My expression in words and photography

रविवार, 2 अगस्त 2015

देश में सांप्रदायिक दंगों पर राजनीति


आज से बाईस बरस पहले मुंबई में बम विस्फोट हुए थे जिसमें बहुत-से लोगों की जाने गई तथा अन्य कई जख्मी भी हुए. यह मनुष्य का स्वभाव है कि उसे हर बुरी घटना को भुलाना ही पड़ता है क्योंकि आप इन्हें याद करके जीवन में आगे नहीं बढ़ सकते. हमारे देश की क़ानून व्यवस्था इतनी लचर है कि इन बम विस्फोटों के लिए जिम्मेवार व्यक्ति आज तक पकड़ में नहीं आए. कई अभियुक्त अब तक फरार हैं, जो पकड़ में आया उस पर कई साल मुकद्दमा चला तथा शीर्ष अदालत ने उसे फांसी की सजा सुनाई. अभियुक्त ने सज़ा कम करने के लिए राष्ट्रपति को अपील की, जो खारिज हो गई. उसे बचाव का पूरा मौका देते हुए अंतिम सुनवाई रात भर चली लेकिन अगली सुबह अपने फैसले में अदालत ने फांसी की सजा को कायम रखा और उसे फांसी दे दी गई. इस सज़ा पर देश भर में तीखी बहस शुरू हो गई कि फांसी की सज़ा मुनासिब नहीं थी. अभियुक्त को इस मामले में रहम का पूरी तरह हकदार बताया गया. मैं कोई क़ानून का जानकार तो नहीं हूँ लेकिन इतना अवश्य जानता हूँ कि यह फैसला कई बरसों तक मुकद्दमा चलने के बाद ही आया होगा.
अगर किसी अभियुक्त का धर्म देख कर रहम की अपील पर फैसला होता तो देश के मुस्लिम राष्ट्रपति किसी भी मुसलमान को फांसी पर नहीं चढ़ने देते और इसी तरह हिन्दू राष्ट्रपति सभी हिन्दुओं का अपने धर्म के अनुसार बचाव करते. लेकिन हमारे देश में ऐसा कभी नहीं हुआ. कुछ राजनैतिक लोगों द्वारा इस सज़ा की तीव्र आलोचना की गई. सबने अपने-अपने स्वार्थ में अंधे हो कर विवादास्पद एवं विरोधी बयान दिए. इस दौड़ में देश का न्यूज़ मीडिया भी पीछे रहने वाला नहीं था. कई टेलीविजन चैनल इस विषय पर दिन-रात चर्चा में लगे हैं कि क्या यह सज़ा न्यायसंगत थी? ख़बरों के अनुसार जिन लोगों के परिवार इन बम विस्फोटों से प्रभावित हुए उन्हें कुछ हद तक इन्साफ मिला परन्तु एक वर्ग ऐसा भी था जो इस फैसले से नाखुश था. यह पहली बार नहीं हुआ कि किसी फैसले पर देश के विभिन्न लोगों की राय में विभाजन हुआ हो. विचारों में मतभेद होना लोकतंत्र की विशेषता है. हमें विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता है किन्तु अपनी बातों से दूसरों को आहत करने का अधिकार किसी को भी नहीं मिला है. पूर्व में भी कोर्ट द्वारा दिए गए कई फैसलों की सार्वजनिक आलोचना होती रही है. ज़रा सोचिए कि अदालतों में न्याय करने वाले भी हमारी तरह इंसान ही हैं. ध्यातव्य है कि न्यायमूर्ति के सिंहासन पर बैठने के बाद कोई भी व्यक्ति स्वार्थ से प्रेरित होकर अपना फैसला नहीं कर सकता. फिर इस फैसले पर इतना विवाद क्यों? कुछ राजनैतिक दलों द्वारा इस मामले को बे-वजह तूल देने की कोशिश की गई है जो सर्वथा निंदनीय है.
कुछ मुस्लिम संगठनों ने यह कह कर विस्फोटों के अभियुक्त का बचाव किया है कि वह गुजरात के दंगों का बदला लेने के लिए ही ऐसा कर रहा था. यह चिंता का विषय है क्योंकि कई हिन्दू भी गुजरात के दंगों को गोदरा काण्ड की सहज प्रतिक्रिया मानते हैं. कुछ मुस्लिम संगठनों का तो यह भी कहना है कि मुसलमानों द्वारा किए गए दंगों पर तो तुरंत कानूनी कार्यवाही की जाती है जबकि हिन्दुओं द्वारा किए गए दंगों पर न्यायालय धीरे-धीरे कार्यवाही करते हैं. कुछ तथाकथित नेताओं से यह भी सुनने में आया है कि पहले बाबरी मस्जिद गिराने वालों और गुजरात में दंगा करने वालों को फांसी दो फिर किसी मुस्लिम अभियुक्त के खिलाफ कोई कार्यवाही हो! यह सुनने में बड़ा अजीब लगता है. अगर कुछ सिरफिरे लोगों ने कोई अपराध कर दिया तो उसकी सजा देश के अन्य लोगों को बिना मुकद्दमा चलाए कैसे दी जा सकती है? यह विचार किस तरह से तर्कसंगत हो सकता है? अगर किसी अमरीकी नागरिक का इराक में सर कलम किया गया है तो क्या अमेरिका वाले भी किसी इराकी को इसकी सजा देते हुए बदला लेंगे? यह भी दलील दी गई कि देश में फांसी की सज़ा को ख़त्म कर देना चाहिए. सभ्य समाज में फांसी की सज़ा होना सर्वथा अनुचित है. हम सब इस विचार से सहमत हैं. इसमें कोई शक नहीं कि सभ्य समाज में किसी भी व्यक्ति के प्राण न लिए जाएं परन्तु जो लोग बम विस्फोट द्वारा लोगों की हत्याएं करते हैं, क्या वह सभ्य समाज का काम है?
मुझे याद है कि वर्ष 1984 में एक सिख व्यक्ति द्वारा देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी की हत्या करने के बाद दंगे भड़के थे जिसमें हज़ारों सिखों की मौत हुई थी. हम यह भी जानते हैं कि आज तक किसी भी दंगाई को पकड़ा नहीं जा सका और न ही कोई प्रभावी मुकद्दमा चल पाया. यह समुदाय हमारी क़ानून एवं व्यवस्था से अत्यंत निराश हुआ है परन्तु इन्होंने कभी भी इसका बदला अन्य समुदायों से लेने की बात नहीं सोची. क्या यह इनकी महानता नहीं है? ऐसा करने से क्या ये लोग छोटे हो गए? हम सबको सिखों से सीख लेनी चाहिए. हमारा क़ानून अगर धीमा है तो इसके लिए हम सब जिम्मेवार हैं. हमारे वकील बार-बार तारीख आगे बढाते रहते हैं जिससे न्याय में देरी होती है. देश में भ्रष्टाचार के चलते लोगों को समय पर न्याय नहीं मिलता. लेकिन इस का अर्थ यह तो नहीं कि हम आपस में ही लड़ने लगें! देश में सरकार तो हमारी जनता ही चुनती है. अगर कोई राजनेता काम न करे तो उसे देश की जनता बाहर का रास्ता दिखा सकती है. कुछ मुस्लिम नेताओं का कहना है कि उनके धर्म के बहुत कम लोग संसद में पहुंचते हैं जिससे मुसलमान हर क्षेत्र में पिछड़ रहे हैं. जहां तक मुझे याद है कि देश में राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के पद तक पहुँचने वाले मुस्लिम उम्मीदवारों का समर्थन हिन्दुओं द्वारा ही होता आया है. इन सब पर हमें नाज़ है क्योंकि ये लोग स्वयं को सदा धर्म से अलग मानते थे. धर्म एक व्यक्तिगत मामला है जिसे केवल घर की चारदीवारी तक ही सीमित रखना चाहिए. कोई भी मनुष्य अपने सत्कर्मों द्वारा महान बनता है न कि अपने धर्म के कारण.
हमारे देश में सभी धर्म एवं सम्प्रदाय के लोग आज तक मिल-जुल कर रहते आए हैं. परन्तु इसकी गंगा-जमुनी तहजीब कई राजनीतिज्ञों को रास नहीं आ रही है. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि अगर इस फैसले की आलोचना करेंगे तो उन्हें आने वाले चुनावों में काफ़ी वोट मिल सकते हैं. वोटों की राजनीति ने हमारे लोकतंत्र की नींव को हिला कर रख दिया है. अतः देश की जनता की यह बड़ी जिम्मेवारी है कि इन स्वार्थी तत्त्वों पर ध्यान न देकर वे अपना भला-बुरा स्वयं सोचें तथा अपने हलके में सर्वोत्तम उम्मीदवारों का ही चयन करें. हमारे जनप्रतिनिधि चाहे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के हों, वे अपने हलके के विकास पर ही ध्यान देंगे. कोई भी विधायक या सांसद अपनी जाति या धर्म को देख कर काम नहीं करता. इसी तरह उसे जीत दिलवाने वाले लोग केवल एक मजहब या जाति के नहीं बल्कि पूरे समाज से होते हैं. मैं एक आम आदमी हूँ. मेरा धर्म मेरा राष्ट्र है जिससे मैं प्रेम करता हूँ. जब नौकरी पर जाता हूँ तो अपने परिवार को भुला देता हूँ और जो भी काम राष्ट्र हित में है, वही करता हूँ. इसी तरह हमारा मतदाता जब वोट डालने जाता है वह केवल अच्छे उम्मीदवारों का ही चयन करता है. वह उम्मीदवार की जाति या धर्म के बारे में कुछ नहीं सोचता.
अदालतों में हमारे न्यायधीश बिना पक्षपात के अपना कार्य करते हैं. देश का किसान सभी जातियों एवं धर्म के लोगों के लिए फसलें, सब्जियां एवं अन्न पैदा करता है. जब हम रक्तदान करते हैं तो हमारी जाति या धर्म का कोई उल्लेख नहीं होता. कोई भी रक्त हिन्दू, मुसलमान, इसाई या बौद्ध धर्म के लोगों के लिए उपयुक्त हो सकता है. इसी तरह अपराध करने वाले व्यक्ति किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय से हो सकते हैं. अपराध का कोई धर्म या जाति नहीं होती. अपराध केवल अपराध होता है और अपराधी सदैव दंड का भागीदार बनता है. हमें इस विषय पर किसी भी अनावश्यक बहस में नहीं उलझना चाहिए. किस व्यक्ति को कब और कितना दंड मिलेगा, वह उस मामले के साक्ष्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है. हमारे कहने से किसी व्यक्ति को कोई सज़ा नहीं मिल सकती और मिलनी भी नहीं चाहिए. आखिर देश में क़ानून का जो राज है! अगर किसी व्यक्ति को हमारी न्याय व्यवस्था पर विश्वास नहीं है तो वह अपने सुझाव दे सकता है. क़ानून बनाने के लिए संसद है और संसद का चुनाव जनता करती है. अगर हमारी न्याय प्रणाली सर्वोत्तम नहीं है तो भी कई देशों की न्याय व्यवस्था से श्रेष्ठ अवश्य है. इसमें जो भी खामियां हैं, वे हम सबके निहित स्वार्थों के कारण ही हैं.

हम अदालतों में अपने अल्पकालिक हितों के कारण मुकद्दमों को लंबा खींचते रहते हैं. कई बार अदालतों को सब का सहयोग नहीं मिलता. देश की जनसंख्या में वृद्धि के अनुसार अदालतों की संख्या नहीं बढ़ पाई है. मुकद्दमों की संख्या कई गुना बढ़ गई है तथा अक्सर फैसला आने में विलम्ब होता है. अगर हम सब मिलकर सहयोग करें तो अपनी न्याय व्यवस्था को और भी अधिक बेहतर बना सकते हैं. लोकतंत्र में हर समस्या का समाधान संभव है. हमें सहनशीलता से अपनी बात आगे बढानी चाहिए. आपस में वैमनस्य एवं राग-द्वेष फैला कर कोई भी देश अथवा समुदाय तरक्की नहीं कर सकता. कठिन परिस्थितियों में मिल-जुल कर सभी विपत्तियों का सामना किया जा सकता है. आजादी से पहले हमारा देश छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था जहां के राजा आपस में लड़ते रहते थे. अंग्रेजों ने हमारी फूट का लाभ उठा कर सौ बरस तक राज किया. क्या हम आपस में लड़-झगड़ कर स्वयं को कमज़ोर कर लें? हमारी ओर पूरी दुनिया की नज़र लगी है. अतः हमें कोई भी काम ऐसा नहीं करना चाहिए कि शत्रु देश हमारी कमजोरियों से लाभ उठा ले. यह देश हम सबका है तथा हम सबको मिलजुल कर ही आगे बढ़ना होगा.