My expression in words and photography

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

आओ पेड़ लगाएं

आओ हम सब पेड़ लगाएं  
जीवन एक आदर्श बनाएँ!   

कहीं भी जाएँ, कहीं से आएं
अपने पेड़ से मिलकर जाएँ
अपनी व्यथा जिसे कह पाएं
ऐसा जीवन-साथी बनाएं.
आओ हम सब पेड़ लगाएं
जीवन एक आदर्श बनाएँ!

पेड़ों से हरियाली आए
जीवन में खुशहाली आए
वर्षा लाएं, प्रदूषण मिटाएं
पेड़ हमारे बहुत काम आएं
आओ हम सब पेड़ लगाएं
जीवन एक आदर्श बनाएँ!

पेड़ों पर निर्भर सब पक्षी
शाकाहारी हों या परभक्षी 
पेड़ों की छाया में आकर
सब अपनी थकान मिटाएं
आओ हम सब पेड़ लगाएं   
जीवन एक आदर्श बनाएँ!

                  –अश्विनी रॉय ‘सहर’

ये संवेदनहीनता है या संवेदनशीलता?

हाल ही में नोबेल शान्ति पुरस्कार की घोषणा हुई है. नोबेल पुरस्कार समिति ने इस बार यह पुरस्कार स्वात घाटी पाकिस्तान की मलाला युसुफजई तथा भारत के कैलाश सत्यार्थी को दिया है. हमारी ओर से इन्हें इस उपलब्धि पर खूब बधाई हो!
नोबेल समिति ने अपने फैसले में यह भी उल्लेख किया है कि यह पुरस्कार एक हिन्दू व मुसलमान को संयुक्त रूप से दिया गया है. इसका क्या तात्पर्य हो सकता है? क्या शान्ति पुरस्कार देते समय भी हिन्दू और मुसलमान का ध्यान रखना आवश्यक है? क्या नोबेल समिति अधिक संवेदनशील हो गई है या फिर मानव-मानव में भेद करने पर अधिक संवेदनहीन हुई है? उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी जीवन-पर्यंत अछूतोद्धार हेतु संघर्ष करते रहे, परन्तु उन्हें कभी भी इस पुरस्कार के योग्य नहीं समझा गया. निःसंदेह आजकल किसी को भी कोई पुरस्कार मिलता है, तो वह बधाई का पात्र है. जाहिर है सभी भारतीयों को इस पर खुशी हुई होगी परन्तु इस पुरस्कार की पृष्ठ-भूमि क्या है? अगर हमारे देश में बच्चों का शोषण न हुआ होता तो क्या यह पुरस्कार किसी को मिल पाता? शायद ये लगभग असंभव ही था. इसी तरह मलाला युसुफजई पर जान-लेवा हमला न होने की स्थिति में भी यह पुरस्कार किसी भी हालत में घोषित न हुआ होता.
क्या हमारे संविधान में बाल-अधिकारों की सुरक्षा के लिए कोई कानूनी व्यवस्था नहीं है? यदि है तो क्या यह व्यवस्था पर्याप्त नहीं है? ऐसा क्यों होता है कि दीवाली के अवसर पर बनाए जाने वाले अधिकतर पटाखे हमारे बच्चे अपनी जान को जोखिम में डाल कर बनाते हैं? बाल-श्रमिकों से जोखिम भरे काम लेना न केवल गैर-कानूनी है अपितु अनैतिक भी है. फिरोजाबाद में मैंने बहुत से बाल श्रमिकों को चूड़ी उद्योग में अपने हाथ खराब करते हुए देखा है. यह अत्यंत शर्म की बात है कि हम अपने बच्चों से उनका बचपन छीनते जा रहे हैं. जो काम सरकार को सख्ती से क़ानून लागू करके करना चाहिए, उसे सामाजिक संगठनो द्वारा अपने स्तर पर करवाने की चेष्टा होती है. ध्यातव्य है कि अधिकतर बच्चे आज भी देश में बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं. यह हमारी संवेदनहीनता का ही परिचायक है.
अक्सर देखा गया है कि पहले हमारी संवेदनहीनता से गैर कानूनी कार्यों को बढ़ावा मिलता है फिर उन्हें छोड़ने व छुडवाने का प्रयास करने पर पुरस्कृत करके संवेदनशीलता का परिचय दिया जाता है. क्या कोई सरकार इस तरह मिलने वाले नोबेल पुरस्कार पर अपनी पीठ ठोक सकती है? यह कदापि सम्भव नहीं है. जब भी इतिहास में इस पुरस्कार का जिक्र होगा तो इसके साथ हमारे यहाँ बाल-श्रमिकों की दुर्दशा का भी बखान होगा! तो क्या हम इस तरह के पुरस्कार पर जश्न मना कर अपनी निंदा करवा सकते हैं? शायद हम इतने भी संवेदनहीन नहीं हैं. उल्लेखनीय है कि बहुत से विकसित देशों में इस प्रकार के कार्यों पर पुरस्कार देने की नौबत ही नहीं आती. जाहिर है वहाँ इस तरह के कार्य करना सभी नागरिकों का मूलभूत कर्तव्य है.

तो क्या नोबेल शान्ति पुरस्कारों का दायरा सीमित होकर रह गया है? इतिहास में कई बार ये पुरस्कार राजनैतिक एवं भूगोलिक कारणों से भी दिए गए हैं. इससे नोबेल निर्णय समिति की साख को अवश्य ही ठेस पहुंचती है. पहले कई विश्व-नेताओं को निरस्त्रीकरण एवं शान्ति को बढ़ावा देने के लिए नोबेल शान्ति पुरस्कार दिया गया था. यदि इन सबकी पृष्ठभूमि देखी जाए तो मालूम होगा कि ये लोग आरम्भ में तो अस्त्रों की दौड में भाग ले रहे थे और बाद में इस पर नियंत्रण करके वाह-वाही लूट ले गए. उल्लेखनीय है कि जब देशों में अस्त्र-शस्त्र की होड़ लगी, तो उन्हें बेच कर धन कमाया. जब सामरिक हितों की खातिर इन पर नियंत्रण करने की सोची तो नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर खूब मान-सम्मान पाया. क्या इन पुरस्कारों का कोई मानवीय औचित्य नहीं हो सकता? क्या नोबेल पुरस्कार समिति थोड़ा और संवेदनशील हो पाएगी?

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

ये कैसा बाज़ार!


आइए, आपका स्वागत है इस बाज़ार में! यहाँ सब कुछ बिकता है. आपको दुनिया की हर चीज़ यहाँ मिल सकती है सिवाय एक चीज़ के जिसका न कोई खरीदार है और न ही कोई बेचवाल. जब तक हम अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, आप इस विषय में सोचते रहिए.
आजकल के बाजारीकरण व्यवस्था में प्रायः हर वस्तु बिकने के लिए तैयार है. यह बात अलग है कि कीमत का निर्धारण इसकी आपूर्ति एवं माँग पर निर्भर करता है. अगर माँग ज्यादा हो और आपूर्ति कम, तो जाहिर है बाज़ार में इसके मुंह मांगे भी दाम मिल सकते हैं. उपभोक्ता संस्कृति के इस दौर में टी.वी., फ्रिज, एयरकंडीशनर, वाशिंग मशीन, स्कूटर, कार, बाइक और न जाने क्या-क्या खरीदना चाहते हैं लोग, लेकिन फिर भी खुश नहीं हैं. कारण स्पष्ट है कि रूपए से आप सामान तो खरीद सकते हैं, लेकिन खुशियां नहीं.
अगर कोई बीमार है तो उसे बाज़ार से दवाएं तो मिल सकती हैं, इलाज भी मिल सकता है लेकिन अच्छा स्वास्थ्य भी मिले, इस बात की कोई गारंटी नहीं. हमें उपभोक्तावाद ने आज मजबूत जंजीरों से जकड लिया है. लोगों में कोई प्रेम नाम की चीज़ दिखाई नहीं देती. हर व्यक्ति के पास मोबाइल फोन है मगर उसे इस पर भी बात करने की फुर्सत नहीं. रिश्ते, नाते, मित्र व सम्बन्धी आजकल जेब में हर समय मौजूद हैं, लेकिन वास्तव में वे सब बहुत दूर हैं. कहते हैं कि टेलीफोन व मोबाइल के आने के बाद ये दुनिया एक गाँव में तब्दील हो गई है और हर कोई एक दूसरे के करीब आ गया है. परन्तु हकीकत कुछ और ही है. हम मोबाइल के नज़दीक हैं लेकिन हमारे मित्र व संबंधी हमसे कोसों दूर हैं. हर रोज सोचते हैं कि कल आराम से बैठ कर उनसे बात करेंगे, लेकिन कल कभी आती नहीं और सिलसिला इसी तरह चलता रहता है. अगर कोई नाराज़ हो जाए तो हमें उसे मनाने की फुर्सत नहीं है. अगर मनाने की सोचें तो कोई दूसरी घंटी बजने लगती है और मामला जहां का तहां रह जाता है.
हमारी हालत यहाँ तक आ पहुंची है कि स्कूल में बच्चे अपने मां-बाप के स्थान पर किसी भी व्यक्ति को रूपए देकर अपना अभिभावक बना लेते हैं. जब बच्चे पूरी तरह से बिगड जाते हैं तो पता चलता है कि हम उपभोक्तावाद की दुनिया में किस तरह लापता हो गए थे. आज के युग में सभी रिश्ते-नाते बिकने लगे हैं. शादी हो तो आप भाड़े के बाराती इकट्ठे कर सकते हैं. मातम के लिए भी किराए पर लोग मिल जाते हैं. अगर कुछ नहीं मिलता तो वह है मानसिक शान्ति.
वर्तमान उपभोक्ता संस्कृति को कहीं तो रुकना पडेगा न! शरीर को आराम की इतनी गंदी लत पड़ गई है कि अब कुछ काम करने को मन ही नहीं होता. ज़रा सोचिए, इसके लिए आखिर कौन जिम्मेवार है? यह सही है कि कुछ आधुनिक यंत्र हमारे जीवन को आरामदेह बनाने के साथ कार्य को तेज़ी से कर सकते हैं परन्तु जल्दी काम निपटने की चाहत में हम अपने आपको भी नष्ट करते जा रहे हैं. कही ऐसा तो नहीं कि एक दिन हमारे स्थान पर मशीन आ जाए और हम कहीं पर भी मौजूद न हों!
एक खबर के अनुसार अमेरिका के एक घर का दरवाजा पिछले दस दिनों से बंद था. पड़ोसियों को भी इतनी फुर्सत नहीं थी कि इस विषय में कोई जानकारी लें. हाँ, कई बार उन्हें कोई संगीत की ध्वनि अवश्य सुनाई दे जाती थी. जब उस घर से बदबू आने लगी तो पुलिस को बुलाया गया. अंदर का दृश्य देख कर हर कोई हैरान था. सोफे की एक कुर्सी पर कोई कंकाल बैठा हुआ टी.वी. देख रहा था क्योंकि शरीर के सड़ने-गलने से अब केवल हड्डियों का ढांचा ही दिखाई दे रहा था. वह वृद्ध व्यक्ति अपने घर में अकेला ही रहता था. एक दिन टी.वी. देखते हुए उसकी मृत्यु हो गई और किसी को भी इस की खबर न हो सकी. इस सत्य कथा से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि हम अपनों की बजाए अब वस्तुओं पर अधिक भरोसा करने लगे हैं. यह अवश्य ही चिंतन का विषय हो सकता है.

आप अधीर हो रहे होंगे कि इस दुनिया में ऎसी कौन-सी चीज़ है जो नहीं बिकती. जी हाँ, आपका अनुमान सही है. वह चीज़ है ईमान. ईमान को न कोई खरीद सकता है और न ही बेच सकता है. ईमान सिर्फ अपनों के पास होता है. अगर अपने ही रूठ जाएँ तो सब कुछ बेकार हो जाता है. अतः हमें अपने अपनों का सम्मान करना चाहिए. हमारे उनके साथ सम्बन्ध हमेशा मधुर रहने चाहिएं. चीज़ें इस्तेमाल के लिए हैं इन्हें इस्तेमाल मे लाइए किन्तु इनके लिए अपनों का त्याग हरगिज़ न करें. चीज़ें बाज़ार से दुबारा भी खरीद सकते हैं लेकिन अपने सगे रिश्तेदार और संबंधी कहीं नहीं मिलते.