दहशतऽऽऽ...!
जब कोई शख़्स
फैलाता है दहशत
तो भूल जाता है
कि उसने
कर दिया है ख़ून-
न सिर्फ़
अपनी माँ-बहन
भाई और बाप का,
बल्कि क़त्ल किया है
अपने ज़मीर का...!
उसे नहीं मालूम कि
कैसी दिखाई देगी
ये वहशत
ज़िंदगी के आईने में...?
शायद
इसी गफ़लत में
वह फैलाता
जा रहा है
दहशत-पर-दहश्त !
अश्वनी कुमार रॉय जी,
जवाब देंहटाएंनमस्कारम्!
एक लम्बे अरसे के बाद आ पाया हूँ यहाँ पर...!
इस रचना में समसामयिकता का धर्म निभाने के लिए धन्यवाद!
हर दहशत-गर्द क़त्ल करने से पहले अपने ज़मीर का क़त्ल कर चुका होता है...इस प्रकार वह एक क़त्ल करने पर दो हत्याओं का अपराधी होता है।
...और यदि इससे भी आगे बढ़कर विचार किया जाए, तो उसका अपराध सिर्फ़ दो हत्याओं तक ही सीमित नहीं किया जा सकता; वह किसी माँ की गोद सूनी कर बैठता है, किसी बहन का भाई छीन लेता है...तो किसी पत्नी की माँग का सिंदूर पोंछ ले जाता है।
इस रचना ने मेरे चिंतन को कुरेद दिया है...अब लगता है कि शाम तक इस विषय पर कुछ मैं भी लिखूँ...पोस्ट न सही, तो डायरी में ही सही!
अश्विनी जी ...
जवाब देंहटाएंउसे नहीं मालूम कि
कैसी दिखाई देगी
ये वहशत
ज़िंदगी के आईने में...?
शायद
इसी गफ़लत में
वह फैलाता
जा रहा है
दहशत-पर-दहश्त !
सटीक प्रस्तुति....ज़मीर को मार कर ही कोई इस तरह वहशत का गुलाम बन पाता है.... शब्दों का खूबसूरत प्रयोग...
जौहर साहेब और मुदिता जी,
जवाब देंहटाएंआपको कविता पसन्द आई इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद. ईश्वर न करे कि जिन परिस्थितयों यह कविता लिखी गई थी वे दोबारा कभी भी आएं.