My expression in words and photography

सोमवार, 2 मार्च 2015

नमन किसान को

देश की खातिर मरते-मिटते, देखो अमर जवान को 
खेतों में हरियाली लाए, शत-शत नमन किसान को !

जय जवान की बहादुरी को, शत्रु ने अब पहचाना है 
किसानों की मेहनत को, हमने अंतर्मन से जाना है
इनके खून-पसीने ने, चमकाया भारत के भाल को 
खेतों में हरियाली लाए, शत-शत नमन किसान को !

गर्मी, सर्दी, आंधी और, बरसात से नहीं डरते जो
बन प्रहरी इस देश के, अपनी रखवाली करते वो
उसकी भी जय बोलो, जो सम्मान दिलाए देश को
खेतों में हरियाली लाए, शत-शत नमन किसान को ! -अश्विनी रॉय ‘सहर’

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

मुदासिर अहमद की दो कविताएं

फूट डालो शासन करो

मानव – मानव को

लडाने की

जन – जीवन को

लहुलहान कर देने की

भाईचारे , प्रेम और शान्ति को

भंग करने की बात

किस धर्म ने

किस अवतार ने

कही है .

वास्तव में ये तो

‘फूट डालो शासन करो’

की नियति थी

जो चली थी  1947 से पहले

तब अंधापन हावी था

जन पर

इतने क्रूर और भयावह कि

बहु – बेटियों को

अपवित्र  किया गया ,

जान – माल का

हरण किया गया .

मुस्लिम देशों में

शिया और सुन्नी

भारत में बौद्ध – वैष्णव ,

शैव – बौद्ध ,आर्यसमाजी ,

हिन्दू – सिक्ख झगड़े

होते रहे .

असली सफलता उन्हें

तब मिली

जब एक नया षड्यंत्र

हिन्दू –मुस्लिम फसाद

और यह इसलिए

ताकि वे

शासक बने रहे ,

खूनी , साम्प्रदायिक संघर्ष

वीभत्स आग बढती गई .

आज़ादी के बाद भी ...

विभाजन संघर्ष

घर – घर ,नगर – नगर

अमानवीयता का

खूनी परचम लहराया .

तब धर्मों और धर्मों को

आपस में लड़ाया

और अब

धर्म को लड़ा रहे है

कर्म से , धन से

संपत्ति से

तब शिया और सुन्नी थे

अब हर घर का

अपना – अपना मसलक,

अपना – अपना खलीफ़ा,

अपना – अपना मसीहा

जो धन के मारे

धर्म को मार रहे है

स्वयं  मर रहे है

अपने भाइयों को

मार रहे है .

लोग मरते रहेंगे,

लूट , हत्या , बलात्कार

होते रहेंगे

जब तक अज्ञान है

अरे नादान !

ये तो वही

वही ‘फूट डालो  शासन करो’

का सिद्धांत है, जो

हम और तुम को

दूर कर रहा है .

कब्रिस्तान 

नहीं भूल सकता

तेरे उस फ़रेब को

जिसके कारण

अपने कंधो पे

लाशें  लिये फिरता हूँ

कब्रिस्तान  – दर – कब्रिस्तान .

अब इस बोझ से

थक गया हूँ ,

कर ऐसा फ़रेब कि

मेरी लाश भी

चल पड़े अपने मुकाम की ओर

ओरों के कंधों पर

कहीं ऐसा न हो कि
मेरी लाश पड़ी रहे

किसी सड़क पर ...

किसी कंधे की जरूरत की खातिर

या कब्रिस्तान  की जगह की खातिर .

ये आजादी है या अश्लीलता?

गत दिनों मुंबई में कुछ जाने माने फिल्मी सितारों द्वारा एक अत्यंत अश्लील एवं अशोभनीय कार्यक्रम “ए.आइ.बी.” शो का आयोजन किया गया. अगर आप कार्यक्रम शीर्षक को विस्तार में बताने के लिए कहें तो शायद यह भी संभव नहीं हो पाएगा क्योंकि इसका शीर्षक भी अशोभनीय शब्द से ही बना है. कथित रूप से इस शो की चारों ओर कड़े शब्दों में भर्त्सना की गई. फिल्म ऐसोसिएशन के कहने पर इसके कलाकारों ने माफी भी मांग ली. यहाँ एक प्रश्न उठता है कि अगर इस कार्यक्रम के आयोजक सही राह पर हैं तो उन्हें माफी मांगने की आवश्यकता ही क्यों है? इस शो के विरोध में कई जगह एफ.आइ.आर. भी दर्ज हुई.
अब देश भर में इस तरह के कार्यक्रमों को आयोजन कर इन्हें कानूनी मान्यता देने पर लंबी बहस छिड़ गई है. कल एक टी.वी. शो के दौरान ऐसी ही एक बहस में भोजपुरी कलाकार एवं सांसद मनोज कुमार व मुंबई में सामना अखबार के संपादक ने ऐसे आयोजनों की निंदा की और इन्हें नैतिकता की सभी सीमाएं लांघने वाला का एक प्रयास बताया. इस शो का बचाव करते हुए एक अन्य प्रतिभागी महिला मधु किश्वर को इसमें कुछ भी बुरा नहीं लगा. उन्होंने कहा कि उत्तर भारत के मर्द बात करते हुए बिना गाली के दो वाक्य भी नहीं बोल सकते. इनके अनुसार हमारी लोक परम्परा एवं जीवन शैली गालियों से ओत-प्रोत है. किश्वर जी ने लोक गीतों के उदहारण देते हुए कहा कि ये सब अश्लील हैं. उनके सवाल के अनुसार भारत में नैतिकता की सीमाएं कौन तय कर सकता है? क़ानून के विषय में उनका विचार था कि हमारे संविधान की व्याख्या विक्टोरिया साम्राज्य की देन है जो वर्तमान समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करती.
मेरे विचार में गालियों एवं अश्लीलता की शुरुआत संभवतः फिल्मों से ही हुई होगी. कहा जाता है कि फ़िल्में समाज का आइना हैं. अगर ये सच है तो क्या समाज का नंगापन भी फिल्मों के जरिए बाहर लाया जाना उचित है? जो काम लोग अपने घर के हमाम में बैठ कर करते हैं, क्या उसे सड़कों पर करके दिखाना तर्क-संगत है? अगर दो मित्रों की भाषा गाली-गलौच वाली है तो क्या उसका रेडियो या टी.वी. रूपान्तर करके लोगों को परोसना उचित है? उल्लेखनीय है कि जिस कार्यक्रम की चर्चा हो रही है उसकी पाण्डुलिपि पहले ही सक्षम अधिकारी को भेज दी गई थी, परन्तु उसमें इस कथित अश्लीलता का कोई जिक्र नहीं था. यह भी संभव है कि अनुमति किसी और स्क्रिप्ट पर ली गई हो और कार्यक्रम इससे भिन्न दिखाया गया हो. आयोजन के बाद कथित रूप से इसे यू ट्यूब पर उपलोड कर दिया गया जिसे लाखों लोगों द्वारा देखा गया. आयोजकों का कहना है कि लगभग सभी लोगों ने इसे पसंद किया है तो अब इस पर अनावश्यक बवाल क्यों?
आयोजकों का यह भी कहना है कि अगर ये कार्यक्रम लोगों को अच्छा नहीं लगता तो इसे क्यों देखते हैं? इस दलील से कोई भी व्यक्ति सहमत नहीं हो सकता. क्या आप सार्वजनिक स्थल पर नंगेपन का प्रदर्शन करते हुए ये बात कह सकते हैं? कदाचित नहीं. फिर तो कोई भी व्यक्ति गंदी गालियाँ देते हुए अश्लील मुद्राएं बनाएगा. जब उसे कोई महिला देख लेगी तो वह पुलिस में शिकायत करेगी. क्या पुलिस यह दलील स्वीकार कर लेगी कि अगर उस व्यक्ति का व्यवहार अशोभनीय है तो उसकी ओर क्यों देखा जाए? जाहिर है इस तरह की बातें करके लोग मुद्दे को भटकाने की कोशिश करते हैं. पहले फिल्मों में नग्नता का प्रवेश हुआ, फिर हिंसा. आजकल भद्दे डायलोग, गाली-गलौच, आइटम सोंग और न जाने कैसा-कैसा कचरा घुस आया है. यदि ये कार्यक्रम जारी रहे तो एक दिन लोग पोर्न फ़िल्में भी दिखाने लगेंगे. अगर किसी ने विरोध किया तो कहेंगे कि आपको बुरा लगता है तो इसे मत देखिए!
इस कार्यक्रम के आयोजन से जो आय हुई, उसका एक भाग दान करने की बात भी कही जा रही है. क्या कोई व्यक्ति अश्लील स्टेज शो दिखा कर दान राशि एकत्र कर सकता है? शायद नहीं क्योंकि यह नैतिकता से सम्बंधित विषय है. इस शो में बोलीवुड के एक सितारे की बहन का भी कथित रूप से मजाक उडाया गया था जो एक गंभीर मामला है. यदि इस तरह के शो को जायज़ करार दिया जा सकता है तो हमें समाज में महिला उत्पीडन पर भी कोई चर्चा करने का अधिकार नहीं है. इस स्टेज शो के दौरान पुरुष कलाकारों द्वारा महिलाओं के विषय में कई भद्दी एवं अशोभनीय टिप्पणियाँ की गई थी. इन्हें सुन कर वहाँ दीपिका पादुकोण जैसी नायिका भी हँस रही थी जो समझ से परे है.
महिलाओं के विरुद्ध बढते हुए छेड़छाड़ के मामलों को रोकने के लिए हाल ही में एक सख्त क़ानून बनाया गया है. इसके अंतर्गत महिलाओं की ओर अभद्र इशारे करना, अश्लील हरकते करना और यहाँ तक कि घूरना भी अपराध की श्रेणी में आता है. समझ नहीं आता कि फिर भी मधु किश्वर जैसी सभ्रांत महिलाएं ऐसे आयोजनों को तर्क-संगत बता रही हैं. इस स्टेज शो को कोई भी पढ़ी-लिखी महिला अपने बेटे-बेटियों या बहुओं के साथ देखने में शर्म महसूस करेगी! क्या इसे स्वस्थ मनोरंजन की श्रेणी में डाला जा सकता है? कुछ लोगों ने इसकी तुलना कला से की है, इसे कार्टून बनाने की तरह की एक विधा करार दिया है. परन्तु यह बात किसी के गले नहीं उतरती.
आप सब जानते हैं कि नैतिकता की कोई सीमा नहीं होती परन्तु जो अनैतिक है वह सबको मालूम है. अगर यह सच है तो इस विषय में बहस करना ही अनावश्यक है. बात इतनी सी है कि जो गाली आपको अच्छी नहीं लगती, वह दूसरों को कैसे अच्छी लगेगी? जब इस प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा तो शायद कोई भी व्यक्ति ऐसे कार्यक्रमों को दिखाने या बढ़ावा देने की भूल नहीं करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है.


शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

एक लघु कथा

कुछ समय पहले की बात है, दिल्ली में चुनाव प्रचार चल रहा था. सभी दल अपनी-अपनी चुनावी संभावनाओं के प्रति चिंतित दिखाई दे रहे थे. भगवान को सभी पार्टियों पर  दया आ गई. उसने बारी-बारी सभी दलों के नेताओं से मिलने का फैसला किया. सबसे पहले वह कांग्रेस नेता से मिला और पूछा बोलो, तुम क्या चाहते हो? कांग्रेसी ने कहा कि हम तो बस इतना चाहते हैं कि किसी तरह इस बार हमारी लाज रख लों क्योंकि हमारे पास गंवाने के लिए तो कुछ भी नहीं है, लेकिन नतीजे ऐसे दो ताकि हम खुश हो सकें! बी.जे.पी. नेताओं ने कहा कि हे ईश्वर! हमारी इज्जत तो बाहरी मुख्यमंत्री प्रत्याशी के कारण अब जा ही चुकी है, कम से कम इतना कर दो कि आने वाले दिनों में पार्टी द्वारा हम से पूछा जाए कि दिल्ली में अब क्या करना चाहिए! अब आम आदमी पार्टी की बारी थी. उनहोंने ईश्वर से अपनी सरकार बनाने की दुआ मांगी. भगवान सबकी बात सुन कर चल दिए और सभी को दस फरवरी का इंतज़ार करने को कहा. लेकिन भगवान जी ने सोचा कि कुछ राष्ट्रीय दलों के नेताओं से भी उनकी इच्छा जान लेते हैं. सभी ने एक मत हो कर बी.जे.पी. के लिए हार मांगी. अपने घर जाते समय ईश्वर बहुत खुश थे क्योंकि वह आज पहली बार सब लोगों की माँग पूरी करने में समरथ अनुभव कर रहे थे. उन्होंने तुरंत कहा, तथास्तु, और देखते ही देखते सभी राजनैतिक दलों की इच्छा पूर्ण हो गई! - अश्विनी रॉय 'सहर'

दिल्ली में क्या हुआ?

दिल्ली विधान सभा के परिणामों को शालीनता से स्वीकार करना सभी के लिए आवश्यक है. हारने वालों के लिए भी और प्रचंड बहुमत से जीतने वालों के लिए भी. इन परिणामों से यह स्पष्ट हो गया है कि आप अपने प्रतिद्वंदी को कमतर न आंकें. कांग्रेस ने पराजयों का सिलसिला जारी रखा है. उन्होंने अपनी पुरानी हारों से कोई सबक नहीं लिया. लगता है कि ये लोग केवल इस बात से ही संतुष्ट हैं कि बी.जे.पी. हार गई. कमोबेश सभी टी.वी. चैनलों ने बी.जे.पी. की हार के अपने-अपने कारण गिनाए हैं.
मेरे विचार से बी.जे.पी. को इस हार से कतई विचलित होने की आवश्यकता नहीं है. यदि देश के अन्य राजनैतिक दल जैसे तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, यूनाइटेड जनता दल, समाजवादी दल आदि बी.जे.पी. की हार पर् खुशियाँ मना रहे हैं तो ये उनका छिछोरापन है. लगता है इन सबने भी अपनी पुरानी भूलों से कोई सबक नहीं लिया. बी,जे.पी. की वर्तमान हार केवल दिल्ली तक ही सीमित रहेगी, ऐसा मुझे विश्वास है क्योंकि ये अन्य राज्यों में अपनी गलतियों को दोहराने की भूल कतई नहीं करेगी. जहां तक अन्य दलों की बात है, उनका हाल भी कांग्रेस की तरह ही होगा, इसकी पूर्ण संभावना है.
दिल्ली में जो आम आदमी पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला है वह कोई उनकी किसी महान उपलब्धि के लिए नहीं बल्कि उनके बड़े-बड़े वायदों को देख कर आम आदमी ने उन्हें जिताया है. बी.जे.पी. ने अपना प्रचार देर से शुरू किया तथा किरण बेदी को मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत कर दिया. यह परिवर्तन स्थानीय नेताओं को रास नहीं आया तथा उन्होंने जमीनी स्तर पर् चुनाव प्रचार में कोई तवज्जो नहीं दी. किरण बेदी ने अपने रोड शो में अनुशासन व सख्ती का पाठ पढ़ाना शुरू किया तो कुछ लोग इससे बिदक गए. रही कसर आम आदमी पार्टी के दुष्प्रचार ने पूरी कर दी कि जीतने के बाद किरण बेदी सभी अवैध झोंपड़पट्टटे, फुटपाथ व रेहडी वालों को हटाएगी.
अपनी चुनावी असफलता के बाद किरण बेदी ने इसे अपनी हार बताने की बजाय पार्टी की हार कहा है जो उचित नहीं है. पार्टी को चाहिए कि वह भविष्य में अपने कार्यकर्ताओं को विश्वास में लेकर ही कोई रणनीति तैयार करे अन्यथा इस प्रकार के नुक्सान झेलने पड़ सकते हैं. ये परिणाम न तो मोदी सरकार की नीतियों पर् जनमत है और न ही केजरीवाल के सुशासन पर जनता की मोहर है. ये तो विशुद्ध स्थानीय प्रतिक्रिया है जिसकी परिणिती पार्टी की हार के रूप में सामने आई. अब पार्टी को अब अपना कैडर संभालने की आवश्यकता है ताकि अगले चुनाव में बेहतर प्रदर्शन किया जा सके.
इस पार्टी में शत्रु नाम से पहचाने जाने वाले शत्रुओं की भी कोई कमी नहीं है. दिल्ली से अधिक अनुशासन की आवश्यकता तो बी.जे.पी. कार्यकर्ताओं को है. कई नेताओं ने जाति एवं धर्म के सम्बन्ध में अनावश्यक बातें कही जो निंदनीय है. प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे ऐसे सभी लोगों से सख्ती के साथ निपटें क्योंकि इनके कारण पूरी पार्टी की छवि खराब हो रही है. वर्तमान चुनावों में जिन नेताओं ने आवश्यकता से अधिक ऊंचे स्वर में पार्टी का विरोध किया उन्हें पार्टी से निकालने पर् भी विचार होना चाहिए. किरण बेदी घटनाक्रम को शायद एक बुरे सपने की तरह भुला देना ही सबके हित में होगा.

कुछ लोगों का कहना है कि बी.जे.पी. का प्रचार नकारात्मक था जो कुछ हद तक सही भी है. लेकिन इस बार हर पार्टी का चुनाव नकारात्मक रहा है. आम आदमी पार्टी ने कोई खास सकारात्मकता दिखाई हो, ऎसी भी बात नहीं है. आम आदमी पार्टी का यह आरोप कि बी.जे.पी. ने अपने सभी नेताओं को प्रचार में लगाया, सही नहीं है. क्या उनके सब नेता प्रचार नहीं कर रहे थे? इनके नेता तो हरियाणा और पंजाब से दिल्ली में प्रचार करने गए थे. मुझे लगता है कि हारने वालों को बहुत सी बातें कही जाती हैं. यह जीतने वालों की फितरत है कि वे ऐसा कहें. परन्तु हारने वाले अन्य दल बी.जे.पी. की हार पर इतने उत्साहित क्यों हैं? ये बात समझ से परे है. लोकतंत्र में हर पार्टी को कोई न कोई सबक सीखने को मिलता है. ये भी एक सबक है जिसे शालीनता से पढ़ना चाहिए.

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

तेल का खेल

अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की गिरती हुई कीमतों के बारे में सभी को मालूम है. कुछ राजनैतिक दल इस पर सियासत करने से बाज़ नहीं आते. आखिर क्या है इसका राज़? आइए, इस विषय पर तनिक विचार करते हैं. अधिकतर राज्यों ने पेट्रोल व डीजल पर पन्द्रह से बीस प्रतिशत तक सेल्स टैक्स लगाया हुआ है. जब तेल की कीमतें बढ़ी तो सेल्स टैक्स के जरिए सरकार को मिलने वाली रकम भी बढ़ गई. जब सरकार की टैक्स कलेक्शन बढ़ी तो उसका बज़ट भी बढ़ गया. सरकार ने मुलाजिमों की तनख्वाह और दूसरे खर्चे अपने बजट के मुताबिक़ बढ़ा दिए. अब तेलों की घटती हुई कीमतों के कारण सरकार की टैक्स कलेक्शन तो कम हो रही है जबकि खर्चे उसी तरह से हैं. ऐसे में केन्द्रीय सरकार ने तेल पर कुछ टैक्स बढ़ा कर राज्य सरकारों की आमदनी को स्थिर रखने की एक कोशिश की है.
ऐसा करने से केन्द्र पर जो कर्जा है, उसमें भी कमी आएगी तथा विकास के लिए अतिरिक्त धन जुटाया जा सकेगा. यह सही है कि लोगों को राहत कम मिल रही है, परन्तु देश के हित में ऐसा करना बुरा भी नहीं है. ज़रा सोचिए, तेल की कीमतें कम होने के बा-वजूद क्या ऑटो या टैक्सी वालों ने अपने भाड़े में कमी की? बिल्कुल नहीं. इस विषय में सभी खामोश हैं. कारण स्पष्ट है. अगर पब्लिक ट्रांसपोर्ट अपने ढुलाई के भाव कम नहीं करेगा तो इसका फायदा सीधे ट्रांसपोर्टरों को होगा. ट्रांसपोर्ट महँगा होने से वस्तुओं के दाम कम नहीं हो पाएंगे. ट्रक मालिकों का कहना है कि महँगाई के कारण ड्राइवरों की तनख्वाह अधिक कर दी है. तेलों की कीमत चाहे बढे या घटे, इसका असर सभी पर पड़ता है. अगर सरकार कम दामों का सारा फायदा हमें  दे दे तो भी हमें कोई विशेष फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि ट्रांसपोर्ट भाड़े में कमी नहीं हो रही है. इससे सारा लाभ निजी सेक्टर के ट्रांसपोर्टरों को ही जाएगा.
एक सामान्य व्यक्ति अपने स्कूटर में प्रतिमाह पांच या छह सौ रूपए का पेट्रोल डलवाता है. अगर इसके दाम एक दम आधे कर दें तो यह तीन सौ रूपए हो सकता है. परन्तु सरकार ने इसका आधा लाभ ही उपभोक्ताओं को दिया है. अर्थात तीन सौ के स्थान पर उपभोक्ता को लगभग साढ़े चार सौ रूपए प्रतिमाह चुकाने पड़ रहे हैं जिससे उपभोक्ताओं को पांच रूपए प्रतिदिन का ही अतिरिक्त खर्च झेलना पड़ रहा है. जरा सोचिए, यदि पूरा लाभ मिल जाता तो केवल एक सौ पचास रूपए प्रति माह का ही लाभ होता जो कोई खास मायने नहीं रखता. जिन लोगों के पास कारें हैं उन्हें भी चार-पांच सौ रूपए अधिक देने से कोई विशेष लाभ नहीं हो सकता. ऐसे में अगर हमारे देश का बज़टीय घाटा कम हो जाए तो क्या बुरा है?  

जब सरकार को घाटा होता है तो वह टैक्स बढ़ा कर इससे कहीं ज्यादा राजस्व की  वसूली कर लेती है. इसलिए यह सरकार के लिए अच्छा अवसर है कि वह बिना किसी अतिरिक्त धन खर्च किए अपने राजस्व में कुछ वृद्धि कर पाएगी. ये धन आखिर काम तो हम सबके ही आएगा न! अगर सरकार दिवालिया होगी तो ये देश के लोगों का क्या भला करेगी? केवल तेलों का दाम कम होने से हरियाणा सरकार की आमदनी एक हज़ार करोड़ रूपए सालाना तक कम हो गई है. अगर केन्द्रीय सरकार तेल के दाम पूरी तरह कम कर देती तो ये घाटा इससे भी अधिक हो जाता. ऐसा करने से शायद लोगों को तनख्वाह मिलने में भी मुश्किल हो सकती थी. अतः इस पर किसी तरह की घटिया सियासत नहीं होनी चाहिए. 

आम आदमी कौन है?

भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसकी अधिकतर संख्या गाँवों में रहती है. गाँव, जहां पर्याप्त साफ़-सफाई, पक्की गालियाँ, स्कूल, अस्पताल, सामुदायिक स्थल तथा बिजली व पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं की कमी रहती है. गाँव के लोग एक आम आदमी की तरह जीवन बसर करते हैं. यह अत्यंत हैरानी की बात है गत वर्ष एक नई तरह के आम आदमी का उदय हुआ है. यह आम आदमी दिल्ली में रहता है जहां एक कमरे के मकान का मालिक भी लखपति है. क्यों न हो .... आखिर देश की राजधानी जो है! राजधानी के लोग सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं. उन्हें बढ़िया सड़कें, अस्पताल, स्कूल, कालेज, अदालतें एवं रोज़गार के वे सभी अवसर प्राप्त हैं जो शायद गाँव का आदमी कभी सोच ही नहीं सकता. तो क्या आम आदमी दिल्ली में रहता है? आइए, इस पर मंथन करें.
मनुष्य स्वभाव से ही परिवर्तन का समर्थन करता आया है. जब वह पैदल नहीं चलता तो साइकिल या रिक्शा की माँग करता है. रिक्शा से मन भर गया तो ऑटो या टैक्सी में चलना पसंद करता है. जब इससे भी संतुष्ट न हो तो वह बस या मेट्रो की सवारी करने लगता है. लेकिन जल्द ही उसे पता चलता है कि मेट्रो में तो आम आदमी चलते हैं. तब उसे मेट्रो की जगह अपनी कार अच्छी लगने लगती है. अपनी कार तो चार या पांच लाख तक की ही हो सकती है जबकि सरकारी कार बीस लाख रूपए या इससे भी अधिक की होती हैं. जब यही आम आदमी मुख्यमंत्री बन जाता है तो उसे लगता है कि वह देश का प्रधानमंत्री भी बन सकता है. वह शीघ्र ही मुख्यमंत्री का पद छोड़ कर प्रधानमंत्री बनने की दिशा में चलने लगता है. क्या आम आदमी को प्रधानमंत्री बनने का अधिकार नहीं है? क्यों नहीं, प्रधानमंत्री तो कोई भी बन सकता है.
कोई भी व्यक्ति महत्त्वाकांक्षी हो सकता है, परन्तु मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के पद को आम पद समझ लेना भारी भूल होगी. ये सभी पद उच्च स्तर की जिम्मेवारी और सत्यनिष्ठा से बंधे होते है. किसी भी आम आदमी को इन संवैधानिक पदों से खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. हमारे देश में लोकतंत्र है जो एक अच्छी बात है. परन्तु कुछ लोग केवल वोट प्राप्त करने के लिए जनता को गुमराह करते रहते हैं. लोगों को आधे रेट में बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त वाई-फाई दे कर आप क्या सन्देश देना चाहते हैं? अगर आप आम आदमी के नाम पर ही खजाना लुटा देंगें तो विकास कार्यों के लिए बजट कहाँ से आएगा? अमीर लोगों की संख्या इतनी अधिक भी नहीं है कि वे टैक्स देकर आपका खजाना भर दें.
हमारे देश में काले धन की उत्पत्ति क्यों होती है? क्या किसी ने इस पर विचार किया है? जब सरकार भलाई के नाम पर मुफ्त में रुपया लुटाने लगे, मुफ्त में मकान, बिजली और पानी देने लगेगी तो काम कौन करना चाहेगा? ऐसे समाजवाद का हश्र रूस जैसे देश पहले ही देख चुके हैं. समाजवाद से पेट नहीं भरता. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि हम गरीबों या आम आदमी के हितों के विरुद्ध हैं.
अगर आम आदमी की सच्ची सेवा करनी है तो उसे शिक्षित करो. उसे रोज़गार उपलब्ध कराओ ताकि वह धन कमा कर न केवल अपना मकान बनाए बल्कि पानी और बिजली का बिल भी चुकाए. वह अपनी आय इतनी बढाए कि सरकार को भी कर अदा करे ताकि वह इसे कल्याणकारी कामों पर खर्च कर सके. आज सरकार का आधा बजट केवल क़र्ज़ लिए रुपयों को चुकाने में चला जाता है. बचे हुए आधे धन को सरकार के मंत्री तथा कर्मचारी खर्च कर देते हैं. जो शेष बचता है उसे गरीबों में बांटने के लिए नए- नए ढंग तलाश करने में लगा देते हैं. विकास कार्यों के लिए तो बजट बचता नहीं, उलटे लोगों को ये नसीहत दी जाती है कि वे अपने बैंक के कर्जे भी अदा न करें. इन सब बातों से हमारा देश कहाँ जाएगा? कैसे तरक्की होगी?
आज आम आदमी को मूर्ख बना कर उसे तात्कालिक लाभ दिया जा सकता है परन्तु ये सब लंबे समय तक नहीं चल सकता. यदि धन कमाया न जाए तो कुबेर के बड़े से बड़े खजाने भी खाली हो जाते हैं. क्या लुटाने के लिए केवल सरकारी खजाना ही रह गया है? दिल्ली में आम आदमी के तथाकथित नेता लाखों-करोड़ों रूपए की संपत्ति रखते हैं. क्या उन्होंने कभी किसी आम आदमी का बिजली का बिल जमा करवाया? कम से कम हमें तो ऐसा नहीं लगता. हाँ, ऎसी ख़बरें अवश्य पढ़ी हैं कि जिन लोगों का बिजली कनेक्शन बिल जमा न कराने से कट गया था, उनकी तारें अवैध ढंग से जोड़ दी गई. इससे क्या सन्देश गया? स्पष्ट है कि आप जो चाहे मनमानी करो, क्योंकि आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. क्या यह दल देश के नागरिकों को यही सन्देश देना चाहता है? अगर हाँ, तो वह दिन दूर नहीं जब इनका भी हाल हमारे देश के सर्वोच्च राजनैतिक दल की तरह हो जाएगा. आज उस दल के नेता अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं परन्तु उनकी बात कोई सुनने को ही तैयार नहीं है. यह स्पष्ट है कि इन्होंने भी आम लोगों को उम्मीद से कहीं अधिक सब्ज-बाग दिखाए थे. जब ये नेता इनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे तो इन्हें सड़क पर ला पटका.  
हम अच्छी तरह जानते हैं कि आम आदमी पार्टी भले ही सरकार बना ले, लेकिन वह जनता को वो सभी खैरातें नहीं बाँट पाएगी, जिनका उल्लेख इनके नेताओं ने किया है. अगर आप आधी दिल्ली को पानी और बिजली पर सब्सिडी देंगे तो बचे हुए अन्य लोग भी इसकी माँग करेंगे. अगर आपने सबको खुश नहीं किया तो समाज में असमानता बढ़ेगी. इसी असमानता के कारण अपराध बढते हैं जो बिगड़ती हुई क़ानून और व्यवस्था के लिए जिम्मेवार हैं. हमें तो लगता है कि सरकार किसी की भी बने, लेकिन आम आदमी ही पिसता है.

आज आम आदमी का स्थान ‘छद्म रूप’ के आम आदमी ने ले लिया है. अब गाँवों में रहने वाले आम आदमी को लगता है कि ‘आम’ आदमी तो केवल दिल्ली में ही रहता है. जिस आदमी ने आम आदमी पार्टी बनाई वह भी गाँव से ही चल कर दिल्ली आया. उसने गाँव में रहने वाले आम आदमी के लिए तो कुछ नहीं किया किन्तु दिल्ली में आ कर नई तरह के आम आदमी भी तैयार कर दिए. अब इन्हीं तथाकथित आम लोगों की सरकार भी बन जाएगी. क्या आप इन्हें वास्तव में आम आदमी समझते हैं? 

सोमवार, 19 जनवरी 2015

एम.एस.जी. पर बवाल क्यों?

"सच्ची बात कही थी मैंने
लोगों ने सूली पे चढ़ाया
मुझको ज़हर का जाम पिलाया
फिर भी उनको चैन ना आया
सच्ची बात कही थी मैंने!"
जी हाँ, ऐसा ही कुछ एम.एस.जी. फिल्म में हुआ है. सच्ची बात किसे कड़वी नहीं लगती? फिर चाहे वह सेंसर बोर्ड ही क्यों न हो! फिल्म सेंसर बोर्ड की अध्यक्षा ने सरकारी दखलंदाजी का कारण बताते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया है. उल्लेखनीय है कि एम.एस.जी. फिल्म को सेंसर बोर्ड ने पास नहीं किया था. ये वही बोर्ड है जिसे ‘पी.के.’ फिल्म में तो कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा परन्तु ‘एम.एस.जी.’ को सेंसर कर दिया. ये फिल्म डेरा प्रमुख राम रहीम सिंह इन्सां द्वारा निर्देशित है जिसका विरोध देश के सिख संगठन एवं कई राजनेता कर रहे हैं. परन्तु अब तक किसी भी दल ने इस विरोध की कोई खास वजह नहीं बताई.
ये हैरानी की बात है कि उस ‘पी.के.’ फिल्म को पास करने में सेंसर ने कोई देर नहीं लगाईं जिसमें हिन्दू धर्म को ठेस पहुंचाने वाले कई दृश्य डाले गए हैं. एक दृश्य में फिल्म का नायक हिन्दू देवताओं के चित्रों पर ‘लापता’ लिख कर इधर-उधर घूमता दिखाई देता है. वह मंदिर जा कर गल्ले से रूपए निकाल लेता है. फिल्म का नायक एक महिला को कंडोम का पेकेट भी दिखाता है जो अत्यंत अपमानजनक दृश्य है. ये वही नायक हैं जो टी.वी. में अक्सर महिलाओं के उत्पीडन पर विरोध प्रदर्शित करता है परन्तु अपनी फिल्म में उनका अपमान करने से बाज़ नहीं आता.
इस फिल्म का नायक अपने नंगेपन की सफाई भी बड़ी बेशर्मी से उचित ठहराते हुए कहता है कि जब कौवे वस्त्र नहीं पहनते तो मनुष्यों के लिए यह क्यों आवश्यक है? फिल्म में कारों के अंदर सेक्स करते हुए दिखाया है जिसपर सेंसर को कोई एतराज़ नहीं हुआ. ये वही सेंसर बोर्ड है जो सिगरेट पीने के दृश्य में वैधानिक चेतावनी छापने की बात करता है परन्तु इस फिल्म में नायक के नंगे होने, पूजा स्थल पर चोरी करने, नारी को अपमानित करने, देवताओं को बे-इज्ज़त करने तथा सेक्स करते हुए लोगों के वस्त्र चुराने वाले दृश्यों पर न तो कोई आपत्ति करता है और न ही चेतावनी छापने की सलाह देता है.

इन लोगों को एम.एस.जी. जैसी साधारण फिल्म पर आपत्ति क्यों है, ये समझ से परे है. ऐसे भेदभावपूर्ण सोच रखने वाले लोगों को सेंसर बोर्ड में कोई स्थान नहीं मिलना चाहिए. अगर इन्होंने इस्तीफा दे दिया है तो अच्छा ही है. इनके स्थान पर ईमानदार अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों की नियुक्ति होनी चाहिए जो पूर्ण पारदर्शिता से अपना काम करे.

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

"पी.के." की समीक्षा

पी.के. फिल्म देखने से मालूम हुआ कि इसमें बहुत से तथाकथित ‘रोंग’ नम्बरों का उल्लेख है परन्तु यह स्वयं ही एक ‘रोंग’ नंबर है. फिल्म में बहुत से ऊल-जलूल सवाल उठाए गए हैं जबकि इसकी कहानी स्वयं ही सवालों के घेरे में आती हुई जान पड़ती है. फिल्म में ईश्वर के अस्तित्व एवं धर्म गुरुओं पर सवाल उठाया गया है. उल्लेखनीय है कि जब इस फिल्म का नायक शराब की बोतलें उठा कर मस्जिद की तरफ जाता है तो उसे बाहर से ही खदेड़ दिया जाता है जबकि वह मंदिर में बे-धड़क जाकर गल्ले से रूपए निकाल लेता है. वह एक हिन्दू धर्म गुरु से भी मनमाने प्रश्न करता हुआ दिखाया गया है. यह अत्यंत हैरानी की बात है कि नायक ने पूरी फिल्म में अपने धर्म गुरु या पैगम्बर के विषय में कोई प्रश्न नहीं उठाया और न ही कोई नुक्ताचीनी की. इससे यह स्पष्ट होता है कि फिल्म के नायक की सोच कितनी दोगली है?
 इस फिल्म का नायक किसी का हाथ पकड़ कर यह तो जान लेता है कि कोई अपनी भाषा कैसे बोलता है तथा उसके मन में क्या है परन्तु यह नहीं जान सकता कि वह किसकी अराधना करता है? उसका धर्म क्या है? वह बार-बार पूछता है कि किसी व्यक्ति का धर्म बताने वाला ठप्पा शरीर पर कहाँ लगा है? यह सब बड़ा हास्यास्पद लगता है. फिल्म के नायक द्वारा देवी-देवताओं की तस्वीरें उठा कर उन्हें लापता बताना भी उसकी ओछी सोच का परिचायक है. इस धरती पर सब लोगों के कपडे पहनने पर सवाल उठाए गए हैं. नायक पूछता है कि जब कौवा कपडे नहीं पहनता तो हमारे कपडे न पहनने पर एतराज़ क्यों हो? फिल्मों में सब कुछ वास्तविकता से परे है.
 इस फिल्म के कुछ दृश्यों को बड़े फूहड़ ढंग से दिखाया गया है. कुछ दृश्यों में नायक द्वारा महिलाओं के हाथों को पकड़ना बहुत ही बचकाना लगता है. कुछ दिन पहले इस ‘नायक’ ने स्वयं एक टी.वी. शो में स्वीकार किया था कि अगर हम फिल्मों में महिलाओं का सम्मान नहीं करेंगे तो लोग अपने सार्वजनिक जीवन में भी ऐसा ही करेंगे. स्पष्टतः लोग फिल्मी नायकों को अपने रोल मॉडल के रूप में देखते हैं. पाकिस्तान के पत्रकार जिन्हें निष्पक्ष होना चाहिए, वे भी यह स्वीकार करने से कतराते हैं कि उनका देश भारत में बम-विस्फोट करवाने में किस तरह दिलचस्पी लेता रहता है. कहानी में एक पाकिस्तानी व्यक्ति ‘सरफराज़’ फिल्म की हिन्दुस्तानी नायिका से प्रेम करता हुआ दिखाया गया है. “बिन पूछे मेरा नाम पता, चल दो न साथ मेरे....” गीत गाते हुए सरफराज़ ऐसे लगता है मानो पाकिस्तान भारत को ही सही रास्ते पर चलने की नसीहत दे रहा हो. यह अपने आपमें संसार का आठवां आश्चर्य ही प्रतीत होता है.
 चर्चित है कि यह फिल्म अब तक बहुत ही सफल रही है. भारत के सभी सिनेमा घरों में आप चाहे ‘पोर्न’ फ़िल्में लगा कर देख लें, अब तक के सारे रिकॉर्ड टूट जाएंगे. तो क्या अधिक लोगों द्वारा किसी फिल्म को देखना ही इसकी सफलता का परिचायक है? देश में कुछ स्थानों पर इस फिल्म के विरोध में स्वर उठ रहे हैं. मैं व्यक्तिगत रूप से तो इनसे सहमत नहीं हूँ परन्तु उचित-अनुचित में भेद करने वाले फिल्म नायक से यह प्रश्न तो पूछा ही जा सकता है कि वह अपनी भडांस एक विशेष धर्म के प्रति ही क्यों निकालना चाहता है?
 फिल्म के कई दृश्य ऐसे भी हैं जिन्हें देख कर मन में करुणा के भाव तो उत्पन्न होते हैं परन्तु कोई हँसी नहीं आती. फिल्म में जो भी गीत-संगीत है वह अच्छा है, तकनीकी दृष्टि से तो सब ठीक-ठाक है लेकिन कहानी बे-सिरपैर व ऊल-जलूल है. फिल्म के एक दृश्य में टिकटों की ब्लैक करने वाले व्यक्ति को घटिया सोच वाला तथा एक बुजुर्ग व्यक्ति को ऐसे धोखेबाज के रोल में दिखाया है जो स्वयं ही ब्लैक में सिनेमा टिकट खरीद लेता है. कहते हैं कि फ़िल्में समाज का आइना होती हैं परन्तु इस फिल्म को देख कर लगता है कि सब कुछ सही नहीं है. अगर आमिर खान फिल्मों को केवल मनोरंजन ही मानते हैं तो टी.वी. पर आकर भारतीय नायिकाओं को ‘फूहड़’ अभिनय करने से क्यों रोकते हैं? अगर फ़िल्में देख कर हमारे नवयुवक नहीं बिगड़ते तो आप विभिन्न उत्पादों के प्रचार हेतु स्वयं को क्यों लगाते हैं? इससे तो यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि लोग आपके द्वारा बताई गई बातों का अनुसरण करने की कोशिश करते हैं चाहे वह सब गलत हो या सही!
 यह एक विडम्बना ही है कि जो अच्छा है लोग उस पर कोई ध्यान नहीं देते परन्तु जो बुरा है उससे खूब कमाई करते हैं. ईश्वर के होने या न होने से तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता परन्तु जो लोग ईश्वर के नाम पर अच्छे काम करते हैं वह अवश्य ही अनुकरणीय है. कई लोग राम, अल्लाह, जीसस या अपने गुरु के नाम पर अस्पताल, स्कूल, कालेज व धर्मशालाएं बनवाते हैं जो समाज के हित में है. वहीं कुछ लोग धर्म के नाम पर लोगों को बांटते हैं जो बुरी बात है. देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इन दोनों तरह के लोगों पर फ़िल्में बना कर रुपया कमाते हैं जिनके बारे में आप स्वयं ही फैसला कर सकते हैं कि ये सब अच्छा है या बुरा!

कैसे खुदगर्ज़ हो?

मेरा किया तो फ़र्ज़ है
तुम्हारा किया एहसान
मुझे इस पर हर्ज है !
दोस्ती मेरी इबादत है
तुम्हारे लिए सियासत है
ये कैसी लियाकत है?
वायदे खूब करते हो
लेकिन वफ़ा नहीं करते
खुद को बा-वफ़ा कहते हो !
हमें अपने हाल पे छोड़ दो
हमारे बीच न कोई होड़ हो

गर दीवार है उसे तोड़ दो! -अश्विनी रॉय 'सहर'

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

धर्मांतरण पर कैसा बवाल?

हमारे देश में सभी नागरिकों को छूट है कि वे किसी भी धर्म का पालन करें. फिर भी यदा-कडा इस मुद्दे पर सियासत गरमाती रहती है कि देश में कुछ संगठन जबरन धर्म परिवर्तन करवाने में लगे हैं. किसी ने ठीक ही कहा है कि-
“उम्र बीती बुतपोशी में, अब क्या ख़ाक मुसलमान होंगे!” अर्थात सारी जिंदगी तो मूर्ति-पूजा करते रहे, अब आप मुसलमान कैसे बन सकते हैं? कुछ लोग अदूरदर्शिता अथवा आर्थिक प्रलोभन के कारण भी धर्म परिवर्तन हेतु तत्पर रहते हैं. ये लोग अपने अल्पकालिक हितों के लालच में दूरगामी परिणामों की अनदेखी कर देते हैं. कहा जाता है कि “पहला रंग ही रंग है, दूजा रंग बदरंग!” अगर आप भगवां रंग के वस्त्र पर हरा रंग चढाने की कोशिश करेंगे तो वह न तो भगवां रहेगा और न ही हरा.
हमारे देश में अब तक हुए असंख्य धर्म परिवर्तनों से यह साफ़ हो गया है कि धर्म कोई वस्त्र नहीं हैं, जो जब जी चाहा बदल लें. ये तो एक आस्था का विषय है. जो व्यक्ति अपने धर्म में आस्था नहीं रखता, उसे दूसरों के धर्म में कैसे आस्था हो सकती है? राजस्थान में बरसों पहले कुछ हिन्दू लोग मुसलमां हो गए थे. आज वे सब अलग-थलग ही नज़र आते हैं क्योंकि वे अब न तो हिन्दू ही रहे और न ही मुसलमान. हिन्दू परिवार इनके साथ कोई वैवाहिक सम्बन्ध स्वीकार नहीं करते और न ही ये अपने बच्चों की शादियाँ मुसलामानों में कर पाते हैं. परिणामस्वरुप इन लोगों की एक अलग ही श्रेणी बन गई है जिन्हें कायमखानी मुसलमान कहा जाता है.
कुछ लोगों ने धर्म परिवर्तन इसलिए भी किया क्योंकि उनके धर्म में सामाजिक भेदभाव अधिक होता है. हिंदुओं में तथाकथित ऊँची व नीची जातियों में मतभेदों के कारण लोग ईसाई व मुसलमान बनने लगे. जो लोग ईसाई बने उन्हें ईसाइयों ने अपनी मुख्यधारा में शामिल नहीं किया. ये लोग स्वयं को उपेक्षित अनुभव करते रहे तथा जब दलित एवं पिछड़े हिंदुओं को आरक्षण दिया जाने लगा तो ये ‘परिवर्तित’ ईसाई और मुसलमान भी आरक्षण की माँग करने लगे. अब प्रश्न ये उठता है कि यदि ईसाइयों और मुसलामानों में ऊंच-नीच का भेद नहीं होता तो इन्हें आरक्षण क्यों दिया जाए? अगर कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन के बाद भी उपेक्षित है तो उसने अपना धर्म ही क्यों छोड़ा? उपर्युक्त बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव वस्तुतः लोभी प्रवृत्ति का प्राणी है. उसे जहां भी लाभ दिखाई देता है, वह वहाँ चला जाता है.

हमारे देश के राजनीतिज्ञ संसद में इस विषय पर चर्चा करते हुए नहीं थकते परन्तु समस्या के मूल में कोई झांकने को भी तैयार नहीं है. जिसे देखो वह वोटों की राजनीति करता हुआ दिखाई देता है. “कौन व्यक्ति किस धर्म को अपनाए” इसका निर्धारण हमारे राजनेता नहीं कर सकते. जिस देश में लोगों को भरपेट खाने को न मिलता हो, वहाँ अपने धर्म के प्रति कौन वफादार होगा? क्या धर्म व्यक्ति का पेट भर सकता है? एक भिखारी के लिए तो पेट भरना अधिक महत्वपूर्ण है न कि वह मंदिर या मस्जिद जहां से उसे कुछ खाने को मिल सकता है.