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मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

क्या बैंकों को ए.टी.एम. सुरक्षा शुल्क वसूलने का हक़ है?


बैंकों द्वारा प्रस्ताविक ए.टी.एम. सुरक्षा शुल्क की वसूली किसी भी प्रकार से जायज़ नहीं ठहराई जा सकती. ऐसा प्रतीत होता है कि इस मुद्दे पर सरकार भी अधिक गंभीर नहीं है. सम्भव है सरकार को जनता से अधिक कर वसूली करने के लिए देश में कुछ अधिक ही उर्वरा ज़मीन बनती दिखाई दे रही है. क्या यह बैंक और सरकार के असफल हो रहे कार्य-कलापों की एक जीती-जागती मिसाल नहीं है? जनता की गाढ़ी कमाई के अरबों रूपए हड़प लेने के बाद भी किसी देश की सरकार अपने नागरिकों को बुनियादी सुरक्षा ही न उपलब्ध करा पाए तो ऐसी सरकार का औचित्य ही क्या है?
अगर सरकार ने प्रस्तावित शुल्क वसूलना शुरू कर दिया तो क्या वह लोगों से पुलिस शुल्क की भी माँग करेगी? क्योंकि हर जिला मुख्यालय में जनता की सेवा एवं सुरक्षा हेतु पुलिस तैनात है. हमें कोई हैरानी नहीं होगी कि एक दिन ये सरकार सीमावर्ती जिलों में रहने वालों से सीमा सुरक्षा शुल्क की भी माँग करने लगे. फिर तो रेलें भी जेब-कतरों व लुटेरों से आपको सुरक्षित रखने के लिए सुरक्षा शुल्क की माँग रख सकती हैं. सम्भव है कि बैंक भी आपसे कहने लगें कि वे आपका पैसा बैंक में सुरक्षित रखते हैं, जिसपर बैंक धन खर्च कर रहा है. इसलिए आप हमसे व्याज की माँग नहीं कर सकते. आखिर लोकर पर भी तो आपको शुल्क चुकाना ही पड़ता है न! ज़रा सोचिए, अगर ऐसा हुआ तो बैंकों में धन कौन रखेगा? कुछ देशों में तो अपना धन बैंक में सुरक्षित रखने के लिए भी बैंकों को घूस देनी पड़ती है. क्या ऐसा ही चलन हमारे यहाँ नहीं आने की कोशिश करेगा? ध्यातव्य है कि एक गलत परम्परा पूर्णतया गलत नियमों की नींव रखती है. अतः मन में ऐसे बुरे विचारों को आने से पहले ही शमन कर देना चाहिए.
      आइए, इस समस्या को बैंकों के स्तर पर सुलझाने की कोशिश करते हैं. ज्ञातव्य है कि देश के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए साकार ने बरसों पहले बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था. ये एक अच्छा कदम तो था परन्तु इसके वांछित परिणाम मिलने की बजाए बैंकों को घाटा होने लगा. कारण, सरकार की लोक लुभावन योजनाएं. इन योजनाओं से सरकार को वोट तो मिले किन्तु राजस्व घाटा बढ़ता गया. बैंकों के क़र्ज़ लोगों ने लौटाने बंद कर दिए. इन सब कारणों से बैंकों पर आर्थिक बोझ बढ़ने लगा. कुछ बैंक तो वित्तीय अनुशासन-हीनता के चलते घाटे में आ गए जबकि कुछ बैंक सरकारी नीतियों के कारण क़र्ज़ के बोझ तले दब गए. फिर से निजी बैंकों का दौर आया. आजकल ये बैंक खूब मुनाफ़ा कमा रहे हैं.
कई निजी बैंकों में तो कर्मचारियों को दस-दस घंटे से अधिक काम करना पड़ता है जिसकी कोई सुनवाई नहीं करता. इन बैंकों को जब भी कोई अवसर मिलता है, अपना आर्थिक बोझ ग्राहकों पर लादने की कोशिश करते हैं. कई बैंकों ने ‘न्यूनतम’ राशि जमा करने की कड़ी शर्तें लागू की हैं. कुछ ऐसे बैंक भी हैं जहां आम आदमी का प्रवेश ही वर्जित है! अगर किसी को ड्राफ्ट बनवाना हो तो इसके लिए मोटी फीस देनी होती है, फिर भी बैंक ड्राफ्ट इश्यू करने में अक्सर नखरे दिखाते हैं. कई बैंक पास-बुक इश्यू ही नहीं करते. कुछ सेवाएं ऐसी हैं जो ग्राहकों को बिना मांगे बैंक से मिलनी चाहिएं परन्तु बैंक कुछ भी सुनाने को तैयार नहीं हैं. ऐसा लगता है कि आम आदमी बैंक तथा सरकार रूपी चक्की के दो पाटों के बीच में पिस कर रह गया है. अभी हाल ही में बैंक ग्राहकों को उनकी अधिशेष जमाराशि की जानकारी एस.एम.एस द्वारा बताने के लिए भी साठ रूपए प्रति वर्ष तक वसूलने लगा है. क्या बैक अपने ग्राहकों को ये जानकारी देकर उन पर एहसान कर रहा है? जब ग्राहक बैंकों में आते थे तो बैंक का अधिक रूपया खर्च होता था जबकि आजकल ग्राहक अधिकतर कार्य आधुनिक साधनों जैसे कम्प्ययूटर व टेल्लर मशीनों से करने लगा है जिससे बैंकों का आर्थिक बोझ काफी कम हो गया है.
ये निजी बैंक सिद्धांततः ऐसे  लोगों को क़र्ज़ देते हैं जिनको इसकी आवश्यकता नहीं होती, परन्तु इन ग्राहकों में क़र्ज़ वापिस लौटाने की क्षमता सबसे अच्छी होती है. अब आप ही अनुमान लगा लें की ऐसे बैंकों से देश का क्या उद्धार होने वाला है. अगर देखा जाए तो बैंक का कार्य है कि वह उन लोगों से रुपया लेकर अपने पास सुरक्षित रखे जिन्हें अभी इसकी आवश्यकता नहीं है. बैंक कुछ ऐसे लोगों को ऋण वितरित करता है जिन्हें व्यापार आदि के लिए धन की आवश्यकता होती है. बैंकों को क्रेडिट कार्ड तथा अन्य बैंकर सेवाओं से भी अतिरिक्त आय होती है. आजकल तो बैंक बीमा पालिसी व सोना जैसी चीज़ें भी बेचने लगे हैं. इस लेन-देन से ही बैंक के सभी खर्चे निकलते हैं तथा आमदनी भी होती है. यह सोचने का विषय ही कि आजकल बैंक वह सब काम करता है जिससे उसे मोटी आमदनी हो. जब कोई खर्च करने की बात आती है तो ये एक दम पीछे हट जाते हैं. बैंकों का यह रवैय्या कहाँ तक उचित है?
पहले तो बैंक ने अपने कर्मचारियों को कम करने के लिए टेक्नोलोजी का सहारा लिया तथा ए.टी.एम. के माध्यम से रुपयों की निकासी शुरू की. जब देखा कि इसमें लूट-मार होने लगी, तो झट से सुरक्षा शुल्क लगाने की माँग कर डाली. अब बैंकों ने नया सुर अलापना शुरू कर दिया है कि हम अपने खर्चे पर सुरक्षा गार्ड क्यों रखें. परन्तु सवाल तो यह भी है कि जनता इसका खर्च क्यों दे? अगर कल कोई पब्लिक स्थानों पर लूट-पाट करेगा तो क्या इसे रोकने के लिए जनता से अतिरिक्त कर वसूला जाएगा? आखिर मौजूदा प्रकरण में बैंकों ने अपने कर्मचारियों की संख्या घटा कर ही अधिक लाभ अर्जित किया है. अगर बैंकों ने इन मशीनों के कारण अधिक धन कमाया है तो सरकार को भी लाभ हुआ है क्योंकि बैंक भी इनको भारी-भरकम कारपोरेट टैक्स देते हैं. अतः देखा जाए तो सुरक्षा की जिम्मेवारी सरकार की ही बनती है.
जनता से इस प्रकार का खर्च वसूल करना अनुचित है क्योंकि वह तो पहले से ही इस सरकार को नाना प्रकार के टैक्स देती आ रही है. आप घर से बाहर निकलते हैं तो आपको यात्रा कर चुकाना होता है. अपनी गाड़ी से जाने पर तेल का खर्च, उस पर टैक्स का खर्च. सड़क पर चले तो टोल टैक्स. कपडे धुलवाए तो सर्विस टैक्स. बच्चे कोचिंग से पढाए तो उस पर सेवा कर. खाने-पीने का सामान होटल से लिया तो उस पर भी कर. कुछ ज्यादा कमा लिया तो इनकम टैक्स. कहने का अर्थ है कि आज गरीब से गरीब व्यक्ति भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से इस सरकार को ढेरों रूपए कर के रूप में चुकाता है. क्या इसके बदले में देश की सरकार अपने नागरिकों को उचित सुरक्षा भी नहीं दे सकती? यह न केवल निंदनीय है अपितु शर्मनाक भी है! आज आवश्यकता इस बात की है कि हमारे नागरिक शिक्षित एवं जागरूक बनें ताकि कोई भी सरकार उनका शोषण न कर सके. अतः हमें अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति सदैव सचेत रहना होगा. 

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