं हो सकते. सजा तो क़ानून ही तय करेगा. धर्म चाहे कोई भी हो सजा देश के क़ानून के अनुसार ही होनी चाहिए.

उपर्युक्त विवादित मामलों में धरने-प्रदर्शन व जलूस निकाल कर कुछ नेता अपनी राजनैतिक रोटियां तो सेक सकते हैं किन्तु समस्या का उचित समाधान नहीं जुटा सकते. यह हम सब का कर्तव्य है कि हम अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर सभी धर्मों के लोगों को उनकी इच्छानुसार आचरण करने दें, इसी में हम सब की भलाई है! धर्म का मकसद लोगों को जोड़ना है न कि नफरत पैदा करना. देश के जिम्मेवार नागरिकों का यह फ़र्ज़ है कि वे अपने धर्म के दायरे में रहते हुए देश के क़ानून का पालन करें क्योंकि धर्म तो व्यक्ति के घर तक सीमित होता है परन्तु देश के क़ानून पर चलना राष्ट्र धर्म की श्रेणी में आता है, जो सबसे ऊपर होना चाहिए. 

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

बातां ऊंटा री!

बातां ऊंटा री हो, बातां ऊंटा री!
जावो कठी थे इण ने भूल सके न कोई
बातां ऊंटा री हो! बातां ऊंटा री!
सुणूला मैं बातां, ऊंटा री न्यारी-न्यारी
बातां ऊंटा री हो! बातां ऊंटा री!

सवारी ऊंटा री हो, सवारी ऊंटा री
सबसूं  निराली है, ये जाने दुनिया सारी
सवारी ऊंटा री हो, सवारी ऊंटा री!
म्हारो मन तरसे, हो म्हारो मन तरसे
मैं भी करूंला आंगी सवारी, हो सवारी
सवारी ऊंटा री हो, सवारी ऊंटा री!

सारा जग जाणे हो, सारा जग जाणे
ऊंटनी रो दूध, कितना होवे गुणकारी
म्हारे मन भावे, हो म्हारे मन भावे!
ऊंटनी रे दूध सूं बने है बढ़िया मिठाई
सारा जग खावे, हो सबके मन भावे
ऊंटनी रा दूध, है बहुत ही गुणकारी! 

ताकत ऊंटा री हो, ताकत ऊंटा री
बोझ उठावे ओ तो सबसूं ही भारी.
म्हारो मन बोले, हो भेद ये सब खोले
बातां ऊंटा री हो, बातां ऊंटा री!
जाणे है ये दुनिया, म्हारा मन भी ओ बोले

बातां ऊंटा री हो, बातां ऊंटा री!

क्या हमारे देश में असहिष्णुता है?


आजकल हमारे देश में असहिष्णुता को लेकर चर्चा का बाज़ार गर्म है. कुछ लोगों का कहना है कि देश में असहिष्णुता बहुत बढ़ गई है. आपका क्या ख्याल है? मुझे तो ऐसा लगता है कि इस विषय पर हमें गहन चिंतन करने की आवश्यकता है तभी किसी उपयुक्त निष्कर्ष तक पहुँचा जा सकता है. आइए, हम सब इसके बारे में गैर-राजनैतिक ढंग से सोच-विचार करें! हमारे देश की आबादी दुनिया में दूसरे स्थान पर है तथा यहाँ विभिन्न मजहब एवं सम्प्रदाय के लोग सदियों से मिल-जुल रहते आए हैं. सदियों से हमारा समाज बहुसंप्रदायवादी रहा है परन्तु फिर भी कुछ राजनैतिक दलों के लोग निहित स्वार्थ के लिए बार-बार हमें यह बताने की कोशिश करते रहते हैं कि हम असहिष्णु हो गए हैं. क्या वास्तव में ऐसा हुआ है? कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं दिखाई देता. आप घर से निकल कर अपने पूजा स्थलों की ओर जाते हैं तो सभी जानकार लोग आपका अभिवादन परम्परागत ढंग से करते हुए दिखाई देते हैं. कोई नमस्कार करता है, तो कोई जय राम जी की! कोई असलामवलेइकुम कहता है तो कोई गुड मोर्निंग. लब्बो-लुआब ये है कि अभिवादन करने के ढंग पर किसी को कोई एतराज़ नहीं है. इसका अर्थ ये हुआ कि हम सब एक दूसरे का अभिवादन एवं पूजा पद्धति सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं! क्या यह हमारी सहिष्णुता का परिचायक नहीं है कि हम सब बिना मजहब को बीच में लाए एक दूसरे की शुभकामनाएं और अभिवादन स्वीकार कर रहे हैं? क्या ऐसा करने के लिए किसी क़ानून ने हमें पाबन्द किया है? अगर नहीं, तो बारहा इस विषय पर प्रश्न-चिन्ह क्यों लगाया जाता है कि देश में सहिष्णुता कम हो रही है? क्या इतने बड़े देश में चंद अप्रिय घटनाओं को असहिष्णुता का नाम दिया जा सकता है? ऎसी अपराधिक घटनाएं सभी देशों में होती रहती हैं जिन पर सख्त कानूनी कार्यवाही करने की आवश्यकता है.


यहाँ सभी जातियों एवं धर्म के लोग एक ही जहाज़, बस या रेल में सफर करते हैं. क्या कोई इन्हें स्थान विशेष पर उतरने के लिए बाध्य करता है? कदाचित नहीं. कोई भी व्यक्ति जहां जी चाहे जा सकता है. यहाँ किसी रोक-टोक का तो सवाल ही नहीं है. स्कूलों में भी सभी मजहबों के लोग एक साथ बैठ कर शिक्षा ग्रहण करते हैं. कोई ऊँच-नीच नहीं है. यदि कोई फर्क है तो वह भी कुछ लोगों ने आरक्षण एवं वोटों की मिली-जुली राजनीति के अंतर्गत ही विशेषाधिकार द्वारा प्राप्त किया है जिसके लिए उनकी अपनी सहमति है. तो क्या देश में सभी धर्मों के लोग एक ही शहर या कालोनी में निवास नहीं करते? जब आप बाज़ार से सामान खरीदते हैं तो क्या बेचने वाले से उसकी जाति या धर्म पूछते हैं? हम सब आमतौर पर किसी भी टी-स्टाल पर चाय पी लेते हैं. कम से कम मुझे तो ऐसा याद नहीं आ रहा कि जब मैंने किसी चाय वाले से उसका नाम ही पूछा हो. क्या आप अस्पताल जा कर पहले डाक्टर से उसका नाम या मजहब पूछ कर अपना इलाज़ करवाते हैं? कभी नहीं. तो क्या आप खून चढ़वाते समय रक्तदाता का धर्म या जाति पूछते हैं? अगर नहीं तो क्या यह सब हमारी असहिष्णुता एवं भाई-चारे का परिचायक नहीं है? इन सब बातों के बा-वजूद हमें अपनी असहिष्णुता का इम्तिहान बार-बार क्यों देना पड़ता है? आइए, इसका पता लगाते हैं.


यहाँ एक बात का उल्लेख करना अति आवश्यक है कि आजकल हमारी सहिष्णुता की मिसाल वास्तव में अद्वितीय है. देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, बढ़ती हुई महँगाई, जमाखोरी, बेरोजगारी से हम ज़रा भी विचलित नहीं होते. इन विषयों पर किसी न्यूज़ चैनल ने चर्चा करवा कर कभी यह नहीं कहा कि हमारी सहिष्णुता उच्चतम स्तर पर पहुँच गई है. हम अपने चारों ओर भ्रष्टाचार को अच्छी तरह पनपते हुए देख रहे हैं. हमें रिश्वतखोरों से कोई परहेज़ नहीं है. स्पष्ट है कि इस प्रकार की सहिष्णुता से राजनैतिक दलों को लाभ मिलता है तथा वे नहीं चाहते कि लोग इन मुद्दों को लेकर कभी उनके विरुद्ध आंदोलन न छेड़ दें.


हमारे देश में बरसों से केवल एक ही राजनैतिक दल की सत्ता रही है. इतनी लम्बी अवधि तक सत्ता में काबिज रहने से कुछ लोग घमंडी तथा निरंकुश हो कर दोबारा सत्ता हथियाने के लिए ओछी राजनीति पर उतर आए हैं. जनता द्वारा नकारे गए भ्रष्ट राजनेता सत्ता पाने के लिए अपने देश को बदनाम करने एवं नीचा दिखाने से भी बाज़ नहीं आते. यह सच है कि हमारे देश में सभी को बोलने की स्वतंत्रता है. परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि आप कुछ ऐसा बोलने लगें कि जिसे दूसरे लोग स्वयं को किसी संभावित खतरे में अनुभव करने लगें! जब बात निकलती है तो दूर तक जाती है. अगर किसी को किसी से कोई ख़तरा ही नहीं है तो फिर बार-बार ऐसा कहने की आवश्यकता ही क्यों है? जाहिर है, इस तरह की हरकतों से समाज में अविश्वास फैलता है. जो लोग अत्यधिक संवेदनशील होते हैं, उन्हें ये सब नागवार गुज़रता है. अतः हम सबको कुछ बोलने से पहले तोलना जरूर चाहिए. रही बात असहिष्णुता की, तो यह सत्य है कि साधारण परिवार में सहिष्णुता की बहुत कमी है. आज बाप बेटे की बात नहीं सुनता और बेटा बाप की नहीं. पारिवारिक कलह बढ़ रही है जिसकी पुष्टि अदालतों में लंबित लाखों मुकद्दमों से की जा सकती है. हमारे परिवार टूट कर बिखरने लगे हैं. पति-पत्नी में छोटी-छोटी बातों से तलाक तक की की नौबत आ जाती है. परन्तु पारिवारिक असहिष्णुता का कहीं कोई ज़िक्र ही नहीं मिलता. करण स्पष्ट है कि इससे किसी परिवार का भला तो हो सकता है किन्तु राजनेताओं को कोई लाभ नहीं मिल सकता.


पिछले दिनों हमारे देश में कुछ अमानवीय एवं झकझोरने वाली घटनाएं सामने आई हैं जो चिंता का विषय है. किसी को किसी की शक्ल अच्छी न लगे तो वह उस पर कालिख पोतने पर उतर आता है. अभी कल ही की एक घटना में किसी भिखारी को भीख नहीं मिला, तो उसने भीख न देने वाले व्यक्ति को ही चलती गाड़ी के आगे धक्का दे दिया. यह बात अलग है कि वह स्वयं भी उसी गाड़ी की चपेट में आ गया. ये सभी अपराधिक घटनाएं हैं जिन्हें साम्प्रदायिकता का जामा नहीं पहनाया जा सकता. अगर नियत सही न हो तो भीख मांगने वाला व्यक्ति भी किसी न किसी मजहब का रहा होगा. अगर उसने किसी दूसरे मजहब के व्यक्ति को धक्का दे दिया तो इसका अर्थ यह कैसे हो गया कि लड़ाई मजहबी है? सारा झगडा तो भूख का है. जब लोगों को भरपेट या जेब-भर नोट नहीं मिलते तो वह ऎसी ओछी हरकतों पर उतर आते हैं. चुनावों में हमारे नेता संयम से कोई बात नहीं करते. ऐसे में सामान्य नागरिक क्या कर सकता है? देश का आम नागरिक इन सभी घटनाओं से चिंतित है.


हाल ही में हमारे देश में साहित्य पुरस्कार प्राप्त करने वाले कुछ लेखक अपना सम्मान लौटाने में रूचि ले रहे हैं. इनका कहना है कि वे ऐसा बढ़ती हुई असहिष्णुता के विरोध में कर रहे हैं. हमारे देश की जनसँख्या 125 करोड़ से अधिक है तथा सम्पूर्ण विश्व में ऎसी विविधता की मिसाल शायद ही कहीं ओर हो. इसीलिए इसे विविधता में एकता का देश भी कहा जाता है. अगर ऎसी घटनाओं के लोग असहिष्णुता को बढ़ावा दे रहे हैं तो हमारे साहित्यकार क्या कर रहे हैं? क्या उनकी लेखनी अब निस्तेज हो गई है जो लोगों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित नहीं कर सकती? क्या हमारा लेखक वर्ग स्वयं असहिष्णुता को बढ़ावा नहीं दे रहा? क्या हम दूसरों द्वारा विरोध प्रकट करने पर अधिक संवेदनशील नहीं हो गए हैं? अगर इन साहित्यकारों को अपना सम्मान लौटना ही है तो इस पर राजनीति क्यों हो?


सम्मान लौटाने के भी अपने ढंग होते हैं. पुरस्कार स्वरुप प्राप्त की गई सारी धन राशि व्याज समेत लौटाई जानी चाहिए. क्या कुछ लोगों के असहिष्णु होने में सरकार का कोई योगदान है? अगर नहीं तो फिर इसके लिए सरकार को ही क्यों कोसा जाता है? करे कोई, भरे कोई! लगता है अब सरकार को भी पुरस्कार बांटते समय ‘अंडरटेकिंग’ लेनी होगी कि पुरस्कार विजेता भविष्य में राजनैतिक अथवा अन्य कारणों से अपना इनाम नहीं लौटाएगा. जब ऐसे लेखकों की लेखनी दम तोड़ने लगे तो ये अपनी ‘जीवन संध्या’ में ऐसी ही कोई बात करते हैं जिससे ये ख़बरों में बने रह सकें. जब चंद सरफिरे लोगों की बातों पर ही लेखक वर्ग उत्तेजित होने लगे तो इनकी असहिष्णुता कहाँ चली गई? क्या ये लोग इस इस बात का जवाब अपने देशवासियों को दे पाएंगे? कमोबेश सभी न्यूज़ चैनल वालों ने इस विषय पर बहस करवाई है. उल्लेखनीय है कि किसी भी चैनल ने पुरस्कार न लौटाने वाले व्यक्तियों का पक्ष जानने की कभी कोई कोशिश नहीं की जबकि इन लोगों की संख्या हज़ारों में है! क्या यह अत्यंत पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं है? उल्लेखनीय है कि हम केवल वही सुनना चाहते हैं जो हमें अच्छा लगता है. यदि कुछ अच्छा न लगे तो हम या तो बोलने वाले को चुप करवाते हैं या फिर ऊंचे स्वर में वह बात कहते हैं जिसे कोई सुनना नहीं चाहता! क्या आप इसे असहिष्णुता कहेंगे? सारा मामला बोलने की आजादी को लेकर है. अधिकतर लोग इस आजादी का दुरुपयोग करते हैं जिसे लोगों ने असहिष्णुता मान लिया है परन्तु वास्तव में असहिष्णुता जैसी कोई समस्या हमारे देश में है ही नहीं. ये सब तो भ्रष्ट राजनेताओं के मस्तिष्क की ओछी सोच है जो लोगों को आपस में झगड़ने के लिए प्रेरित करते रहते हैं.

रविवार, 2 अगस्त 2015

देश में सांप्रदायिक दंगों पर राजनीति


आज से बाईस बरस पहले मुंबई में बम विस्फोट हुए थे जिसमें बहुत-से लोगों की जाने गई तथा अन्य कई जख्मी भी हुए. यह मनुष्य का स्वभाव है कि उसे हर बुरी घटना को भुलाना ही पड़ता है क्योंकि आप इन्हें याद करके जीवन में आगे नहीं बढ़ सकते. हमारे देश की क़ानून व्यवस्था इतनी लचर है कि इन बम विस्फोटों के लिए जिम्मेवार व्यक्ति आज तक पकड़ में नहीं आए. कई अभियुक्त अब तक फरार हैं, जो पकड़ में आया उस पर कई साल मुकद्दमा चला तथा शीर्ष अदालत ने उसे फांसी की सजा सुनाई. अभियुक्त ने सज़ा कम करने के लिए राष्ट्रपति को अपील की, जो खारिज हो गई. उसे बचाव का पूरा मौका देते हुए अंतिम सुनवाई रात भर चली लेकिन अगली सुबह अपने फैसले में अदालत ने फांसी की सजा को कायम रखा और उसे फांसी दे दी गई. इस सज़ा पर देश भर में तीखी बहस शुरू हो गई कि फांसी की सज़ा मुनासिब नहीं थी. अभियुक्त को इस मामले में रहम का पूरी तरह हकदार बताया गया. मैं कोई क़ानून का जानकार तो नहीं हूँ लेकिन इतना अवश्य जानता हूँ कि यह फैसला कई बरसों तक मुकद्दमा चलने के बाद ही आया होगा.
अगर किसी अभियुक्त का धर्म देख कर रहम की अपील पर फैसला होता तो देश के मुस्लिम राष्ट्रपति किसी भी मुसलमान को फांसी पर नहीं चढ़ने देते और इसी तरह हिन्दू राष्ट्रपति सभी हिन्दुओं का अपने धर्म के अनुसार बचाव करते. लेकिन हमारे देश में ऐसा कभी नहीं हुआ. कुछ राजनैतिक लोगों द्वारा इस सज़ा की तीव्र आलोचना की गई. सबने अपने-अपने स्वार्थ में अंधे हो कर विवादास्पद एवं विरोधी बयान दिए. इस दौड़ में देश का न्यूज़ मीडिया भी पीछे रहने वाला नहीं था. कई टेलीविजन चैनल इस विषय पर दिन-रात चर्चा में लगे हैं कि क्या यह सज़ा न्यायसंगत थी? ख़बरों के अनुसार जिन लोगों के परिवार इन बम विस्फोटों से प्रभावित हुए उन्हें कुछ हद तक इन्साफ मिला परन्तु एक वर्ग ऐसा भी था जो इस फैसले से नाखुश था. यह पहली बार नहीं हुआ कि किसी फैसले पर देश के विभिन्न लोगों की राय में विभाजन हुआ हो. विचारों में मतभेद होना लोकतंत्र की विशेषता है. हमें विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता है किन्तु अपनी बातों से दूसरों को आहत करने का अधिकार किसी को भी नहीं मिला है. पूर्व में भी कोर्ट द्वारा दिए गए कई फैसलों की सार्वजनिक आलोचना होती रही है. ज़रा सोचिए कि अदालतों में न्याय करने वाले भी हमारी तरह इंसान ही हैं. ध्यातव्य है कि न्यायमूर्ति के सिंहासन पर बैठने के बाद कोई भी व्यक्ति स्वार्थ से प्रेरित होकर अपना फैसला नहीं कर सकता. फिर इस फैसले पर इतना विवाद क्यों? कुछ राजनैतिक दलों द्वारा इस मामले को बे-वजह तूल देने की कोशिश की गई है जो सर्वथा निंदनीय है.
कुछ मुस्लिम संगठनों ने यह कह कर विस्फोटों के अभियुक्त का बचाव किया है कि वह गुजरात के दंगों का बदला लेने के लिए ही ऐसा कर रहा था. यह चिंता का विषय है क्योंकि कई हिन्दू भी गुजरात के दंगों को गोदरा काण्ड की सहज प्रतिक्रिया मानते हैं. कुछ मुस्लिम संगठनों का तो यह भी कहना है कि मुसलमानों द्वारा किए गए दंगों पर तो तुरंत कानूनी कार्यवाही की जाती है जबकि हिन्दुओं द्वारा किए गए दंगों पर न्यायालय धीरे-धीरे कार्यवाही करते हैं. कुछ तथाकथित नेताओं से यह भी सुनने में आया है कि पहले बाबरी मस्जिद गिराने वालों और गुजरात में दंगा करने वालों को फांसी दो फिर किसी मुस्लिम अभियुक्त के खिलाफ कोई कार्यवाही हो! यह सुनने में बड़ा अजीब लगता है. अगर कुछ सिरफिरे लोगों ने कोई अपराध कर दिया तो उसकी सजा देश के अन्य लोगों को बिना मुकद्दमा चलाए कैसे दी जा सकती है? यह विचार किस तरह से तर्कसंगत हो सकता है? अगर किसी अमरीकी नागरिक का इराक में सर कलम किया गया है तो क्या अमेरिका वाले भी किसी इराकी को इसकी सजा देते हुए बदला लेंगे? यह भी दलील दी गई कि देश में फांसी की सज़ा को ख़त्म कर देना चाहिए. सभ्य समाज में फांसी की सज़ा होना सर्वथा अनुचित है. हम सब इस विचार से सहमत हैं. इसमें कोई शक नहीं कि सभ्य समाज में किसी भी व्यक्ति के प्राण न लिए जाएं परन्तु जो लोग बम विस्फोट द्वारा लोगों की हत्याएं करते हैं, क्या वह सभ्य समाज का काम है?
मुझे याद है कि वर्ष 1984 में एक सिख व्यक्ति द्वारा देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी की हत्या करने के बाद दंगे भड़के थे जिसमें हज़ारों सिखों की मौत हुई थी. हम यह भी जानते हैं कि आज तक किसी भी दंगाई को पकड़ा नहीं जा सका और न ही कोई प्रभावी मुकद्दमा चल पाया. यह समुदाय हमारी क़ानून एवं व्यवस्था से अत्यंत निराश हुआ है परन्तु इन्होंने कभी भी इसका बदला अन्य समुदायों से लेने की बात नहीं सोची. क्या यह इनकी महानता नहीं है? ऐसा करने से क्या ये लोग छोटे हो गए? हम सबको सिखों से सीख लेनी चाहिए. हमारा क़ानून अगर धीमा है तो इसके लिए हम सब जिम्मेवार हैं. हमारे वकील बार-बार तारीख आगे बढाते रहते हैं जिससे न्याय में देरी होती है. देश में भ्रष्टाचार के चलते लोगों को समय पर न्याय नहीं मिलता. लेकिन इस का अर्थ यह तो नहीं कि हम आपस में ही लड़ने लगें! देश में सरकार तो हमारी जनता ही चुनती है. अगर कोई राजनेता काम न करे तो उसे देश की जनता बाहर का रास्ता दिखा सकती है. कुछ मुस्लिम नेताओं का कहना है कि उनके धर्म के बहुत कम लोग संसद में पहुंचते हैं जिससे मुसलमान हर क्षेत्र में पिछड़ रहे हैं. जहां तक मुझे याद है कि देश में राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के पद तक पहुँचने वाले मुस्लिम उम्मीदवारों का समर्थन हिन्दुओं द्वारा ही होता आया है. इन सब पर हमें नाज़ है क्योंकि ये लोग स्वयं को सदा धर्म से अलग मानते थे. धर्म एक व्यक्तिगत मामला है जिसे केवल घर की चारदीवारी तक ही सीमित रखना चाहिए. कोई भी मनुष्य अपने सत्कर्मों द्वारा महान बनता है न कि अपने धर्म के कारण.
हमारे देश में सभी धर्म एवं सम्प्रदाय के लोग आज तक मिल-जुल कर रहते आए हैं. परन्तु इसकी गंगा-जमुनी तहजीब कई राजनीतिज्ञों को रास नहीं आ रही है. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि अगर इस फैसले की आलोचना करेंगे तो उन्हें आने वाले चुनावों में काफ़ी वोट मिल सकते हैं. वोटों की राजनीति ने हमारे लोकतंत्र की नींव को हिला कर रख दिया है. अतः देश की जनता की यह बड़ी जिम्मेवारी है कि इन स्वार्थी तत्त्वों पर ध्यान न देकर वे अपना भला-बुरा स्वयं सोचें तथा अपने हलके में सर्वोत्तम उम्मीदवारों का ही चयन करें. हमारे जनप्रतिनिधि चाहे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के हों, वे अपने हलके के विकास पर ही ध्यान देंगे. कोई भी विधायक या सांसद अपनी जाति या धर्म को देख कर काम नहीं करता. इसी तरह उसे जीत दिलवाने वाले लोग केवल एक मजहब या जाति के नहीं बल्कि पूरे समाज से होते हैं. मैं एक आम आदमी हूँ. मेरा धर्म मेरा राष्ट्र है जिससे मैं प्रेम करता हूँ. जब नौकरी पर जाता हूँ तो अपने परिवार को भुला देता हूँ और जो भी काम राष्ट्र हित में है, वही करता हूँ. इसी तरह हमारा मतदाता जब वोट डालने जाता है वह केवल अच्छे उम्मीदवारों का ही चयन करता है. वह उम्मीदवार की जाति या धर्म के बारे में कुछ नहीं सोचता.
अदालतों में हमारे न्यायधीश बिना पक्षपात के अपना कार्य करते हैं. देश का किसान सभी जातियों एवं धर्म के लोगों के लिए फसलें, सब्जियां एवं अन्न पैदा करता है. जब हम रक्तदान करते हैं तो हमारी जाति या धर्म का कोई उल्लेख नहीं होता. कोई भी रक्त हिन्दू, मुसलमान, इसाई या बौद्ध धर्म के लोगों के लिए उपयुक्त हो सकता है. इसी तरह अपराध करने वाले व्यक्ति किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय से हो सकते हैं. अपराध का कोई धर्म या जाति नहीं होती. अपराध केवल अपराध होता है और अपराधी सदैव दंड का भागीदार बनता है. हमें इस विषय पर किसी भी अनावश्यक बहस में नहीं उलझना चाहिए. किस व्यक्ति को कब और कितना दंड मिलेगा, वह उस मामले के साक्ष्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है. हमारे कहने से किसी व्यक्ति को कोई सज़ा नहीं मिल सकती और मिलनी भी नहीं चाहिए. आखिर देश में क़ानून का जो राज है! अगर किसी व्यक्ति को हमारी न्याय व्यवस्था पर विश्वास नहीं है तो वह अपने सुझाव दे सकता है. क़ानून बनाने के लिए संसद है और संसद का चुनाव जनता करती है. अगर हमारी न्याय प्रणाली सर्वोत्तम नहीं है तो भी कई देशों की न्याय व्यवस्था से श्रेष्ठ अवश्य है. इसमें जो भी खामियां हैं, वे हम सबके निहित स्वार्थों के कारण ही हैं.

हम अदालतों में अपने अल्पकालिक हितों के कारण मुकद्दमों को लंबा खींचते रहते हैं. कई बार अदालतों को सब का सहयोग नहीं मिलता. देश की जनसंख्या में वृद्धि के अनुसार अदालतों की संख्या नहीं बढ़ पाई है. मुकद्दमों की संख्या कई गुना बढ़ गई है तथा अक्सर फैसला आने में विलम्ब होता है. अगर हम सब मिलकर सहयोग करें तो अपनी न्याय व्यवस्था को और भी अधिक बेहतर बना सकते हैं. लोकतंत्र में हर समस्या का समाधान संभव है. हमें सहनशीलता से अपनी बात आगे बढानी चाहिए. आपस में वैमनस्य एवं राग-द्वेष फैला कर कोई भी देश अथवा समुदाय तरक्की नहीं कर सकता. कठिन परिस्थितियों में मिल-जुल कर सभी विपत्तियों का सामना किया जा सकता है. आजादी से पहले हमारा देश छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था जहां के राजा आपस में लड़ते रहते थे. अंग्रेजों ने हमारी फूट का लाभ उठा कर सौ बरस तक राज किया. क्या हम आपस में लड़-झगड़ कर स्वयं को कमज़ोर कर लें? हमारी ओर पूरी दुनिया की नज़र लगी है. अतः हमें कोई भी काम ऐसा नहीं करना चाहिए कि शत्रु देश हमारी कमजोरियों से लाभ उठा ले. यह देश हम सबका है तथा हम सबको मिलजुल कर ही आगे बढ़ना होगा. 

बुधवार, 22 जुलाई 2015

योग का विरोध क्यों?


भारत सरकार 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग-दिवस के अवसर पर पूरे देश में योग दिवस का आयोजन कर रही है. सम्पूर्ण विश्व ने योग की महिमा एवं इससे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को मान्यता दी है. योग केवल जीवन पद्धति एवं स्वस्थ परम्परा ही नहीं बल्कि मानव चित्त को शांत रखने के एक काला भी है. आज कई देशों के लोग आपस में वैरभाव एवं वैमनस्य के कारण लड़ रहे हैं. ऐसे में योग सबको जोड़ने का काम करेगा. मनुष्य चाहे किसी भी देश, धर्म अथवा जाति का हो, उसे स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार है. क्या स्वास्थ्य सीमित लोगों की आवश्यकता है? सभी लोग स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त रहना चाहते हैं. ऐसे में उन्हें योग से बेहतर कोई विकल्प नहीं मिल सकता जो अत्यंत आसानी से उपलब्ध हो. योग शब्द का अर्थ है जोड़ना परन्तु लोग इस शब्द के कारण आज एक दूसरे से अलग होने की कोशिश कर रहे हैं. कुछ लोग इसे अपने स्वास्थ्य हेतु अच्छा मानने की बजाय अपने धर्म का विरोधी मान बैठे हैं. यह कैसी सोच है?
हमारे देश में कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी राजनैतिक दल आज योग के विरोध में खड़े हो गए हैं. वे इसे भारतीय जनता पार्टी एवं संघ परिवार का निजी एजेंडा बता रहे हैं. हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट किया है कि योग दिवस के चलते कोई भी कार्यकर्ता पार्टी का झंडा नहीं फहराएगा. इसी तरह किसी भी हिन्दू संगठन को इस आयोजन से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए. आजकल योग कई यूरोपीय एवं अमेरिकी देशों में लोकप्रिय हो रहा है. क्या वहाँ पर इसे भारतीय जनता पार्टी ने लोकप्रिय किया है? जो भी व्यक्ति यौगिक क्रियाओं में भाग लेता है वह इसका महत्त्व बखूबी समझता है. ऐसे में देश के विपक्षी दलों का योग-विरोध समझ के परे है. विरोध करने के लिए देश में अन्य कई मुद्दे हैं परन्तु विपक्ष इन पर विरोध करना तो दूर, कभी चर्चा करना भी गवारा नहीं करता.
ऐसा ही एक मुद्दा आरक्षण का है. कांग्रेस को डर है कि अगर जाटों के आरक्षण का विरोध किया तो उनके वोट अन्यत्र चले जाएंगे. अधिकतर पार्टियां इस मुद्दे पर खामोश हैं क्योंकि वोट किसे बुरे लगते हैं?  हमारे सभी राजनैतिक दल वोटों के लिए देश को बांटने की राजनीति कर रहे हैं.  कहते हैं धडा धर्म से भी महान है. अगर आपका धडा मजबूत है तो आप धर्म पर भी विजय पा सकते हैं. आज समूचा  विश्व ऐसे ही कई मजबूत धडों में बाँट गया है जो आपस में लड़ते रहते हैं. जो विजयी होता है वह अधिक दौलतमंद और प्रभावशाली हो जाता है. क्या जीवन का ऊदेश्य केवल दौलतमंद एवं बलशाली होना ही है? अगर जीतना है तो स्वयं को विजय करो. मानवता को प्रेम सिखाओ न कि नफरत. नफरत के बीज बोने से नफरत ही पैदा होगी. हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को इस प्रकार क्या सन्देश देंगे? आने वाली नस्लें जब अपने पुरखों के बारे में सोचेंगी तो उन्हें कैसा लगेगा?
हम सबको एक अच्छी एवं स्वस्थ परम्परा का वाहक बनना चाहिए. आज देश की राजनीति इतनी दूषित हो गई है कि सब लोग विरोध की खातिर विरोध करने में लगे हैं. आम आदमी पार्टी एक अलग तरह की छवि ले कर आई थी परन्तु लोगों को इससे भी घोर निराशा ही मिली है. जब दिल्ली के क़ानून मंत्री को फर्जी डिग्री प्रकरण में गिरफ्तार किया तो इनके नेताओं ने इसका जम कर विरोध किया. ये लोग अपने फर्जी डिग्रीधारी मंत्री के बचाव में खुल कर आगे आ गए. आज सारा देश जानता है कि सही कौन है तथा गलत कौन है! कोई भी व्यक्ति अपने अंदर झाँक कर देखना नहीं चाहता. सत्ताधारी दल कुछ गलत करता है तो अन्य दल उसकी आलोचना कर सकते हैं. परन्तु सत्ताधारी दल पूर्ववर्ती सरकारों के निर्णयों को एक परम्परा के रूप में प्रस्तुत करता है जो सही नहीं है. अगर पिछली सरकार ने कुछ गलत किया है तो वर्तमान सरकार को इससे सबक लेना चाहिए. आजकल विदेश मंत्री द्वारा मानवीय आधार पर ललित मोदी की सहायता करने के लिए हमारे विदेश मंत्री की आलोचना हो रही है जो सही भी है. अगर आप कोई अच्छा काम करते हैं तो लोग आपको सर-आँखों  पर  बिठाते हैं, परन्तु एक बुरा काम करने से ही लोग आपके विरोध में उठ खड़े होते हैं. स्वस्थ लोकतंत्र में सभी को अपनी बात रखने का अधिकार है.
लोकतंत्र में लोगों की इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए परन्तु अगर लोग क़ानून को अपने हाथ में लें तो यह भी उचित नहीं है. आज लोगों में असहिष्णुता  बढ़ती जा रही है. किसी एक जाति को आरक्षण मिलने से अन्य जातियों के लोग भी इसकी माँग करने लगते हैं. इसकी नौबत यहाँ तक आ गई है कि आरक्षण न मिलने पर ये लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं. ज़रा सोचिए, अगर यही क्रम जारी रहा तो एक दिन सभी लोग आरक्षण की माँग करने लगेंगे! सरकार को तो अपनी वोटों की फ़िक्र है. ऐसे में कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले भी अप्रभावशाली हो सकते हैं. क्या चंद लोगों को खुश करने के लिए संविधान संशोधन लाना उचित रहेगा? यह चिंतन का विषय हो सकता है. जिस जाति को सुप्रीम कोर्ट भी आरक्षण हेतु उपयुक्त नहीं मानता उसे आरक्षण देने के लिए आज राजनैतिक दलों में होड़-सी मची है. क्या राजनीति का अर्थ केवल सत्ता प्राप्त करना ही है? अगर यह सिलसिला यूं ही चलता रहा तो एक दिन देश में अराजकता की स्थिति भी आ सकती है. सरकार को आर्थिक, रक्षा, विदेश नीति के मोर्चे पर तो भारी चुनौतियों से निपटना पद ही रहा है, वहीं आरक्षण जैसी सामाजिक बुराई ने अगर सर उठाया तो इसके परिणाम और भी भयावह हो सकते हैं.

क्या देश के सभी राजनैतिक दल वोटों की राजनीति छोड़ कर देश हित की कोई बात करेंगे?

मंगलवार, 19 मई 2015

देश में निजी स्कूल हों या सरकारी स्कूल?

पटना (बिहार) में सामाजिक समारोह के दौरान एक सात वर्षीय बच्चे ने कहा कि अगर वह प्रधानमंत्री बन गया तो देश के सभी निजी स्कूलों को बंद करवा देगा. कमोबेश इसी तरह की टिप्पणियाँ बहुत से अभिभावक भी करते रहते हैं. उक्त घटना से यह स्पष्ट है कि अधिकतर लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढाना तो चाहते हैं परन्तु इसके लिए अधिक फीस देना उन्हें गवारा नहीं है. हमारे देश में सरकारी स्कूलों की फीस तो बहुत कम है किन्तु वहाँ की पढ़ाई एक दम बेकार है. आज एक आम आदमी इसी ऊहापोह में फंस कर रह गया है कि वह अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढाए या सरकारी स्कूलों में! यह समस्या इतनी गंभीर नहीं है परन्तु लोग इस पर सार्थकता से विचार करने को भी कतई तैयार नहीं हैं.
जरा सोचिए कि निजी स्कूल बिना किसी सरकारी सहायता के इतनी अच्छी सुविधाएं कैसे जुटा लेते हैं? अधिकतर मामलों में इन्हें जमीन भी अपने ही रुपयों से खरीदनी पड़ती है. इनकी इमारतें सरकारी स्कूलों से बहुत भव्य एवं अच्छी होती हैं. यदि बैठने के स्थान की तुलना करें तो निजी स्कूलों की कक्षाएं अत्यंत आरामदेह परिस्थितियों में आयोजित की जाती हैं. निजी स्कूलों में बच्चों की अभिरुचियों पर विशेष ध्यान दिया जाता है. बच्चों के सर्वांगीण विकास हेतु नाना प्रकार के साधन जुटाए जाते हैं. सरकारी स्कूलों की तुलना में निजी स्कूल के अध्यापक बहुत कम वेतन लेते हैं जबकि उन्हें यहाँ कड़ी मेहनत से पढाना पड़ता है. इन सब बातों में कुछ अपवाद भी हो सकते हैं परन्तु अधिकतर मामलों में ये सब बातें सत्य ही है.
सरकारी स्कूलों में अध्यापकों की नियुक्तियां किस प्रकार होती हैं, यह अब जगजाहिर है. अभी हाल ही में जम्मू तथा कश्मीर हाईकोर्ट के न्यायधीश ने अपनी एक टिप्पणी में सरकारी स्कूल के एक अध्यापक के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करने को कहा है जो ‘गाय’ पर निबंध तक नहीं लिख सका. फिर उस अध्यापक ने कहा कि वह गणित का अच्छा ‘जानकार’ है लेकिन पूछने पर चौथी कक्षा के गणित से मामूली प्रश्न भी हल नहीं कर पाया. हमारे देश के अधिकतर सरकारी स्कूलों की स्थिति लगभग इसी तरह की है. अगर आज सभी अध्यापकों का टेस्ट लिया जाए तो मालूम होगा कि उनमें से आधे तो शिक्षक बनने के लायक ही नहीं हैं. आजकल सरकारी स्कूलों में नियुक्ति पाने के लिए लोग मोटी रिश्वत देने को तैयार हो जाते हैं परन्तु जब इन स्कूलों में अपने बच्चे पढाने की बात सामने आती है तो सभी कन्नी काटने लगते हैं.
कुछ लोगों का सुझाव है कि सभी अध्यापकों एवं सरकारी अफसरों के बच्चों को जबरदस्ती सरकारी स्कूलों में पढाने के लिए दबाव डाला जाए ताकि इन स्कूलों का शैक्षिक वातावरण बेहतर हो सके. क्या इस प्रकार इस् समस्या का हल सम्भव है? कदाचित नहीं. जब तक हम सरकारी स्कूलों में नियुक्त होने वाले अध्यापकों की शिक्षा एवं अनुभव पर ध्यान नहीं देंगे तब तक इन स्कूलों का स्तर सुधरने वाला नहीं है. सरकार को चाहिए कि वह शिक्षकों की शैक्षिक गुणवत्ता समय-समय पर जांचती रहे ताकि फर्जी डिग्री एवं घूस देकर नियुक्तियां प्राप्त लोग यहाँ नौकरी प्राप्त न कर सकें. जो लोग येन-केन-प्रकारेण इस व्यवसाय में जबरन घुस आए हैं उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए. अगर हमारे देश के शिक्षक ही नालायाक होंगे तो हमारी भावी पीढ़ी कैसी होगी? आज देश में सभी प्रकार की नौकरियाँ पाने के लिए लंबी कतारें लगी हुई हैं. जो व्यक्ति अपने जीवन में कोई भी नौकरी पाने में असमर्थ रहता है, वह अध्यापक बन जाता है. ऐसा क्यों होता है? क्या इस ‘नोबल’ व्यवसाय के लिए उच्च योग्यता के मापदंड नहीं होने चाहिएं? सरकार भी शिक्षा के नाम पर केन्द्रीय बजट से मामूली राशि का आबंटन करके पल्ला झाड लेती है. अगर हमारे विश्वविद्यालय  तथा स्कूल आज विश्व के शीर्ष संस्थानों में नहीं गिने जाते तो यह सब किसका दोष है? आखिर जैसा पेड़ लगाएंगे उस पर फल भी वैसा ही आएगा न!
जहां देखो, तहां देश की राज्य सरकारें बजट के अभाव में कम तनख्वाह पर ‘गेस्ट’ अध्यापकों की नियुक्तियां करने लगी हैं. बाद में यही अध्यापक पूरे वेतन तथा स्थायी नौकरी की माँग करते हैं. वोटों के दबाव में सरकार इनके साथ समझौता करती है तथा यहीं से शुरू हो जाते है हमारे छात्रों के बुरे दिन. इस लेख का उद्देश्य सुपात्र अध्यापकों को नौकरी से वंचित करना नहीं है किन्तु गेस्ट अध्यापकों को बिना किसी परीक्षा के सकूलों में स्थायी नियुक्ति कैसे दी जा सकती है? हाँ, यदि इनमें कुछ योग्य अध्यापक हैं तो उन्हें अवश्य ही सरकारी स्कूलों में लगाया जाना चाहिए. हमारे अधिकतर सरकारी स्कूलों की स्थिति आज अत्यंत दयनीय हो चुकी है. अध्यापक या तो समय पर नहीं आते या कभी-कभार ही स्कूल में दिखाई देते हैं. भ्रष्टाचार ने हमारे स्कूलों की शिक्षा को उद्देश्यहीन एवं व्यर्थ बना दिया है. बच्चे स्कूलों में कम तथा ट्यूशन पर अधिक पढते हैं.

आजकल सरकारी स्कूलों में परीक्षा परिणाम बीस प्रतिशत से भी कम आने लगे हैं. सरकार हर साल अधिक छात्रों को पास करने के लिए विशेष फार्मूले बनाती है जिसके अंतर्गत कमज़ोर छात्रों को ‘ग्रेस’ अंक दिए जाते हैं. क्या यह सरकार अपने स्कूलों को भी कभी कोई ‘ग्रेस’ दे पाएगी? यह सिलसिला कब तक चलेगा? छात्र देश का भविष्य होते हैं. इनके भविष्य से खिलवाड़ करना देशद्रोह के समान होता है. स्कूलों में केवल योग्य विद्यार्थियों को ही पास करना चाहिए वरना यही अयोग्य विद्यार्थी दोबारा शिक्षक बन कर आएँगे तथा स्कूल के परिक्षा परिणामों को इसी प्रकार प्रभावित करते रहेंगे. यदि सरकार के काम चलाने के लिए आई.ए.एस. अफसरों की आवश्यकता हो सकती है तो स्कूलों के लिए योग्य अध्यापक क्यों नहीं? यदि समय रहते इन स्कूलों का स्तर नहीं सुधरा तो लोग अपने बच्चों को इनमें पढ़ने के लिए कैसे प्रेरित कर पाएंगे?

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

किसान आत्महत्या क्यों करते हैं?


आजकल बदलते हुए जलवायु परिदृश्य से सभी हैरान और परेशान हैं. जब बारिश की आवश्यकता होती है तो सूखा पड़ता है तथा जब सूखा आवश्यक हो तो बारिश या ओलावृष्टि होने लगती है. जब इन दोनों में से कोई अपना रंग न दिखाए तो भूकंप आ जाता है. अगर देखा जाए तो प्राकृतिक आपदाएं हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग हो गई हैं. इन आपदाओं से आजकल कोई भी व्यक्ति अछूता नहीं है. तो फिर केवल किसानों में इतनी बेचैनी क्यों है जो इन्हें आत्म ह्त्या के लिए मजबूर करती है? आइए, इस समस्या पर विचार करें.
हमारा देश आरम्भ से ही कृषि पर आधारित रहा है परन्तु भारी उद्योगों का विकास होने के कारण देश की कृषि योग्य भूमि का क्षरण होने लगा है. पहले हम तीस करोड़ लोगों के खाने के लिए भी अन्न पैदा नहीं कर पाते थे परन्तु आज हम एक सौ बीस करोड़ लोगों को भरपेट खिलाने में सक्षम हैं. यह सब हरित क्रान्ति के कारण ही संभव हो सका है. आज देश में दूध का उत्पादन भी विश्व में दूसरे स्थान पर है. इसका एक अन्य पहलू यह भी है कि अत्याधिक उत्पादन के बा-वजूद हमारे देश में प्रति एकड़ पैदावार अन्य विकसित राष्ट्रों के मुकाबले बहुत कम है. इसी प्रकार दूध के मामले में भी प्रति पशु दुग्ध-उत्पादन बहुत कम है. हमारा किसान खेती के परम्परागत तरीकों को ही इस्तेमाल करता आया है. वह आज भी अपने सहेज के रखे बीजों से फसल उगाता है. हमारा किसान आज भी अशिक्षित है तथा नई तकनीकी अपनाने के मामले में उसे कोई दिलचस्पी नहीं है. वह इसे महँगा व जोखिम भरा बता कर पल्ला झाड लेता है.
आज वैश्विक स्तर पर कृषि का उत्पादन नए शिखर छूने जा रहा है जबकि भारत में अब भी कई स्थानों पर कृषि पूर्णतया बारिश पर ही निर्भर है. जहां कम पानी की फसलें उगानी चाहिएं वहां हम अधिक पानी की आवश्यकता वाली फसलें बो रहे हैं. इसी तरह देखा जाए तो हम अपने संसाधनों का युक्ति-संगत उपयोग नहीं कर रहे हैं. भूमिगत जल का लगातार दोहन होने से स्थिति और भी विकराल रूप लेती जा रही है. हमारा किसान बिना किसी सोच विचार के अपनी खेती करता जा रहा है जबकि दुनिया कहीं आगे निकल गई है. बरसों से एक जैसी फसलें बार-बार उगाने के कारण मिट्टी में कुछ विशेष तत्त्वों की कमी हो जाती है जिससे किसान अनभिज्ञ रहता है. इसका कृषि उत्पादन क्षमता पर दुष्प्रभाव पड़ता है. जलवायु परिवर्तन के कारण भी हमारी फसलों का उत्पादन कम हो रहा है. हमारा पर्यावरण दूषित हो गया है. खेतों में नई तरह के कीट एवं खरपतवार निकलने लगे हैं. इन्हें परम्परागत साधनों से नष्ट करना अब आसान नहीं रहा. किसानों को उन्नत खेती के लिए अधिक उत्पादन क्षमता वाले बीजों की आवश्यकता पड़ती है. खाद और पानी का समुचित लाभ न मिलने के कारण किसान को हानि उठानी पड़ती है. वह रुपया उधार लेकर खेती करता है जबकि प्राकृतिक आपदा के एक झटके में ही उसकी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है. वह अन्दर से टूट जाता है तथा आत्म-हत्या जैसा आसान किन्तु निंदनीय कार्य करने में भी संकोच नहीं करता.
क्या आत्म-हत्या करने से किसी समस्या का समाधान हो सकता है? कदाचित नहीं. मुसीबत का सामना तो डट कर किया जाना चाहिए. जनसँख्या बढ़ने के कारण किसान के खेत भी छोटे होते जा रहे हैं. छोटे-छोटे खेतों में अनाज उगाना उतना लाभकारी नहीं होता जितना बड़े खेतो के लिए लाभदायक है. ऐसे में किसानों को आपस में मिलजुल कर खेती करने पर विचार करना चाहिए. जो मशीन एक छोटा किसान अकेला नहीं खरीद सकता, उसे कई किसान मिलकर खरीद सकते हैं. इसी तरह उन्नत प्रौद्योगिकी द्वारा अधिक उत्पादन सुनिश्चित किया जा सकता है. आज देश में ऐसे भी किसान हैं जो एक एकड़ जमीन से इतनी आय कर लेते हैं जितनी शायद अन्य किसान दस एकड़ खेत से भी नहीं कर पाते. अतः किसानों को अपनी सहायता स्वयं करनी होगी. हमारा किसान सरकार के भरोसे रह कर खेती में कामयाब नहीं हो सकता. प्रत्येक किसान को अपने मुश्किल समय के लिए कुछ न कुछ धन अवश्य जोड़ना चाहिए. अन्यथा वह आढतियों एवं दलालों के चंगुल से कभी नहीं छूट पाएगा. किसानों को अपनी फसलें बदल बदल कर बोनी चाहिएं ताकि मिट्टी से खनिज तत्त्वों का अनावश्यक दोहन न होने पाए तथा इसकी उर्वरा शक्ति अधिक समय तक बनी रहे.
यदि हमारा किसान शिक्षित एवं समझदार होगा तो वह कभी भी आत्महत्या जैसी घिनौनी बात नहीं सोचेगा. जो लोग बैसाखी के सहारे चलते हैं वे कभी भी अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते. हर प्राकृतिक आपदा के समय उसे सरकार की ओर ताकने की बजाय अपनी मदद खुद करनी होगी. ज़रा सोचिए, अगर सरकार सभी किसानों की घटिया फसलें पूरे दाम में खरीदने लगे तो एक दिन ऐसा आएगा कि कोई भी किसान अपनी फसल को भीगने से नहीं बचाएगा क्योंकि उसे इस बात का यकीन हो जाएगा कि सरकार उचित मुआवजा दे देगी. इसी तरह किसान को भी अपने खाने के लिए भीगी और बर्बाद फसल खरीदने की नौबत आ सकती है. अतः सरकारी सहायता के दुरुपयोग को भी रोकना होगा ताकि लोग जान-बूझ कर ही इसे प्राप्त न करने लगें. जिन लोगों को इसकी आवश्यकता है उन्हें इससे वंचित न रहना पड़े. यह सब आपसी सहयोग एवं तालमेल से ही संभव हो सकता है.

हमारी सरकार तो सभी नागरिकों हेतु कई कल्याणकारी योजनाएं चलाती ही है, उसी तरह किसानों को भी अपने उत्थान के लिए स्वयं आगे आना होगा ताकि वह छोटी-मोटी प्राकृतिक आपदा से स्वयं ही निपट सके. ये आपदाएं केवल किसानों को ही नहीं बल्कि हमारे देश के सभी लोगों को प्रभावित करती हैं. ऐसे में हम सब को आत्महत्या का विचार छोड़ कर हिम्मत से काम लेना होगा ताकि मौसम की मार को बे-असर किया जा सके!

उबाऊ टी.वी., पकाऊ मीडिया; ठगता रहेगा, बिकाऊ मीडिया!


व्यावसायिक होना बुरी बात नहीं है परन्तु जिस तरह हमारा टी.वी. मीडिया ख़बरों की मार्केटिंग कर रहा है, वह अवश्य ही निंदनीय है. पिछले दिनों बोट क्लब, दिल्ली में एक रैली हुई जिसमें कथित रूप से किसी किसान ने पेड़ पर लटक कर अपनी जान दे दी. हमारा टी.वी. मीडिया जोर-शोर से इस खबर का प्रसारण ही नहीं बल्कि यूं कहें कि सुबह शाम भोंपू की तरह इसका बखान करने में लग गया. ऐसा लगता था कि देश में इस खबर के अतिरिक्त कोई दूसरी खबर है ही नहीं. अगर कोई इनसे पूछे कि जब किसान आत्महत्या कर रहा था तो आप उसकी तस्वीरें उतारने में लगे रहे. क्या आपने उसकी जान बचाने की सोची? अगर चाहते तो मीडिया वाले ही उसकी जान बचा कर देश में सबकी वाह-वाही लूट सकते थे. परन्तु सवाल तो टी.आर.पी. का है न. क्या किसान की जान बचने से इनके चैनल हेतु कोई कहानी बन पाती? फिर अचानक नेपाल में भूकंप आया तथा हज़ारों लोग बेघर हो गए तथा कईयों को अपनी जान गंवानी पडी. मैं यहाँ ये स्पष्ट कर दूँ कि इस लेख का उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष या संस्था पर दोषा-रोपण करना कतई नहीं है. यह लेख तो केवल आत्मचिंतन एवं मंथन करने की कवायद भर ही है जिसे इसी परिपेक्ष्य में लिया जाना चाहिए.
यह ठीक है कि मीडिया को संवेदनशील होते हुए तुरंत ताज़ी ख़बरें लोगों तक पहुंचानी चाहिएं परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि सभी ख़बरों को सनसनीखेज तरीके से पेश किया जाए. ज़रा इसकी एक बानगी तो देखिए! नेपाल में भूकंप, कुदरत का कहर, वहाँ सबसे पहले पहुंचे हम, नेपाल की ताज़ा तस्वीरों के लिए देखते रहिए हमारा चैनल....! अब आप ही बताइए कि ये आप खबरें दे रहे हैं या उनके माध्यम से अपने चैनल का प्रचार कर रहे हैं? कई बार तो ऐसा लगता है कि आप प्राकृतिक आपदा को अपने ढंग से दिखा कर प्रभावित परिवारों के जख्मों पर नमक छिड़क रहे हैं. भूकंप-ग्रस्त क्षेत्रों में पहुंचे विभिन्न चैनलों के विडियो कैमरा ऑपरेटर चाहते हुए भी किसी की सहायता करने की बजाय मुसीबत में फंसे लोगों की टिप्पणियाँ ‘लाइव’ दिखाने लगते हैं. यह न केवल अशोभनीय है अपितु शर्मनाक भी है. पत्रकारों को ऐसे स्थान पर जाने हेतु विशेष अनुमति दी जाती है परन्तु ये लोग केवल ख़बरें दिखाने के बहाने रोते-बिलखते आपदा-ग्रस्त लोगों की तस्वीरें प्रसारित करने लगते हैं.
टी.वी. में समाचार देखने पर मालूम होता है कि पहले किसानों की आत्महत्या से संबंधी ख़बरों का सैलाब आया था फिर उसके बाद आम आदमी पार्टी की रैली का. फिर अचानक भूकंप आने से चैनलों ने नेपाल के भूकंप को ही अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने का माध्यम बना डाला. यदि हमारे न्यूज़ चैनल वाले वास्तव में राहत कार्यों में अपना योगदान देना चाहते तो और भी रचनात्मक ढंग से अपना सहयोग कर सकते थे. परन्तु ये लोग तो केवल वही काम करते हैं जिससे इनकी टी.आर.पी. बढ़ सके. आपने एक बात और नोट की होगी कि जब एक चैनल विज्ञापन दिखा रहा होता है तो अन्य चैनल भी विज्ञापन दिखाने की गंगा में हाथ ढो रहे होते हैं, अर्थात आप विज्ञापन देखने से किसी प्रकार नहीं बच सकते. वैसे तो इन सब चैनलों में कड़ी स्पर्द्धा है किन्तु विज्ञापन दिखाने के समय सभी ने एक जैसे ही निर्धारित किए हैं ताकि इनकी कमाई में कोई फर्क न पड़े.
ख़बरें देखते-देखते अचानक टी.वी. स्क्रीन के नीचे एक पट्टी पर लिखा होता है कि शाम सात बजे जानिए कि किस शहर में हुआ महिला का बलात्कार. कहाँ हुआ भीषण सड़क हादसा? उत्तर प्रदेश में ट्रेन को कैसे लूटा गया? एक कलर्क  ने किस प्रकार भ्रष्टाचार द्वारा अकूत धन-दौलत अर्जित की? जानने के लिए देखते रहिए हमारा न्यूज़ चैनल! अब आप ही बताइए कि ये समाचार चैनल हैं या ख़बरों को महिमा-मंडित करते हुए टी.आर.पी. के भूखे भेड़िए? इसका निर्णय मैं आप लोगों पर छोडता हूँ. सीमा पर लड़ते हुए हमारा जवान शहीद हो जाता है जिस पर राजनैतिक लोग बयानबाजी शुरू कर देते हैं. चैनलों को इस ‘शहादत’ की खबर में कोई दिलचस्पी नहीं परन्तु नेताओं के बयान बार-बार दिखाए जाते हैं ताकि समाचार को सनसनीखेज ढंग से पेश किया जा सके. फिर उसी शाम को स्टूडियो में कुछ विभिन्न दलों के नेताओं को बुला कर बहसबाजी की जाती है जिसका परिणाम लगभग शून्य होता है परन्तु इस बीच इनको विज्ञापनों से भारी-भरकम आय हो जाती है.
अगर न्यूज़ चैनल चाहें तो देश की विभिन्न समस्याओं पर राष्ट्रव्यापी बहस अपने माध्यम से करवा सकते हैं. इस तरह की बहस में अलग अलग राजनैतिक दल के व्यक्तियों को बुलाने की बजाय उस विषय से सम्बंधित विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों, समाजशास्त्रियों, सिविल अफसरों, एन.जी.ओ. आदि से सम्बंधित लोगों को ही आमंत्रित किया जाना चाहिए ताकि वे एक दूसरे पर आक्षेप करने की बजाय चर्चा में सकारात्मक रूख अपना सकें. इस तरह की राष्ट्रीय बहस से अवश्य ही समाज एवं देश का हित होगा. अगर चैनल वाले चाहें तो देश के दर्शकों की प्रतिक्रियाएं भी ले सकते हैं. किसी स्थान पर सड़क दुर्घटना देखने पर फ़ौरन सहायता पहुंचाने हेतु सम्बंधित अधिकारियों से संपर्क साधना चाहिए. ये लोग मीडिया के दर से अपना कार्य तत्परता से करने लगते हैं. इसी तरह बाढ़ग्रस्त एवं भूकंपग्रस्त क्षेत्रों में ये लोग अपना सूचना केन्द्र स्थापित कर सकते हैं जो सबकी सहायता करने हेतु बेहतर समन्वय स्थापित करने में अपनी महती भूमिका अदा कर सकता है. मीडिया चाहे तो लोगों को प्रभावित स्थानों हेतु सामग्री भेजने की अपील कर सकता है जो अभी तक किसी भी टी.वी. चैनल ने नहीं की है. अच्छा काम करने के लिए आपको टी.आर.पी. का लाभ तो नहीं मिलता परन्तु लोगों के दिलों में अवश्य ही आपका सम्मान बढ़ता है.

क्या इस देश में ख़बरों के नाम पर सब कुछ उबाऊ होता जा रहा है? ये लोग टी.वी. दर्शकों को कब तक पकाते रहेंगे? इस बिकाऊ मीडिया से कब मुक्ति मिलेगी? शायद इन सब प्रश्नों का उत्तर दर्शकों के पास भी नहीं है. न जाने कब तक इस देश के लोग ऐसे भौंडे मजाक को देखने के लिए ऐसे ही मजबूर होते रहेंगे!