My expression in words and photography

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

नूतन वर्ष अभिनन्दन

नया साल मनाएँ

गए साल की बीती यादें
एक नया इतिहास बनाएँ
आओ हम सब मिल-जुल कर
यह नया साल मनाएँ.

जब चहुँ ओर हरियाली होगी
देश में तब खुशहाली होगी
जन-जन के जीवन को हम
एक सुखमय आदर्श बनाएँ
आओ हम सब मिल-जुल कर
यह नया साल मनाएँ.

स्वास्थ्य जीवन रक्षक होगा
स्वाध्याय हमारा लक्ष्य होगा
ऊँच-नीच के भेद मिटाकर
एक नया समाज बनाएँ
आओ हम सब मिल-जुल कर
यह नया साल मनाएँ.

समय तो यूँ ही चलता रहेगा
जो दुःख कल था कल न रहेगा
नए साल की पहली सुबह का
एक अभिनन्दन गान हम गाएँ
आओ हम सब मिल-जुल कर
यह नया साल मनाएँ.

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

दो लघु कविताएँ

मैं कौन हूँ ?

उसने पूछा
मुझसे
तुम कौन हो ?
मैंने कहा
आप बहुत अच्छे हैं !
मगर मैं वो नहीं
जो आप हैं.

आप अपने
व्यक्तित्व से
स्वयं को घटा दें
बस्स ...
जो अधिशेष है
वह मैं हूँ.!

नारी

नारी
अर्धांगिनी है...
पुरुष का
एक श्रेष्ठतर भाग
अगर
काम न आए
तो
बहुत बुरा.

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

बिना झोली का फकीर

श्वान
क्या आपने
देखा है कभी
कोई
बिना झोली का
फकीर
मैंने आज ही
देखा है उसे
फिर किसी की
चौखट के बाहर
बेसब्री से
ठंड में बैठे
इंतज़ार करते हुए
शायद कोई
डाल दे उसे
कुछ खाने को

सर्दी में
भूखा होने पर भी
इनको
रोटी के
एक टुकड़े की खातिर
करनी पड़ती है
भारी मशक्कत
खानी पड़ती हैं
दर दर की
ठोकरें
आसमाँ की
छत तले पलते हैं
इनके बच्चे

खदेड़ा जाता है
इनको
हर चौखट से
शायद
यही लिखा है
इनके मुक़द्दर में
ये हैं हमारी
गली के श्वान
जिन्हें लोग
कहते हैं
आवारा कुत्ते.

रविवार, 19 दिसंबर 2010

अंतरजाल पर ब्लॉग्गिंग

हम किधर जा रहे हैं ?
आज जहाँ भी देखो कोई किसी की बात सुनने को तैयार ही नहीं है. लोगों में असहिष्णुता इतनी अधिक बढ़ गई है कि छोटी छोटी बातों पर झगड़ने लगते हैं. अंतरजाल पर ब्लोगिंग के प्रचार एवं प्रसार से लोग अपने अंदर छुपी हुई अनुभूतियों को शब्दों में बयान करते हुए अक्सर देखे जा सकते हैं. कई लोगों की मान्यता है कि वो जो भी लिखते हैं वही सही है. ये लोग अपना लेखन लोगों को पढ़वाना तो चाहते हैं परन्तु कोई इस पर टीका-टिप्पणी करे, यह उन्हें कबूल नहीं है. आज जो भी पढ़ने की सामग्री अंतरजाल पर उपलब्ध है वह शब्दों या स्वर के माध्यम से दी गई है. दोनों में ही अपनी अपनी मर्यादाएं हैं. यदि यह स्वर है तो सुर का ख्याल रखना होगा नहीं तो सुनने वालों को ये बेसुरा लगेगा. अगर कोई व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से करता है तो उसे भाषा एवं व्याकरण के नियमों के अनुसार तो चलना ही होगा. लेकिन वर्तमान युग के लेखकों को यह कतई स्वीकार्य नहीं है कि कोई उनके लेखन में व्याकरण सम्बंधी दोष निकाले. अगर दोषारोपण सही भी है तो भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अशुद्ध लेखन को महिमा मंडित करने से बाज़ नहीं आते. ऐसा करने से शुद्ध लेखन में विश्वास करने वाले लोग तो निरुत्साहित होते ही हैं किन्तु इस प्रक्रिया में भाषा का भी कुछ भला नही होता. प्रस्तुत लेख का उद्देश्य किसी को भी व्याकरण ज्ञान देना नहीं है. लेकिन इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि अगर आपको अपने लेख पर किसी की भी टिप्पणी स्वीकार्य नहीं है तो इसे ब्लॉग पर देने की क्या आवश्यकता है? खुद पढते रहो और खुश रहो! अन्यथा ऐसे लेखक अपनी सामग्री अखबारों या रिसालों में छपवा सकते हैं जिन्हें पढ़ कर लोग रद्दी में फेंक देते हैं. अगर देखा जाए तो ब्लोगिंग किसी भी भाषा के विकास में एक महती भूमिका निभा सकती है.

तो क्या लोग ब्लॉग्गिंग का उपयोग अपने मन की भडांस निकालने के लिए अधिक करने लगे हैं? शायद यह बात किसी हद तक सही भी है. परन्तु उन्हें ऐसा करते समय तथ्यों एवं अर्थपूर्ण तर्कों का सहारा लेना चाहिए. बिना किसी तथ्य के किसी को सही या गलत बताने की प्रवृति से बचना चाहिए. ब्लॉग पर लोग आपके विचारों को जानना चाहते हैं और शायद पढ़ना भी. परन्तु अगर आपकी विचारधारा पाठकों के मानकों पर खरी न उतरे तो वे आपको तुरंत छोड़ भी सकते हैं. अतः लिखते समय यथा संभव संयम बरतें क्योंकि आपके चाहने वाले आपको बड़ी बारीकी से देख रहे होते हैं. हमारी सभ्यता शुरू से ही हमें आदर और स्नेह से बात रखने की प्रेरणा देती आई है. वाल्टेर ने कहा था कि हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत नहीं होऊं परन्तु आपके विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता की सदैव रक्षा करूँगा. दूसरों की बात को ध्यान से सुन कर उस पर प्रतिक्रिया देनी चाहिए. परन्तु कभी भी ऐसी प्रतिक्रिया को व्यक्तिगत न लें. अगर कोई व्यक्ति कविता, गज़ल या दोहे लिखता है तो उसके लेखन को एक बड़ा वर्ग तभी स्वीकार कर पायेगा जब यह लेखन शुद्ध हो ....व्याकरण के नज़रिए से भी और हाँ, साहित्य की गुणवत्ता के आधार पर भी इसे खरा उतरना होगा. वरना इसके लिए प्रतिकूल टिप्पणियों का सामना करना पड सकता है. आप जब भी कोई टिप्पणी दे वह रचना के सन्दर्भ में ही होनी चाहिए. रचनाकार के सम्बन्ध में कोई भी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए. कभी कभी ऐसा भी देखा गया है कि लोग टिप्पणियों पर ही अपनी अनावश्यक टिप्पणियाँ देने लगते हैं. ऐसा करने से ब्लॉग जगत में अराजकता जैसी स्थिति पनपने लगती है जिसे शालीनता से दूर किया जा सकता है. उल्लेखनीय है कि ब्लॉग लेखन में सहमति या असहमति से न तो किसी की जीत होती है और न ही हार. विवाद पैदा करने से कुछ नही मिलता ...सिवाय इसके कि लोग आपकी हरकतें देख कर आपको घूरने लगते हैं. अगर आपको किसी से नफरत है तो आप ब्लॉग पर ही न आयें. क्योंकि अगर ऐसा व्यक्ति ब्लॉग पर आकर कुछ लिखता है तो इसमें उसका स्वार्थ और शायद अहम अधिक आड़े आता है.

कहते हैं नफरत का सफर एक कदम दो कदम, आप भी थक जायेंगे और हम भी. मोहब्बत का सफर कदम दर कदम, न आप थकेंगे न हम. एक और महत्वपूर्ण बात भी यहाँ कहना यथोचित रहेगा कि बा अदब, बा नसीब. बे अदब बे नसीब. अर्थात जो आदर से व्यवहार नहीं करता उसका भाग्य भी उसके साथ नही रहता. अंतरजाल पर ब्लॉग लिखना एक सरल तथा सुन्दर कला है. कोई व्यक्ति अपनी अनुभूतियों को दूसरों के समक्ष लाकर संतोष का अनुभव करता है. परन्तु इस माध्यम से अगर कोई व्यक्ति वैमनस्य या घृणा का वातावरण सृजित करने लगे तो यह निंदनीय होने लगता है. आओ हम सब मिलकर यह प्रण करें कि हम अंतरजाल पर एक स्वस्थ एवं मनोरंजक परम्परा के ही वाहक बनेगे. अगर कुछ लोग इसमें सहयोग नहीं भी करना चाहें तो भी उनपर कोई ध्यान न देकर उन्हें यथासंभव हतोत्साहित करें. ऐसा करने से ब्लॉग जगत में न केवल अच्छे साहित्य का सृजन होगा अपितु लोगों को पढ़ने के लिए अच्छी सामग्री मिल सकेगी.

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

सुकूँ की तलाश

सुकून
मैंने देखा है
सुकूँ की तलाश में
भटकते हुए
लोगों को
न जाने कहाँ कहाँ
चंद हसरतों को
पूरा करके
समझ लेते हैं
कि उन्हें
मिल गया है
सुकून
शायद वो
सही नहीं हैं

बहुत कुछ
चाहते हैं लोग
अपनी जिंदगी से
लेकिन अंतहीन
ख्वाहिशों की
इस दौड़ में ही
खत्म हो जाती है
ये जिंदगी
फिर भी
नहीं मिलता
उनको सुकून

क्योंकि
सुकूँ तो
उसमें है जो
अपने पास है
और जो
अपना ही नहीं है
उसको
हासिल करके भी
कैसे मिल पायेगा
सुकून

रविवार, 12 दिसंबर 2010

देश में सार्वजनिक छुट्टियों का औचित्य

छुट्टियाँ...न बाबा न !
सार्वजनिक अवकाश के दुष्प्रभावों से आज कौन अनजान है? यदि किसी नेता का जन्म दिन है तो छुट्टी और अगर मृत्यु हो जाए फिर छुट्टी ! धार्मिक त्योहारों के नाम पर तो छुट्टियों की कोई सीमा ही नहीं है. हम ने कई राष्ट्रीय दिवसों को अवकाश घोषित कर रखा है. कई नेताओं की जन्म और पुण्य तिथि राष्ट्रीय अवकाश के रूप में हमारे बीच उपस्थित है. अगर देखा जाए तो जब-तब कोई न कोई छुट्टी आ ही जाती है. यदि हम अपने कार्य दिवसों पर नज़र दौडाएं तो पता चलेगा कि इनकी संख्या पूरे साल के एक तिहाई के बराबर भी नहीं है! हम सब इस बीमारी से किसी न किसी प्रकार जूझते ही रहे हैं.
जिन लोगों की रोज़ी-रोटी सरकारी कार्यालयों के बाहर चाय एवं जल-पान के ठेले लगा कर चलती है ...उनकी तो जान को ही बन आती है. पेट तो खाने को मांगता है. उसे क्या मालूम कि सरकारी अवकाश किस चिड़िया का नाम है? अगर एक या दो छुट्टी के साथ कोई बड़ी दुर्घटना या हड़ताल जुड़ जाए तो फिर एक और छुट्टी घोषित होते देर नहीं लगती. सरकारी कार्यालयों में काम न होने से हमारी जनता कितनी परेशान होती है, इसका शायद वही अनुमान लगा सकता है जो भुक्त-भोगी हो. लोग बैंकों से लेन-देन नहीं कर पाते और बहुधा चेक भुगतान के लिए कई दिन तक बैंकों में ही लंबित पड़े रहते हैं.
विश्व के आर्थिक दृष्टि से संपन्न देशों को अगर बारीकी से देखा जाये तो पता चलेगा कि वहाँ सार्वजनिक अवकाशों की संख्या न्यूनतम है. बिना किसी सटीक कारण के वहाँ कोई काम नहीं रुकता. राष्ट्रीय उत्पादकता में जबरदस्त गिरावट आ जाती है. देश में एक दिन काम रुकने से कई दिन तक इसकी भरपाई नहीं हो पाती. यह सब जानते हैं कि अगर हम दो दिन काम न करें तो तीसरे दिन हमारा शरीर भी निकम्मेपन का शिकार हो जाता है और इसे काम करने में तकलीफ होने लगती है. परन्तु हम में से कितने लोग वास्तव में इसके बारे में सोचते हैं?
तो क्या यह सरकार का दायित्व है कि वह सार्वजनिक छुट्टियों में कमी करे? क्या यह हमारे देश की वोट बैंक नीति नही है जो साल दर साल सार्वजनिक छुट्टियों में इज़ाफा करती जा रही है? क्या हमें राष्ट्र के बेहतर हित को ध्यान में रखते हुए इन छुट्टियों से किनारा नहीं कर लेना चाहिए? क्या हम साल में दो या तीन दिवसों को राष्ट्रीय गौरव के रूप में अवकाश रख कर काम नहीं चला सकते? क्या ऐसे भारत की संकल्पना असंभव है जो दिन में चौबीस घंटे काम कर सके? क्या हम वर्ष-भर अपने कार्यालयों एवं फेक्ट्रियों में काम होते नहीं देखना चाहते?
वास्तव में अगर देखा जाए तो इन छुट्टियों की छुट्टी कर देने के बहुत से लाभ हैं जो प्रत्यक्ष भी हैं और अप्रत्यक्ष भी. केवल छुट्टियों के दिनों में देश के लाखों बेरोजगार युवकों को काम मिलने से बेरोज़गारी पर तो अंकुश लगेगा ही..साथ में जो राष्ट्रीय उत्पादकता में अभिवृद्धि होगी उसका सहज अनुमान लगाना भी कठिन है. सरकारी कर्मचारियों को छुट्टी देने का कोई विरोध नहीं है बल्कि विरोध तो पूरे कार्यालयों को बंद रखने का है. लोगों को आकस्मिक अवकाश भी दिया जा सकता है और कार्यालयों में काम भी निर्बाध रूप से चलता रह सकता है. मगर यह सब हमारी सकारात्मक सोच पर ही निर्भर करता है.
क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं? अगर हाँ तो आइये हम सब मिलकर इस राष्ट्रीय बहस को किसी तर्क संगत अंजाम तक पहुँचाने की कोशिश करें. आखिर राष्ट्र-हित में ही तो हम सब का हित है. है कि नहीं !

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

आतंकवाद

दहशतऽऽऽ...!

जब कोई शख़्स
फैलाता है दहशत
तो भूल जाता है
कि उसने

कर दिया है ख़ून-
न सिर्फ़
अपनी माँ-बहन
भाई और बाप का,
बल्कि क़त्ल किया है
अपने ज़मीर का...!
उसे नहीं मालूम कि
कैसी दिखाई देगी
ये वहशत
ज़िंदगी के आईने में...?
शायद
इसी गफ़लत में
वह फैलाता
जा रहा है
दहशत-पर-दहश्त !

आतंकवाद

आतंक
इसका चेहरा बड़ा भयानक
जैसे हो कोई खलनायक
दुनिया भर में इस का जाल
कई देशों में इनकी ढाल.

आतंकवाद की कोई न सीमा
सब का चैन है इसने छीना
इसने कितनों के घर जलाए
आई मुसीबत बिना बुलाए.

हवाई जहाज़ अपहरण कराए
मासूमों के सपने चुराए
इसका नहीं कोई भी मजहब
आतंक फैलाना इसका मकसद.

सब मिलकर आवाज उठाएँ
दुनिया भर से इसे मिटाएँ
जब कोई संरक्षक न होगा
तब कैसे ये भक्षक होगा ?

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

माया ने ऐसा भरमाया

माया
माया ने ऐसा भरमाया
आँख खुली तो समझ में आया
कौन है अपना कौन पराया
माया ने ऐसा भरमाया.

अपने घर में भी थी रोटी
अच्छी लगती थी ऊँची कोठी
लालच ने तब जोर लगाया
और हम से स्वदेश छुडाया.
माया ने ऐसा भरमाया
आँख खुली तो समझ में आया
कौन है अपना कौन पराया.

धन दौलत अब राज करेगा
कल ना किया सो आज करेगा
इसने अपनों से दूर कराया
कुछ ऐसा भ्रम-जाल फैलाया.
माया ने ऐसा भरमाया
आँख खुली तो समझ में आया
कौन है अपना कौन पराया.

स्वार्थ में इसने अंधा बनाया
अंतर्मन से लज्जित करवाया
इसने हमको कपट सिखाया
मित्रों ने फिर दगाबाज़ बताया.
माया ने ऐसा भरमाया
आँख खुली तो समझ में आया
कौन है अपना कौन पराया.

माया महाठगिनी हम जानी
पर हम ने की थी मनमानी
इसी को अपना मीत बनाया
जो चाहा सो करके दिखाया.
माया ने ऐसा भरमाया
आँख खुली तो समझ में आया
कौन है अपना कौन पराया.
माया ने ऐसा भरमाया.

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

एक पेड़

पेड़ और हम
मेरे घर के सामने
खड़ा है एक पेड़
देखने में सुन्दर
हरा भरा और शान्त
न जाने
कब से खड़ा है
इसने
हमारे पुरखों को
ज़रूर देखा होगा
शायद वो सब भी
खेले होंगे
इसकी छाया में

सब कुछ
बदल गया है आज
यहाँ पर रहने वाले लोग
इस पेड़ के पत्ते और डाली
अगर कुछ नहीं बदला तो
वह है इसकी छाया
मुफ्त में बाँटता है सबको
और देता है सुकून
चाहे मौसम सुहाना हो
या तपता हुआ जून
कितने बदल गए हैं
हम लोग
अपने पड़ोसियों को
कभी नहीं मिलते
बिना मतलब के
कोई बात नहीं करते
शायद
एक दूसरे को देख
खुश भी न होते हों

हम को भी
पेड़ जैसा बना दो न
हे सर्वशक्तिमान ईश्वर !
मिलजुल कर रहें
सब खुश
एक ऐसा दो हमें वर
बाँटें सबको प्राण वायु
और मिटा दें
धरती का प्रदूषण
फिर निर्मल बने
यह वातावरण
एक दूजे को देख
यूं मुस्कुराएँ
अगली पीढ़ी भी
हमें न भूल पाए !

खून सफ़ेद हो गया है

रिश्ते
कहते हैं
रिश्तों में
दरार आ रही है
आजकल
रिश्ते टूट रहे हैं
भाई को भाई से
बहिन को भाई से
बच्चों को माँ बाप से
प्यार नहीं रहा
कहते हैं
खून सफ़ेद हो गया है
सबका
क्या वास्तव में ऐसा है
बिल्कुल नहीं
खून का रंग तो
लाल ही है
चाहे जब देख लो
तो क्या खून की
गरमी कम हुई है
ऐसा भी नहीं
तो फिर
क्या माजरा है ये सब
शायद दिल में
कुछ खोट है
हमारी सोच में
कोई पाप है
जो हर शय
खोटी लगती है
गंगा जल में
नहाने से तो
धुलता है
केवल तन
फिर भला कैसे
निर्मल होगा मन
जब तक मन का
पाप नहीं धुलेगा
तब तक नहीं होगा
ये मन उजला
और लगेगा कि
खून सफ़ेद है
क्योंकि
सोच पर चढ़ा है
स्वार्थ का चश्मा
जो दिखाता है
सब कुछ सफ़ेद
लाल खून भी
सफ़ेद...