My expression in words and photography

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

मुदासिर अहमद की दो कविताएं

फूट डालो शासन करो

मानव – मानव को

लडाने की

जन – जीवन को

लहुलहान कर देने की

भाईचारे , प्रेम और शान्ति को

भंग करने की बात

किस धर्म ने

किस अवतार ने

कही है .

वास्तव में ये तो

‘फूट डालो शासन करो’

की नियति थी

जो चली थी  1947 से पहले

तब अंधापन हावी था

जन पर

इतने क्रूर और भयावह कि

बहु – बेटियों को

अपवित्र  किया गया ,

जान – माल का

हरण किया गया .

मुस्लिम देशों में

शिया और सुन्नी

भारत में बौद्ध – वैष्णव ,

शैव – बौद्ध ,आर्यसमाजी ,

हिन्दू – सिक्ख झगड़े

होते रहे .

असली सफलता उन्हें

तब मिली

जब एक नया षड्यंत्र

हिन्दू –मुस्लिम फसाद

और यह इसलिए

ताकि वे

शासक बने रहे ,

खूनी , साम्प्रदायिक संघर्ष

वीभत्स आग बढती गई .

आज़ादी के बाद भी ...

विभाजन संघर्ष

घर – घर ,नगर – नगर

अमानवीयता का

खूनी परचम लहराया .

तब धर्मों और धर्मों को

आपस में लड़ाया

और अब

धर्म को लड़ा रहे है

कर्म से , धन से

संपत्ति से

तब शिया और सुन्नी थे

अब हर घर का

अपना – अपना मसलक,

अपना – अपना खलीफ़ा,

अपना – अपना मसीहा

जो धन के मारे

धर्म को मार रहे है

स्वयं  मर रहे है

अपने भाइयों को

मार रहे है .

लोग मरते रहेंगे,

लूट , हत्या , बलात्कार

होते रहेंगे

जब तक अज्ञान है

अरे नादान !

ये तो वही

वही ‘फूट डालो  शासन करो’

का सिद्धांत है, जो

हम और तुम को

दूर कर रहा है .

कब्रिस्तान 

नहीं भूल सकता

तेरे उस फ़रेब को

जिसके कारण

अपने कंधो पे

लाशें  लिये फिरता हूँ

कब्रिस्तान  – दर – कब्रिस्तान .

अब इस बोझ से

थक गया हूँ ,

कर ऐसा फ़रेब कि

मेरी लाश भी

चल पड़े अपने मुकाम की ओर

ओरों के कंधों पर

कहीं ऐसा न हो कि
मेरी लाश पड़ी रहे

किसी सड़क पर ...

किसी कंधे की जरूरत की खातिर

या कब्रिस्तान  की जगह की खातिर .

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