My expression in words and photography

शनिवार, 14 सितंबर 2013

भारतीय टी.वी. मीडिया एवं हमारी राजनीति

मामला थोड़ा राजनैतिक विषय से सम्बंधित है अतः मैं सर्वप्रथम स्पष्ट करना चाहता हूँ कि न तो मैं किसी दल का समर्थक हूँ और न ही विरोधी. एक सामान्य नागरिक होने के नाते मेरे ये निजी विचार हैं, हो सकता है कुछ लोग इससे सहमत न हों. परन्तु फिर भी मुझे ऐसा लगा कि जैसे हमारे टी.वी. मीडिया को एक अद्यतन खबर कुछ रास नहीं आई. अभी हाल ही में एक राजनैतिक दल द्वारा अपने एक नेता को आगामी लोकसभा चुनावों से पहले ही प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया गया है.
इस घटना में असामान्य कुछ भी नहीं है. कल से सभी टी.वी. मीडिया वाले इस पर विस्तार से चर्चा कर रहे हैं कि ऐसा क्यों हुआ? आखिर इस दल ने अपने वरिष्ठतम नेता को भी विश्वास में लेना उचित नहीं समझा. क्या उस वरिष्ठ नेता के दिन अब लद गए हैं? मीडिया के लोग नाना प्रकार के प्रश्नों की बौछार करके ये मालूम करना चाहते थे कि किसी वरिष्ठ नेता को दरकिनार करके एक कनिष्ठ व्यक्ति को कैसे प्रधानमंत्री के रूप में प्रक्षेपित किया गया. टी.वी. परिचर्चा सुनते हुए ऐसा प्रतीत होता था कि मीडिया के लोग प्रधानमंत्री पद के संभावित दावेदार के बारे में एक ही दल के भीतर चर्चा चाहते थे, जैसे सत्ता दल से उन्हें कोई सरोकार ही न हो.
किसी भी चैनल वाले ने सत्ता दल की प्रतिक्रिया जानने की बजाए एक ही दल के दो व्यक्तियों पर ही स्वयं को केंद्रित रखा. लगता है हमारा मीडिया भी “मीलों तक आ पहुंचा है और इसे अभी मीलों तक और जाना है.” सत्ता पक्ष को नाराज़ करके इन्हें विज्ञापन कौन देगा? आजकल व्यावहारिकता का ही दौर है. खैर चलिए, अगर उस वरिष्ठतम व्यक्ति को प्रधानमंत्री के लिए स्वीकार कर लिया जाता तो भी ये लोग सवाल करते कि इतने बूढ़े व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद के लिए क्यों आगे लाए?
मेरे विचार से इस वरिष्ठतम व्यक्ति को भी प्रधानमंत्री बनने के पर्याप्त अवसर मिले थे जो फली-भूत नहीं हो पाए. अब इनकी उम्र भी काफी है, ऐसे में इन्हें स्वयं ही राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए था जो इन्होंने नहीं किया. खैर, जैसी इनकी मंशा. परन्तु मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि सम्पूर्ण मीडिया को इनसे खासी हमदर्दी मिल रही थी. ढलती उम्र में सहानुभूति नहीं बल्कि आत्मशक्ति और विश्वास काम आता है. कहते हैं संघे शक्ति कलयुगे! ये वरिष्ठ नेता जब अपने ही दल में अकेले पड़ गए हैं तो केवल मीडिया की सहानुभूति इन्हें कैसे प्रधानमंत्री बनवा सकती है?
हाँ, मीडिया ने काफी कोशिश की कि किसी प्रकार इस प्रतिपक्ष पार्टी में फूट पड़ जाए ताकि सत्ता दल खुश होकर इन्हें विज्ञापन गंगा में स्नान करवाता रहे. अब इन मीडिया वाले लोगों को तो बोलना ही है क्योंकि इनका काम तो बोलने से ही चलता है चाहे आप सही बोलो या गलत. हैरानी की बात तो यह है कि जब सत्ताधारी दल से सम्बंधित कोई बवाल होता है तो वही मीडिया तुरंत पतली गली से निकल जाता है. पिछले दो वर्षों में उत्तर प्रदेश में न जाने कितने दंगे हुए, लेकिन उनकी चर्चा को इन चैनलों द्वारा कोई विशेष समय आबंटित नहीं हो पाया. वहीं गुजरात के दंगो की चर्चा के लिए ये मीडिया मानो हरदम तैयार रहता है.

उल्लेखनीय है कि लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया का स्थान सर्वोच्च होता है परन्तु उसे अपना स्वभाव निष्पक्ष रखने की आवश्यकता है. सरकारें आती जाती रहेंगी, परन्तु मीडिया की चमक कभी फीकी नहीं होती. अगर मीडिया निर्भीक एवं निष्पक्ष नहीं होगा तो वह उस मुनादी वाले की तरह है जो सुबह से शाम तक गला फाड़ कर चिल्लाता रहता है परन्तु उसकी बात कोई भी नहीं सुनता.

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