My expression in words and photography

सोमवार, 30 सितंबर 2013

सांसारिक रेलगाड़ी और हमारा समाज


यद्यपि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथापि संसार में इसका कोई भी काम किसी अन्य व्यक्ति के कारण नहीं अटकता. ये संसार इसी प्रकार अनवरत चलता ही रहता है. संसार की तुलना आप एक ऐसी रेलगाड़ी से कर सकते हैं जिसमें विभिन्न गंतव्य स्थानों के लिए प्रस्थान करने वाले यात्री सवार होते हैं.
संसार रूपी इस रेलगाड़ी का अंतिम स्टेशन तो एक ही है किन्तु कुछ लोगों की यात्रा समय से पहले ही पूरी हो जाती है जिसे आप असामयिक मृत्यु भी कह सकते हैं. कुछ यात्री अपने सद्कर्मों से ज्यादा लंबा सफर करने में सक्षम हो सकते हैं और लंबी उम्र कों प्राप्त होते हैं जबकि अन्य लोग इस सुविधा से वंचित रहते हैं. कौन सा मुसाफिर कहाँ उतरेगा, अर्थात मृत्यु कों प्राप्त होगा, ये कोई नहीं जानता.  हालांकि रास्ते से कुछ नए मुसाफिर भी सवार हो सकते हैं जिनकी तुलना आप नवजात शिशु से कर सकते हैं. सफर के दौरान लोग एक दूसरे से बातचीत भी कर सकते हैं.
अगर किसी को कोई सहयात्री अच्छा लगे तो वह प्रेम सम्बन्ध भी बना सकता है, जो आपसी विश्वास पर निर्भर करता है. जो लोग परस्पर सम्बन्ध नहीं बना पाते, वे इसके लिए अपने अभिभावकों की सहायता ले सकते हैं. सांसारिक रेलगाड़ी में कई प्रकार के ताने-बाने विकसित होते रहते हैं जो अपनी कतिपय आवश्यकताओं के अनुरूप इसकी व्याख्या करते हैं. कुछ लोग माता-पिता हो सकते हैं तो कुछ पति-पत्नी या फिर भाई बहिन आदि. पहले पति-पत्नी के इस बंधन कों वैवाहिक बंधन कहा जाता था, आजकल कुछ लोग इसे लिव-इन कहना ज्यादा उपयुक्त मानने लगे हैं. जो बंधन अपेक्षाकृत कम विकसित होता है उसे आप भावनात्मक संबंधों का नाम भी दे सकते हैं.
कई बार पिता-पुत्र या माता-पुत्र के बीच अविश्वास बढ़ने से रिश्ते कमज़ोर पड़ जाते हैं तथा सामाजिक सम्बन्ध होने पर भी इनका कोई अर्थ नहीं रहता. कुछ यात्री आपसी सम्बन्ध बनाने में कोई विश्वास नहीं रखते क्योंकि उन्हें स्वयं पर ही अधिक भरोसा होता है. ऐसे लोग शादी करने की बजाय एकाकी जीवन जीने में अधिक विश्वास रखते हैं. कई लोग ऐसे हैं जो अपने जीवन के लंबे सफर को बहुत उबाऊ अनुभव करते हैं. उन्हें स्वयं के लिए एक उपयुक्त जीवन साथी की तलाश रहती है जो शादी-विवाह के बंधन द्वारा ही प्राप्त हो सकता है.
आजकल युवकों द्वारा शादी करना या न करना भी इसी प्रकार से ही देखा जा सकता है. ये सब हमारे देश में पाश्चात्य सभ्यता के बढते हुए प्रभाव के कारण हो रहा है. मनुष्य अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति सांसारिक वस्तुओं से करने लगा है तथा भावनात्मक सम्बन्ध कहीं पीछे छूट गए हैं. लोग आपसी प्रेम और विश्वास पर आधारित संबंधों कों बोझ समझने लगे हैं हैं जो उचित नहीं है.
ज़रा सोचिए, अगर लोग आपस में पति-पत्नी न होते तो परिवार कैसे बनता? किस प्रकार हम अपनी विरासत आने वाली पीढ़ियों कों सौंप पाते? हमें अपनी गलतियों से सबक कैसे मिलता, अगर कोई हमारा भला चाहने वाला सम्बन्धी ही नहीं होता? समाज, मोहल्ला, गाँव, शहर, महानगर और देश किस प्रकार अस्तित्व में आते? हम अपना काम बाँट कर कैसे कर पाते, अगर सभी अपने ही स्वार्थ की पूर्ति में लगे रहते?
अब आप स्वयं ही यह निर्णय कर सकते हैं कि आप चाहे लड़के हैं या लडकियां...आपको विवाह की आवश्यकता क्यों है! आने वाली पीढ़ियों का भविष्य आप सबकी सोच पर निर्भर करेगा. आप अपने अल्प-कालिक हितों के लिए दीर्घकालिक दुष्परिणामों की संकल्पना भी नहीं कर सकते. अतः शादी करके आप सब एक सुनहरे कल हेतु भावी पीढ़ी का निर्माण करें ताकि लोग वस्तुओं से अधिक आपसी रिश्तों कों महत्व दें. सुख-दुःख में एक दुसरे के भागीदार बनें. बिना-शादी विवाह के कोई भी सम्बन्ध विश्वसनीय नहीं हो सकता.

मनुष्य एक जीता-जागता प्राणी है न कि एक मशीन जिसे न थकावट होती है और न ही दूसरों कों खाली बैठे देख कर ईर्ष्या! जगत में केवल मानव ही एक सर्वोत्तम प्राणी है जिसमें सभी प्रकार की संवेदनाएं एवं अनुभूतियां पाई जाती हैं. हम सब का यह परम कर्तव्य है कि हम शादी-विवाह की इस परम्परा को बनाए रखें ताकि हम न केवल अपने सुख-दुःख सांझे कर सकें अपितु अपने देश के लिए एक बेहतर कल का सपना भी देख सकें!

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