My expression in words and photography

गुरुवार, 31 जनवरी 2013

गज़ल


इसलिए दिल परेशान है
हर तरफ इक बियाबान है.

अपने चेहरे, सजाए रहो
आइनों की ये दुकान है.

आदमी कह रहे हो जिसे
वो तो हिन्दू-मुसलमान है.

वो जो महफूज़ खुद ही नहीं
वो हमारा निगहबान है.

वो कभी खुद नहीं झाँकते
उनका अपना गिरेबान है.

तुम हो मालिक रियाया हैं हम
ये भी क्या वक्त की शान है.
-साभार, “रौशनी महकती है” श्री सत्य प्रकाश शर्मा के असरे कलम से.

गज़ल


ये ज़िंदगी का मुकद्दर है क्या किया जाए
क़जा का वक्त मुक़र्रर है क्या किया जाए.

हर इक निगाह के अन्दर है क्या किया जाए
बहुत डरावना मंज़र है क्या किया जाए.

हसीन से भी हंसीतर हैं क्या किया जाए
तेरे ख़याल का पैकर है क्या किया जाए.

हर एक शख्स के दिल में है ख्वाहिशों का हुजूम
तलब सभी की बराबर है क्या किया जाए.

ये जान जिस्म से हो सकती है जुदा लेकिन
ये मेरी रूह के अन्दर है क्या किया जाए.

जो गीत दारो-रसन का न गा सका कोई
वो सिर्फ़ मेरी जुबां पर है क्या किया जाए.

वो जिसके नाम से मैं बदनाम हुआ था कभी
फिर उसका नाम ज़बां पर है क्या किया जाए.

वो जीस्त मैं जिसे सहरा समझ रहा था ‘ज़हीन’
मुसीबतों का समन्दर है क्या किया जाए.

असरे-कलम - श्री बुनियाद हुसैन ज़हीन बीकानेरी

सोमवार, 28 जनवरी 2013

महँगाई


तेज़ी से बढ़ने लगी जालिम महँगाई आज

घर कैसे बन पाएगा, महँगा हो गया व्याज.


महँगाई के दंश से हम कैसे बच पाएंगे

हर घर अब परेशान है पीड़ित हुआ समाज.


आने-जाने का सफर भी महँगा हुआ तमाम

कैसे कोई कर पाएगा बाहर जाकर काज.


बीवी आज गरीब की करती चीख पुकार

कैसे चूल्हा जलेगा और कैसे बचेगी लाज.


कैसे बन पाएगी ‘सहर’ सब्जी अपने घर

कैसे रोटी खाएंगे जब महँगा हो गया प्याज.

सोमवार, 21 जनवरी 2013

दोस्त



जब मेरे आगे से कोई शख्स गुज़र जाता है

हर इक चेहरे में तेरा अक्स नज़र आता है.

भूलने की तो कोई शर्त हो नहीं सकती

जितना भूलूँ उसे उतना मुझे याद आता है.

दिल से निकली हुई फ़रियाद सुनी जाएगी

हादसा जो हुआ बेवक्त वो याद आता है.

तन्हाई में दिया था साथ, मैंने कल जिसका 

वो मेरा दोस्त है, अक्सर मुझे भूल जाता है.

क्या करें उससे शिकायत ज़रा बतलाओ ‘सहर’

अपना साया भी बुरे वक्त में छोड़ जाता है.

मौसम-ए-बहार



मौसम-ए-बहार है या नज़र का जादू
अब आप और भी खुशनुमां हो रहे हैं.

फज़ा में हैं महक औ’ रौनाइयां
हर तरफ गुल-ए-गुलज़ार हो रहे है.

चलो भूल जाएँ हम कल की बातें
नए जज़्बात हर घड़ी रौशन हो रहे हैं.

किसी खिजाँ से अब डर नहीं लगता
अहले-गुलशन में नए फूल खिल रहे हैं.

शीराज़-ए-हयात टूटने को है ‘सहर’
फिर भी ये फूल हर सूं मुस्कुरा रहे हैं. 

गज़ल


ज़ह्नो-दिल आज तक मुअत्तर हैं

कितनी दिलकश थी रात फूलों की.


रूह को ताजगी-सी मिलती है

जब भी होती है बात फूलों की.


रंग, खुशबू, बहार और निकहत

है अजब कायनात फूलों की.


अब तो पूरे शवाब पर है बहार

देखनी है बरात फूलों की.


गुलिस्तां को उजाड़ने वाला

अब भी करता है बात फूलों की.


खिलना और खिल के ख़ाक में मिलना

बस ! यही है हयात फूलों की.
                           असरे-कलम - श्री बुनियाद हुसैन ‘ज़हीन’ बीकानेरी

बुधवार, 16 जनवरी 2013

गज़ल


आज फिर मेरा दिल उदास हुआ है

पान्ड़ुओं को कोई अज्ञातवास हुआ है.

बे-ईमानों के हो गए यहाँ पौ बारह

शरीफों को फिर कारावास हुआ है.

बोलते हैं सब धारा-प्रवाह में लेकिन

राजभाषा का फिर भी ह्रास हुआ है.

खेल सियासत का ज़रा देखो यारो

आम शख्स फिर यहाँ खास हुआ है.

मतलब का है बर्ताव सारी दुनिया में

बे-मतलब न कोई यहाँ दास हुआ है.

किया हमसे किनारा अपनों ने ‘सहर’

दोस्त इक दूर का मगर पास हुआ है.

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

एक शख्स



ज़हन तो हक़ की बात करता है

मगर दिल उसकी कहाँ सुनता है.

नफरत की भला सोचे यहाँ कैसे

मोहब्बत को वक्त कहाँ मिलता है.

बे-पनाह मोहब्बत है हमें उससे

नफरत जो शख्स यहाँ करता है.

याद आता हूँ ख्यालों में अक्सर उसको

भूलने की कोशिश जो बारहा करता है.

खो गया वो मेरी ज़िंदगी से आखिर

ख्यालों में हमेशा जो परेशाँ करता है.

दिले-नादां न जाने क्या कहता है ‘सहर’

पागल है वो जो खुद पे गुमाँ करता है.