My expression in words and photography

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

तेल का खेल

अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की गिरती हुई कीमतों के बारे में सभी को मालूम है. कुछ राजनैतिक दल इस पर सियासत करने से बाज़ नहीं आते. आखिर क्या है इसका राज़? आइए, इस विषय पर तनिक विचार करते हैं. अधिकतर राज्यों ने पेट्रोल व डीजल पर पन्द्रह से बीस प्रतिशत तक सेल्स टैक्स लगाया हुआ है. जब तेल की कीमतें बढ़ी तो सेल्स टैक्स के जरिए सरकार को मिलने वाली रकम भी बढ़ गई. जब सरकार की टैक्स कलेक्शन बढ़ी तो उसका बज़ट भी बढ़ गया. सरकार ने मुलाजिमों की तनख्वाह और दूसरे खर्चे अपने बजट के मुताबिक़ बढ़ा दिए. अब तेलों की घटती हुई कीमतों के कारण सरकार की टैक्स कलेक्शन तो कम हो रही है जबकि खर्चे उसी तरह से हैं. ऐसे में केन्द्रीय सरकार ने तेल पर कुछ टैक्स बढ़ा कर राज्य सरकारों की आमदनी को स्थिर रखने की एक कोशिश की है.
ऐसा करने से केन्द्र पर जो कर्जा है, उसमें भी कमी आएगी तथा विकास के लिए अतिरिक्त धन जुटाया जा सकेगा. यह सही है कि लोगों को राहत कम मिल रही है, परन्तु देश के हित में ऐसा करना बुरा भी नहीं है. ज़रा सोचिए, तेल की कीमतें कम होने के बा-वजूद क्या ऑटो या टैक्सी वालों ने अपने भाड़े में कमी की? बिल्कुल नहीं. इस विषय में सभी खामोश हैं. कारण स्पष्ट है. अगर पब्लिक ट्रांसपोर्ट अपने ढुलाई के भाव कम नहीं करेगा तो इसका फायदा सीधे ट्रांसपोर्टरों को होगा. ट्रांसपोर्ट महँगा होने से वस्तुओं के दाम कम नहीं हो पाएंगे. ट्रक मालिकों का कहना है कि महँगाई के कारण ड्राइवरों की तनख्वाह अधिक कर दी है. तेलों की कीमत चाहे बढे या घटे, इसका असर सभी पर पड़ता है. अगर सरकार कम दामों का सारा फायदा हमें  दे दे तो भी हमें कोई विशेष फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि ट्रांसपोर्ट भाड़े में कमी नहीं हो रही है. इससे सारा लाभ निजी सेक्टर के ट्रांसपोर्टरों को ही जाएगा.
एक सामान्य व्यक्ति अपने स्कूटर में प्रतिमाह पांच या छह सौ रूपए का पेट्रोल डलवाता है. अगर इसके दाम एक दम आधे कर दें तो यह तीन सौ रूपए हो सकता है. परन्तु सरकार ने इसका आधा लाभ ही उपभोक्ताओं को दिया है. अर्थात तीन सौ के स्थान पर उपभोक्ता को लगभग साढ़े चार सौ रूपए प्रतिमाह चुकाने पड़ रहे हैं जिससे उपभोक्ताओं को पांच रूपए प्रतिदिन का ही अतिरिक्त खर्च झेलना पड़ रहा है. जरा सोचिए, यदि पूरा लाभ मिल जाता तो केवल एक सौ पचास रूपए प्रति माह का ही लाभ होता जो कोई खास मायने नहीं रखता. जिन लोगों के पास कारें हैं उन्हें भी चार-पांच सौ रूपए अधिक देने से कोई विशेष लाभ नहीं हो सकता. ऐसे में अगर हमारे देश का बज़टीय घाटा कम हो जाए तो क्या बुरा है?  

जब सरकार को घाटा होता है तो वह टैक्स बढ़ा कर इससे कहीं ज्यादा राजस्व की  वसूली कर लेती है. इसलिए यह सरकार के लिए अच्छा अवसर है कि वह बिना किसी अतिरिक्त धन खर्च किए अपने राजस्व में कुछ वृद्धि कर पाएगी. ये धन आखिर काम तो हम सबके ही आएगा न! अगर सरकार दिवालिया होगी तो ये देश के लोगों का क्या भला करेगी? केवल तेलों का दाम कम होने से हरियाणा सरकार की आमदनी एक हज़ार करोड़ रूपए सालाना तक कम हो गई है. अगर केन्द्रीय सरकार तेल के दाम पूरी तरह कम कर देती तो ये घाटा इससे भी अधिक हो जाता. ऐसा करने से शायद लोगों को तनख्वाह मिलने में भी मुश्किल हो सकती थी. अतः इस पर किसी तरह की घटिया सियासत नहीं होनी चाहिए. 

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