My expression in words and photography

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

ये आजादी है या अश्लीलता?

गत दिनों मुंबई में कुछ जाने माने फिल्मी सितारों द्वारा एक अत्यंत अश्लील एवं अशोभनीय कार्यक्रम “ए.आइ.बी.” शो का आयोजन किया गया. अगर आप कार्यक्रम शीर्षक को विस्तार में बताने के लिए कहें तो शायद यह भी संभव नहीं हो पाएगा क्योंकि इसका शीर्षक भी अशोभनीय शब्द से ही बना है. कथित रूप से इस शो की चारों ओर कड़े शब्दों में भर्त्सना की गई. फिल्म ऐसोसिएशन के कहने पर इसके कलाकारों ने माफी भी मांग ली. यहाँ एक प्रश्न उठता है कि अगर इस कार्यक्रम के आयोजक सही राह पर हैं तो उन्हें माफी मांगने की आवश्यकता ही क्यों है? इस शो के विरोध में कई जगह एफ.आइ.आर. भी दर्ज हुई.
अब देश भर में इस तरह के कार्यक्रमों को आयोजन कर इन्हें कानूनी मान्यता देने पर लंबी बहस छिड़ गई है. कल एक टी.वी. शो के दौरान ऐसी ही एक बहस में भोजपुरी कलाकार एवं सांसद मनोज कुमार व मुंबई में सामना अखबार के संपादक ने ऐसे आयोजनों की निंदा की और इन्हें नैतिकता की सभी सीमाएं लांघने वाला का एक प्रयास बताया. इस शो का बचाव करते हुए एक अन्य प्रतिभागी महिला मधु किश्वर को इसमें कुछ भी बुरा नहीं लगा. उन्होंने कहा कि उत्तर भारत के मर्द बात करते हुए बिना गाली के दो वाक्य भी नहीं बोल सकते. इनके अनुसार हमारी लोक परम्परा एवं जीवन शैली गालियों से ओत-प्रोत है. किश्वर जी ने लोक गीतों के उदहारण देते हुए कहा कि ये सब अश्लील हैं. उनके सवाल के अनुसार भारत में नैतिकता की सीमाएं कौन तय कर सकता है? क़ानून के विषय में उनका विचार था कि हमारे संविधान की व्याख्या विक्टोरिया साम्राज्य की देन है जो वर्तमान समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करती.
मेरे विचार में गालियों एवं अश्लीलता की शुरुआत संभवतः फिल्मों से ही हुई होगी. कहा जाता है कि फ़िल्में समाज का आइना हैं. अगर ये सच है तो क्या समाज का नंगापन भी फिल्मों के जरिए बाहर लाया जाना उचित है? जो काम लोग अपने घर के हमाम में बैठ कर करते हैं, क्या उसे सड़कों पर करके दिखाना तर्क-संगत है? अगर दो मित्रों की भाषा गाली-गलौच वाली है तो क्या उसका रेडियो या टी.वी. रूपान्तर करके लोगों को परोसना उचित है? उल्लेखनीय है कि जिस कार्यक्रम की चर्चा हो रही है उसकी पाण्डुलिपि पहले ही सक्षम अधिकारी को भेज दी गई थी, परन्तु उसमें इस कथित अश्लीलता का कोई जिक्र नहीं था. यह भी संभव है कि अनुमति किसी और स्क्रिप्ट पर ली गई हो और कार्यक्रम इससे भिन्न दिखाया गया हो. आयोजन के बाद कथित रूप से इसे यू ट्यूब पर उपलोड कर दिया गया जिसे लाखों लोगों द्वारा देखा गया. आयोजकों का कहना है कि लगभग सभी लोगों ने इसे पसंद किया है तो अब इस पर अनावश्यक बवाल क्यों?
आयोजकों का यह भी कहना है कि अगर ये कार्यक्रम लोगों को अच्छा नहीं लगता तो इसे क्यों देखते हैं? इस दलील से कोई भी व्यक्ति सहमत नहीं हो सकता. क्या आप सार्वजनिक स्थल पर नंगेपन का प्रदर्शन करते हुए ये बात कह सकते हैं? कदाचित नहीं. फिर तो कोई भी व्यक्ति गंदी गालियाँ देते हुए अश्लील मुद्राएं बनाएगा. जब उसे कोई महिला देख लेगी तो वह पुलिस में शिकायत करेगी. क्या पुलिस यह दलील स्वीकार कर लेगी कि अगर उस व्यक्ति का व्यवहार अशोभनीय है तो उसकी ओर क्यों देखा जाए? जाहिर है इस तरह की बातें करके लोग मुद्दे को भटकाने की कोशिश करते हैं. पहले फिल्मों में नग्नता का प्रवेश हुआ, फिर हिंसा. आजकल भद्दे डायलोग, गाली-गलौच, आइटम सोंग और न जाने कैसा-कैसा कचरा घुस आया है. यदि ये कार्यक्रम जारी रहे तो एक दिन लोग पोर्न फ़िल्में भी दिखाने लगेंगे. अगर किसी ने विरोध किया तो कहेंगे कि आपको बुरा लगता है तो इसे मत देखिए!
इस कार्यक्रम के आयोजन से जो आय हुई, उसका एक भाग दान करने की बात भी कही जा रही है. क्या कोई व्यक्ति अश्लील स्टेज शो दिखा कर दान राशि एकत्र कर सकता है? शायद नहीं क्योंकि यह नैतिकता से सम्बंधित विषय है. इस शो में बोलीवुड के एक सितारे की बहन का भी कथित रूप से मजाक उडाया गया था जो एक गंभीर मामला है. यदि इस तरह के शो को जायज़ करार दिया जा सकता है तो हमें समाज में महिला उत्पीडन पर भी कोई चर्चा करने का अधिकार नहीं है. इस स्टेज शो के दौरान पुरुष कलाकारों द्वारा महिलाओं के विषय में कई भद्दी एवं अशोभनीय टिप्पणियाँ की गई थी. इन्हें सुन कर वहाँ दीपिका पादुकोण जैसी नायिका भी हँस रही थी जो समझ से परे है.
महिलाओं के विरुद्ध बढते हुए छेड़छाड़ के मामलों को रोकने के लिए हाल ही में एक सख्त क़ानून बनाया गया है. इसके अंतर्गत महिलाओं की ओर अभद्र इशारे करना, अश्लील हरकते करना और यहाँ तक कि घूरना भी अपराध की श्रेणी में आता है. समझ नहीं आता कि फिर भी मधु किश्वर जैसी सभ्रांत महिलाएं ऐसे आयोजनों को तर्क-संगत बता रही हैं. इस स्टेज शो को कोई भी पढ़ी-लिखी महिला अपने बेटे-बेटियों या बहुओं के साथ देखने में शर्म महसूस करेगी! क्या इसे स्वस्थ मनोरंजन की श्रेणी में डाला जा सकता है? कुछ लोगों ने इसकी तुलना कला से की है, इसे कार्टून बनाने की तरह की एक विधा करार दिया है. परन्तु यह बात किसी के गले नहीं उतरती.
आप सब जानते हैं कि नैतिकता की कोई सीमा नहीं होती परन्तु जो अनैतिक है वह सबको मालूम है. अगर यह सच है तो इस विषय में बहस करना ही अनावश्यक है. बात इतनी सी है कि जो गाली आपको अच्छी नहीं लगती, वह दूसरों को कैसे अच्छी लगेगी? जब इस प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा तो शायद कोई भी व्यक्ति ऐसे कार्यक्रमों को दिखाने या बढ़ावा देने की भूल नहीं करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है.


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