My expression in words and photography

रविवार, 12 दिसंबर 2010

देश में सार्वजनिक छुट्टियों का औचित्य

छुट्टियाँ...न बाबा न !
सार्वजनिक अवकाश के दुष्प्रभावों से आज कौन अनजान है? यदि किसी नेता का जन्म दिन है तो छुट्टी और अगर मृत्यु हो जाए फिर छुट्टी ! धार्मिक त्योहारों के नाम पर तो छुट्टियों की कोई सीमा ही नहीं है. हम ने कई राष्ट्रीय दिवसों को अवकाश घोषित कर रखा है. कई नेताओं की जन्म और पुण्य तिथि राष्ट्रीय अवकाश के रूप में हमारे बीच उपस्थित है. अगर देखा जाए तो जब-तब कोई न कोई छुट्टी आ ही जाती है. यदि हम अपने कार्य दिवसों पर नज़र दौडाएं तो पता चलेगा कि इनकी संख्या पूरे साल के एक तिहाई के बराबर भी नहीं है! हम सब इस बीमारी से किसी न किसी प्रकार जूझते ही रहे हैं.
जिन लोगों की रोज़ी-रोटी सरकारी कार्यालयों के बाहर चाय एवं जल-पान के ठेले लगा कर चलती है ...उनकी तो जान को ही बन आती है. पेट तो खाने को मांगता है. उसे क्या मालूम कि सरकारी अवकाश किस चिड़िया का नाम है? अगर एक या दो छुट्टी के साथ कोई बड़ी दुर्घटना या हड़ताल जुड़ जाए तो फिर एक और छुट्टी घोषित होते देर नहीं लगती. सरकारी कार्यालयों में काम न होने से हमारी जनता कितनी परेशान होती है, इसका शायद वही अनुमान लगा सकता है जो भुक्त-भोगी हो. लोग बैंकों से लेन-देन नहीं कर पाते और बहुधा चेक भुगतान के लिए कई दिन तक बैंकों में ही लंबित पड़े रहते हैं.
विश्व के आर्थिक दृष्टि से संपन्न देशों को अगर बारीकी से देखा जाये तो पता चलेगा कि वहाँ सार्वजनिक अवकाशों की संख्या न्यूनतम है. बिना किसी सटीक कारण के वहाँ कोई काम नहीं रुकता. राष्ट्रीय उत्पादकता में जबरदस्त गिरावट आ जाती है. देश में एक दिन काम रुकने से कई दिन तक इसकी भरपाई नहीं हो पाती. यह सब जानते हैं कि अगर हम दो दिन काम न करें तो तीसरे दिन हमारा शरीर भी निकम्मेपन का शिकार हो जाता है और इसे काम करने में तकलीफ होने लगती है. परन्तु हम में से कितने लोग वास्तव में इसके बारे में सोचते हैं?
तो क्या यह सरकार का दायित्व है कि वह सार्वजनिक छुट्टियों में कमी करे? क्या यह हमारे देश की वोट बैंक नीति नही है जो साल दर साल सार्वजनिक छुट्टियों में इज़ाफा करती जा रही है? क्या हमें राष्ट्र के बेहतर हित को ध्यान में रखते हुए इन छुट्टियों से किनारा नहीं कर लेना चाहिए? क्या हम साल में दो या तीन दिवसों को राष्ट्रीय गौरव के रूप में अवकाश रख कर काम नहीं चला सकते? क्या ऐसे भारत की संकल्पना असंभव है जो दिन में चौबीस घंटे काम कर सके? क्या हम वर्ष-भर अपने कार्यालयों एवं फेक्ट्रियों में काम होते नहीं देखना चाहते?
वास्तव में अगर देखा जाए तो इन छुट्टियों की छुट्टी कर देने के बहुत से लाभ हैं जो प्रत्यक्ष भी हैं और अप्रत्यक्ष भी. केवल छुट्टियों के दिनों में देश के लाखों बेरोजगार युवकों को काम मिलने से बेरोज़गारी पर तो अंकुश लगेगा ही..साथ में जो राष्ट्रीय उत्पादकता में अभिवृद्धि होगी उसका सहज अनुमान लगाना भी कठिन है. सरकारी कर्मचारियों को छुट्टी देने का कोई विरोध नहीं है बल्कि विरोध तो पूरे कार्यालयों को बंद रखने का है. लोगों को आकस्मिक अवकाश भी दिया जा सकता है और कार्यालयों में काम भी निर्बाध रूप से चलता रह सकता है. मगर यह सब हमारी सकारात्मक सोच पर ही निर्भर करता है.
क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं? अगर हाँ तो आइये हम सब मिलकर इस राष्ट्रीय बहस को किसी तर्क संगत अंजाम तक पहुँचाने की कोशिश करें. आखिर राष्ट्र-हित में ही तो हम सब का हित है. है कि नहीं !

4 टिप्‍पणियां:

  1. "जिन लोगों की रोज़ी-रोटी सरकारी कार्यालयों के बाहर चाय एवं जल-पान के ठेले लगा कर चलती है, उनकी तो जान पर ही बन आती है। पेट तो खाने को माँगता है।"

    सही कहा आपने! छुट्‌टी हो...या फिर कार्यदिवस...भूख तो हर किसी को रोज़ ही लगती है... भाई! अब ग़रीब हो या अमीर...! हाँ, इतना ज़रूर है कि ग़रीबों को तो रोज़ कुआँ खोदकर प्यास बुझानी है।

    आपकी संवेदना उन सब तक भी पहुँची...इसके लिए साधुवाद!

    छु‍ट्‍टी की ‘छुट्‍टी’--- भाषा की दृष्टि से अच्छा प्रयोग है... प्रखरता का परिचय दिया आपने...सच तो यह है कि आप टिप्पणियों के माध्यम से लगातार अपनी बौद्धिक प्रखरता की पहचान बनाते आ रहे हैं। इसलिए आज से मैं आपको ‘प्रखर’ उपनाम से बुलाऊँ तो क्या हर्ज है---अश्वनी ‘प्रखर’!

    और एक बात यह कि छुट्‍टियाँ ज़रूरी भी हैं...अनेक कारण हैं इसके। हाँ, यह ज़रूर है कि अति हर जगह त्याज्य है!

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  2. अब ‘अश्वनी कुमार रॉय’ नहीं.... अश्वनी ‘प्रखर’ लिखिए!

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  3. पैसा या नौकरी जरूरी है चूँकि मनुष्य का एक समाज है, परिवार है तो यापन के लिए. मगर ऐसे में तो आप इंसान को सिर्फ मशीन ही बना देना चाहते हैं भाई साहब. दिन रात तो सिर्फ मशीन ही चल सकती है, मगर उसको भी रेस्ट चाहिए होता है...वर्ना depreciation की गति भी जीवन को आधा कर देती है. हाँ, वो कहते हैं ना कि 'अति सर्वत्र वर्जयेत' अति नहीं होनी चाहिए.. मध्यम मार्ग उत्तम मार्ग. आपकी बातों से सहमती है मगर फिफ्टी-फिफ्टी. मैनेजमेंट का फंडा भी यही है.. !!

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  4. @जनाब जौहर साहिब,
    @नरेन्द्र व्यास जी,
    आपकी अमूल्य टिप्पणी के लिए मैं शुक्रगुज़ार हूँ. जैसा कि मैंने अंतिम पहरे में लिखा ही है कि “सरकारी कर्मचारियों को छुट्टी देने का कोई विरोध नहीं है बल्कि विरोध तो पूरे कार्यालयों को बंद रखने का है.” कर्मचारियों को आकस्मिक अवकाश भी दिया जा सकता है और कार्यालयों में काम भी निर्बाध रूप से चलता रह सकता है. देखिये कैसे? सब लोगों को वर्ष में १५ से २० दिन की आकस्मिक छुट्टी दे दी जाये जिसे वे अपनी सुविधा अनुसार किसी भी दिन ले सकते हैं. परन्तु राष्ट्रीय एवं रविवारीय अवकाश के दिनों को छोड़ कर सभी कार्यालयों को वर्ष भर खुला रखा जा सकता है. ऐसा करने से काम भी नहीं रुकेगा और लोगों को आराम भी मिलता रहेगा.

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