My expression in words and photography

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

एल.पी.जी.सब्सिडी पर रोक

आजकल सरकार अमीरों को मिलने वाली एल.पी.जी. सिलेंडर पर सब्सिडी रोकने पर विचार कर रही है. समझ नहीं आता कि इस तरह से सरकार कितने रुपयों में बचत कर लेगी? देश में अमीरों की संख्या कितनी है? अगर मुट्ठी-भर अमीरों ने साल भर में एक गैस सिलेंडर अतिरिक्त उपयोग कर भी लिया तो कौन-सा पहाड़ टूट जाएगा? जो अमीर व्यक्ति देश को लाखों रूपए कर के रूप में दे रहे हैं, उन्हें एल.पी.जी. की मामूली सब्सिडी अगर चली भी गई तो क्या हर्ज है? सरकार अपने संसाधनों की चोरी पर अंकुश क्यों नहीं लगाती?
जो अपना आयकर ईमानदारी से देता है उस पर सभी प्रतिबन्ध लागू हो सकते हैं. जो व्यक्ति कोई कर नहीं देते वे फर्जी ढंग से सभी प्रकार के फायदे सरकार से लेते रहते हैं. अगर देखा जाए तो हमारे जनप्रतिनिधि ही सर्वाधिक सिलेंडरों की खपत कर रहे हैं. क्या सरकार ने उन पर कोई अंकुश लगाने की बात सोची है? ये लोग बिजली और टेलीफोन का भी सबसे अधिक उपयोग करते हैं तथा अपने बिल भी समय पर नहीं चुकाते. सरकार इन लोगों पर तो कोई कार्यवाही नहीं करती!

इस तरह के नकारात्मक क़दमों से देश में भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा मिलता है. यदि किसी अधिक वेतन पाने वाले कर्मचारी से सरकार सब्सिडी हटाएगी तो वह एल.पी.जी. का कनेक्शन कम आय वाले परिवार के किसी और व्यक्ति के नाम से भी तो ले सकता है. अगर ऐसा हुआ तो फिर सरकार क्या कर लेगी? घरेलू एल.पी.जी. सिलेंडरों के व्यावसायिक उपयोग को तो वह रोक नहीं पाई अब इस तरह की कवायद करके भी क्या हासिल हो जाएगा? अगर सब्सिडी को नियंत्रित करना ही है तो घरेलू गैस के उपयोग को वाहनों में प्रतिबंधित करना चाहिए. 

स्कूलों में संस्कृत या जर्मन?

आजकल केन्द्रीय विद्यालयों में संस्कृत को तीसरी भाषा के रूप में पढाने पर एक नया विवाद छिड़ गया है. अभी कुछ समय पहले तक इसके स्थान पर जर्मन भाषा पढ़ाई जाती थी. यह अत्यंत आश्चर्यजनक बात है कि हमारे देश में इतनी अधिक संख्या में समृद्ध भाषाएँ होते हुए भी हम विदेशी भाषाओं के प्रति अपने मोह को दूर नहीं कर पा रहे हैं.
समूचे भारत में तीन भाषाएँ पढ़ने व सीखने का चलन पहले से ही है. इसके अनुसार स्कूली बच्चों को एक क्षेत्रीय भाषा के साथ अंग्रेजी तथा हिन्दी का ज्ञान दिया जाता है. एक अंग्रेजी अखबार में छपे सर्वेक्षण के अनुसार भारतीय बच्चे संस्कृत के स्थान पर विदेशी भाषा पढ़ने को ही अहमियत देते हैं. अखबार का कहना है कि ये बच्चों को एक अच्छे रोज़गार की ओर भी अग्रसर करता है. हम इसे विडम्बना ही कहेंगे कि हमारी सोच कितनी छोटी है? जर्मन या फ्रेंच भाषा सीख कर कितने लोग रोज़गार पा सकते हैं? मुश्किल से कुछ सौ या हज़ार व्यक्ति ही इन भाषाओं को सीख कर नौकरी पा सकते हैं. अगर देखा जाए तो हिन्दी सीखे हुए लाखों और करोड़ों लोगों को आज नौकरी के कहीं बेहतर अवसर मिल रहे हैं.
इन अंग्रेजियत तथा विदेशी भाषाओं के समर्थकों से कोई आज ये तो पूछे कि जर्मनी व फ्रांस के कितने लोग हिन्दी सीखना चाहते हैं? शायद कोई भी नहीं. कारण स्पष्ट है, इन्हें अपनी जबान से बढ़ कर कुछ भी अच्छा नहीं लगता. फ्रांस में तो आप अंग्रेजी में बात नहीं कर सकते. वहाँ सभी साइन-बोर्ड उनकी अपनी फ्रेंच भाषा में ही पढ़ने को मिलते हैं. हमारे देश के लोगों को अंग्रेज़ न जाने कौन सी घुट्टी पिला गए हैं, जो ये अब भी अंग्रेजी की भक्ति और महिमा-मंडन में लगे हुए हैं!
तीसरी भाषा संस्कृत ही सहीकम से कम आप अपने बच्चों को भारतीय भाषा ही तो सिखा रहे हैं! इसमें बुरा क्या है? फ्रेंच या जर्मन सिखाने से तो अच्छा है आप अपने ही देश की किसी भाषा को तीसरी भाषा का स्थान दें! क्या हमारे देश में भाषाओं की कमी है? विदेशी भाषा तो आप स्नातक अथवा स्नातकोत्तर करने के बाद भी सीख सकते हैं. हम विदेशी भाषा सीखने पर प्रतिबन्ध लगाने की बात नहीं कर रहे हैं. मेरे विचार में स्वदेश रहते हुए किसी विदेशी भाषा को तीसरी भाषा का सम्मान देना निंदनीय है.

कोई भी व्यक्ति अगर चाहे तो संस्कृत भाषा में अपना केरियर बना सकता है. आजकल देश में संस्कृत पढाने वाले अध्यापकों की काफी माँग है. हमारे प्राचीन धर्म-ग्रन्थ संस्कृत में हैं, जिनकी टीका करके लोग आज अपना नाम कमा रहे हैं. जर्मनी में तो वेदों के संस्कृत ज्ञान पर लगातार अनुसंधान होता रहा है. प्राचीन आयुर्वेद के हज़ारों नुस्खे संस्कृत में लिखे हैं, जिन्हें कोई भी व्यक्ति संस्कृत ज्ञान के बिना नहीं समझ सकता. आधुनिक भाषाओं का अपना महत्व है, परन्तु संस्कृत जैसी प्राचीन एवं समृद्ध भाषा को कमतर बता कर नहीं आंका जा सकता. हरियाणा के सभी स्कूलों में यह भाषा नियमित रूप से पढ़ाई जा रही है. विश्वविद्यालयों में संस्कृत का अलग विभाग होता है. विदेशों के विश्वविद्यालयों में तो संस्कृत की एक अलग से पीठ भी स्थापित की गई है.

बुधवार, 26 नवंबर 2014

हमारी साख में गिरावट क्यों?

लोग अक्सर पूछते हैं कि विदेशों तथा भारतीय लोकतंत्र व्यवस्था में मूलभूत अंतर क्या है? किसी जमाने में हमारी व्यवस्था सभी पश्चिमी देशों से बेहतर होती थी परन्तु अब हमने अपनी सारी ‘साख’ ही गंवा दी है. उस समय हमारे देश में आर्थिक लेन-देन के समय किसी लिखत-पढ़त का कोई चलन नहीं था परन्तु आजकल लोग लिखे हुए को भी आसानी से नकारने लगे हैं. लोग बैंकों से ऋण लेकर चुकाने से मना कर देते हैं. हमारे नेता वोट मांगने के लिए जो भी वायदा करते हैं, उसे पूरा नहीं करते. सम्भव है कुछ नेताओं की साख अच्छी हो, परन्तु अधिकतर नेताओं द्वारा अपनी ‘साख’ गंवा देने से लोग इन पर सहज विश्वास नहीं करते.
‘साख’ की आवश्यकता केवल नेता और जनता तक ही सीमित नहीं है. अगर मां-बाप भी अपने बच्चों से किए गए वायदे पूरे न कर सकें तो इन्हें कोई अधिकार नहीं है कि वे उनको झूठे सपने दिखाएँ. कई बार इस तरह की प्रवृति से बच्चे बिगड़ जाते हैं तथा उन्हें दोबारा पटरी पर लाना वास्तव में बड़ा कठिन होता है. आप रेल की टिकट खरीद कर नियत समय पर स्टेशन तो पहुँच जाते हैं लेकिन वहाँ जा कर मालूम होता है कि गाड़ी के आने का समय बदल गया है. परिणामस्वरूप आपको भारी परेशानी झेलनी पड़ती है. भारतवर्ष में बसों, रेलों, जहाज़ों का आवागमन प्रायः सही समय पर नहीं होता. इस दुर्व्यवस्था के चलते हमारे यहाँ यातायात प्रणाली को अत्यंत संदेह की दृष्टि से देखा जाता है. लोग अपने गंतव्य स्थल तक पहुँचने के लिए समय से काफी पहले ही घर से निकल जाते हैं. जाहिर है यह सब यातायात व्यवस्था के ‘साख’ खो देने से ही हुआ है.
अगर हम पूंजी बाज़ार की बात करें तो लोग यहाँ अपना रुपया ऐसी कंपनियों में निवेश करते हैं जिनका पुराना रिकोर्ड अच्छा हो. कुछ कंपनियां प्राइमरी मार्केट से रूपए की उगाही तो कर लेती हैं परन्तु शीघ्र ही ऐसे गायब हो जाती हैं जैसे गधे के सिर से सींग! ऐसा हमारे तंत्र में कानूनी ढील के कारण ही होता है. आजकल निवेशकों के हित को ध्यान में रखते हुए ‘सेबी’ अर्थात भारतीय प्रतिभूति एक्सचेंज बोर्ड का गठन किया गया है. लेकिन हमारी कुछ कंपनियों के मालिक तो ऐसे हैं कि तू डाल-डाल, मैं पात पात. इन्हें इस व्यवस्था में भी कुछ खामियों का पता चल जाता है और ये किसी न किसी तरह जनता का धन लूटने में सफल हो ही जाते हैं. यद्यपि इस प्रकार की लूट-मार बहुत कम कंपनियां ही करती हैं परन्तु इसके कारण समूचे शेयर बाज़ार की ‘साख’ को बट्टा लगता है. क्या भविष्य में कोई शेयरधारक पूंजी बाज़ार का रुख कर पाएगा? कदापि नहीं. आज हमारे शेयर बाज़ार की विश्वसनीयता लगभग समाप्त हो चुकी है. कम से कम छोटे निवेशक तो इसके आसपास भी नहीं फटकते. किसी समय लोग इसमें निवेश करने के लिए हरदम तत्पर रहते थे परन्तु तथाकथित बे-इमान उद्यमियों ने इसकी साख को चौपट कर दिया है.
आजकल हमारी करेंसी ‘रूपए’ पर भारी अंतर्राष्ट्रीय दबाव है. इसका मुख्य कारण है सरकार द्वारा लिया गया ऋण. आज भारतीय आयात भी निर्यात की तुलना में बहुत अधिक है. इस वजह से भी हमारी मुद्रा पर दबाव बना रहता है. हमें दूसरे देशों से माल खरीदने के लिए डॉलर में भुगतान करना होता है. अतः डॉलर का मूल्य रूपए की तुलना में कहीं अधिक बढ़ने लगा है. अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों से प्राप्त ऋणों की वापसी भी डॉलरों में होने से हमारी ऋण अदायगी प्रभावित होती है. किसी भी देश को मिलने वाला ऋण उस देश की अंतर्राष्ट्रीय ‘साख’ पर निर्भर करता है. ‘साख’ का मूल्यांकन कई विदेशी रेटिंग एजेंसियों द्वारा किया जाता है. किसी भी देश की ‘साख’ वहाँ की राजनैतिक तथा आर्थिक व्यवस्था पर निर्भर करती है. संक्षेप में कहा जा सकता है कि हमारी ‘साख’ व्यक्तिगत स्तर से लेकर गली मोहल्ले, शहर, राज्य, देश व अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक मायने रखती है. अगर हमारी ‘साख’ अच्छी न हो तो कोई भी बैंक हमें ऋण नहीं देगा.

हमारी हर रोज की खरीद-फरोख्त जो क्रेडिट कार्ड से होती है, वह भी ‘साख’ से ही नियंत्रित होती है. जो लोग समय से अपने कार्ड की राशि अदा कर देते हैं उनकी खरीद सीमा बैंक द्वारा बढ़ा दी जाती है. इसी तरह वाहन एवं गृह निर्माण हेतु मिलने वाले ऋणों में भी किसी व्यक्ति की ‘साख’ को ही देखा जाता है. अगर हमारे देश में कोई एक व्यक्ति अपराध करता है तो इसकी छवि शहर से लेकर राज्य के स्तर तक प्रभावित होती है. किसी भी राज्य में संगठित अपराधियों के गिरोह होने से पूरे राज्य की बदनामी होती है. इसी प्रकार इधर-उधर गंदगी फैलाने से हमारे देश में आने वाले पर्यटकों की ‘राय’ कभी अच्छी नहीं हो सकती. गलती कुछ लोग ही करते हैं जबकि ‘साख’ पूरे देश की प्रभावित होती है. क्या आप चाहेंगे कि हमारी ‘साख’ कम हो? हम अपने देश की ‘साख’ बढ़ाने के लिए क्या कर सकते हैं? जाहिर है हमें जितना लगाव अपनी ‘साख’ से है उतना ही लगाव देश की ‘साख’ से भी होगा. तो आइए, हम सब कुछ ऐसे काम करें कि हमारी तथा हमारे देश की ‘साख’ को कोई बट्टा न लगे!

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

बेटी बड़ी हो गई है!

देखो अब बेटी बड़ी हो गई है
अपने पैरों पर खड़ी हो गई है!

समझते थे जिसको सब नादान
आज हो गई है वह सबसे महान
माला की मजबूत कड़ी हो गई है.
देखो अब बेटी बड़ी हो गई है
अपने पैरों पर खड़ी हो गई है!

उसके कारण घर में बहार है
जैसे चलती कोई ठंडी बयार है
सावन की शीतल झड़ी हो गई है.
देखो अब बेटी बड़ी हो गई है
अपने पैरों पर खड़ी हो गई है!

घर में सब पर उस का रौब है
पढ़-लिख कर पाया इक ‘जॉब’ है
सबको पढाने वह खड़ी हो गई है.
देखो अब बेटी बड़ी हो गई है
अपने पैरों पर खड़ी हो गई है!

बेटी ने सभी को जगाया है
हमारे घर को महकाया है
ज़िंदगी की अनमोल घडी हो गई है.
देखो अब बेटी बड़ी हो गई है

अपने पैरों पर खड़ी हो गई है! –अश्विनी रॉय ‘सहर’

महाराष्ट्र का महासंग्राम!

महाराष्ट्र विधानसभा में किसी भी दल को बहुमत न मिलने के कारण बड़ी विचित्र परिस्थितियाँ बनती जा रही हैं. जहां शिवसेना ने बी.जे.पी. का विरोध करने का मन बनाया है, वहाँ एन.सी.पी. ने हर हाल में बी.जे.पी. को बिना शर्त समर्थन देने की बात कही है. यह अत्यंत चिंता का विषय है कि हमारे दल राजनीति से ऊपर उठ कर लोक भलाई के विषय में नहीं सोचते. अगर किसी दल को बहुमत न मिले तो दोबारा चुनाव करवाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहता. आजकल बार-बार चुनाव करवाने से जनता को महँगाई की मार पड़ती है. सरकार जो रुपया चुनावों पर खर्च करती है वह भी जनता की गाढ़ी कमाई से ही आता है. ऐसे में मध्यावधि चुनावों से हर हाल में बचना चाहिए.
कुछ दल अपने राजनैतिक अहम के कारण एक दूसरे का विरोध करते हैं जो किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता. हालांकि बी.जे.पी. ने एन. सी.पी. से कोई समर्थन नहीं माँगा, फिर भी उन्होंने राज्य के हित में वर्तमान सरकार को बिना शर्त अपना समर्थन देने का फैसला किया है जिसकी प्रशंसा की जानी चाहिए. कुछ दलों को इस फैसले पर सख्त एतराज़ है क्योंकि चुनाव से पहले बी.जे.पी. और एन.सी.पी. एक दूसरे के घोर विरोधी रहे हैं. ज्ञातव्य है कि शिवसेना और बी.जे.पी. भी तो एक दूसरे के विरोध में अलग-अलग चुनाव लड़े थे, फिर इन दोनों का मेल भी कैसे पवित्र हो सकता है? इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है.
हमारे विधायक केवल सत्ता की राजनीति करते हैं. जब शिवसेना को उनकी इच्छानुसार मंत्रालय नहीं मिल पाए तो उनका विरोध मुखर हो कर सामने आ गया. शिवसेना को एन.सी.पी. द्वारा बी.जे.पी. को समर्थन मिलने पर भी सख्त एतराज़ है क्योंकि इसी कारण उनका बी.जे.पी. से गठजोड़ नहीं हो पाया. आजकल की दूषित राजनीति को स्वच्छ करने के लिए सरकार को एक नए संविधान संशोधन पर विचार करना चाहिए जिसके अनुसार किसी दल या गठजोड़ को बहुमत न मिले तो राज्यपाल सबसे बड़े दल या गठजोड़ के नेता को सरकार बनाने के लिए कहे, चाहे यह अल्पमत सरकार ही क्यों न हो! हाँ, कोई भी क़ानून तभी पास होगा जब प्रांतीय विधायक बहुमत से इसका समर्थन करें.

हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली भी राजनैतिक विद्वेष का शिकार हुई है. यहाँ के लोगों ने चुनावों में बढ़-चढ़ कर भाग लिया, फिर भी वहाँ कोई सरकार नहीं बन पाई. जो सरकार बनी, उसने कतिपय ओछी दलीलें दे कर कुछ दिन बाद इस्तीफा दे दिया. अब यहाँ दोबारा चुनाव होंगे. यह विचारणीय है कि अगर फिर भी किसी दल को बहुमत न मिला तो क्या होगा? आखिर एक अल्पमत सरकार बनने देने में क्या हर्ज है, बशर्ते इसे जनता द्वारा चुना गया हो!  

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2014

आओ पेड़ लगाएं

आओ हम सब पेड़ लगाएं  
जीवन एक आदर्श बनाएँ!   

कहीं भी जाएँ, कहीं से आएं
अपने पेड़ से मिलकर जाएँ
अपनी व्यथा जिसे कह पाएं
ऐसा जीवन-साथी बनाएं.
आओ हम सब पेड़ लगाएं
जीवन एक आदर्श बनाएँ!

पेड़ों से हरियाली आए
जीवन में खुशहाली आए
वर्षा लाएं, प्रदूषण मिटाएं
पेड़ हमारे बहुत काम आएं
आओ हम सब पेड़ लगाएं
जीवन एक आदर्श बनाएँ!

पेड़ों पर निर्भर सब पक्षी
शाकाहारी हों या परभक्षी 
पेड़ों की छाया में आकर
सब अपनी थकान मिटाएं
आओ हम सब पेड़ लगाएं   
जीवन एक आदर्श बनाएँ!

                  –अश्विनी रॉय ‘सहर’

ये संवेदनहीनता है या संवेदनशीलता?

हाल ही में नोबेल शान्ति पुरस्कार की घोषणा हुई है. नोबेल पुरस्कार समिति ने इस बार यह पुरस्कार स्वात घाटी पाकिस्तान की मलाला युसुफजई तथा भारत के कैलाश सत्यार्थी को दिया है. हमारी ओर से इन्हें इस उपलब्धि पर खूब बधाई हो!
नोबेल समिति ने अपने फैसले में यह भी उल्लेख किया है कि यह पुरस्कार एक हिन्दू व मुसलमान को संयुक्त रूप से दिया गया है. इसका क्या तात्पर्य हो सकता है? क्या शान्ति पुरस्कार देते समय भी हिन्दू और मुसलमान का ध्यान रखना आवश्यक है? क्या नोबेल समिति अधिक संवेदनशील हो गई है या फिर मानव-मानव में भेद करने पर अधिक संवेदनहीन हुई है? उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी जीवन-पर्यंत अछूतोद्धार हेतु संघर्ष करते रहे, परन्तु उन्हें कभी भी इस पुरस्कार के योग्य नहीं समझा गया. निःसंदेह आजकल किसी को भी कोई पुरस्कार मिलता है, तो वह बधाई का पात्र है. जाहिर है सभी भारतीयों को इस पर खुशी हुई होगी परन्तु इस पुरस्कार की पृष्ठ-भूमि क्या है? अगर हमारे देश में बच्चों का शोषण न हुआ होता तो क्या यह पुरस्कार किसी को मिल पाता? शायद ये लगभग असंभव ही था. इसी तरह मलाला युसुफजई पर जान-लेवा हमला न होने की स्थिति में भी यह पुरस्कार किसी भी हालत में घोषित न हुआ होता.
क्या हमारे संविधान में बाल-अधिकारों की सुरक्षा के लिए कोई कानूनी व्यवस्था नहीं है? यदि है तो क्या यह व्यवस्था पर्याप्त नहीं है? ऐसा क्यों होता है कि दीवाली के अवसर पर बनाए जाने वाले अधिकतर पटाखे हमारे बच्चे अपनी जान को जोखिम में डाल कर बनाते हैं? बाल-श्रमिकों से जोखिम भरे काम लेना न केवल गैर-कानूनी है अपितु अनैतिक भी है. फिरोजाबाद में मैंने बहुत से बाल श्रमिकों को चूड़ी उद्योग में अपने हाथ खराब करते हुए देखा है. यह अत्यंत शर्म की बात है कि हम अपने बच्चों से उनका बचपन छीनते जा रहे हैं. जो काम सरकार को सख्ती से क़ानून लागू करके करना चाहिए, उसे सामाजिक संगठनो द्वारा अपने स्तर पर करवाने की चेष्टा होती है. ध्यातव्य है कि अधिकतर बच्चे आज भी देश में बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं. यह हमारी संवेदनहीनता का ही परिचायक है.
अक्सर देखा गया है कि पहले हमारी संवेदनहीनता से गैर कानूनी कार्यों को बढ़ावा मिलता है फिर उन्हें छोड़ने व छुडवाने का प्रयास करने पर पुरस्कृत करके संवेदनशीलता का परिचय दिया जाता है. क्या कोई सरकार इस तरह मिलने वाले नोबेल पुरस्कार पर अपनी पीठ ठोक सकती है? यह कदापि सम्भव नहीं है. जब भी इतिहास में इस पुरस्कार का जिक्र होगा तो इसके साथ हमारे यहाँ बाल-श्रमिकों की दुर्दशा का भी बखान होगा! तो क्या हम इस तरह के पुरस्कार पर जश्न मना कर अपनी निंदा करवा सकते हैं? शायद हम इतने भी संवेदनहीन नहीं हैं. उल्लेखनीय है कि बहुत से विकसित देशों में इस प्रकार के कार्यों पर पुरस्कार देने की नौबत ही नहीं आती. जाहिर है वहाँ इस तरह के कार्य करना सभी नागरिकों का मूलभूत कर्तव्य है.

तो क्या नोबेल शान्ति पुरस्कारों का दायरा सीमित होकर रह गया है? इतिहास में कई बार ये पुरस्कार राजनैतिक एवं भूगोलिक कारणों से भी दिए गए हैं. इससे नोबेल निर्णय समिति की साख को अवश्य ही ठेस पहुंचती है. पहले कई विश्व-नेताओं को निरस्त्रीकरण एवं शान्ति को बढ़ावा देने के लिए नोबेल शान्ति पुरस्कार दिया गया था. यदि इन सबकी पृष्ठभूमि देखी जाए तो मालूम होगा कि ये लोग आरम्भ में तो अस्त्रों की दौड में भाग ले रहे थे और बाद में इस पर नियंत्रण करके वाह-वाही लूट ले गए. उल्लेखनीय है कि जब देशों में अस्त्र-शस्त्र की होड़ लगी, तो उन्हें बेच कर धन कमाया. जब सामरिक हितों की खातिर इन पर नियंत्रण करने की सोची तो नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर खूब मान-सम्मान पाया. क्या इन पुरस्कारों का कोई मानवीय औचित्य नहीं हो सकता? क्या नोबेल पुरस्कार समिति थोड़ा और संवेदनशील हो पाएगी?

शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

ये कैसा बाज़ार!


आइए, आपका स्वागत है इस बाज़ार में! यहाँ सब कुछ बिकता है. आपको दुनिया की हर चीज़ यहाँ मिल सकती है सिवाय एक चीज़ के जिसका न कोई खरीदार है और न ही कोई बेचवाल. जब तक हम अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, आप इस विषय में सोचते रहिए.
आजकल के बाजारीकरण व्यवस्था में प्रायः हर वस्तु बिकने के लिए तैयार है. यह बात अलग है कि कीमत का निर्धारण इसकी आपूर्ति एवं माँग पर निर्भर करता है. अगर माँग ज्यादा हो और आपूर्ति कम, तो जाहिर है बाज़ार में इसके मुंह मांगे भी दाम मिल सकते हैं. उपभोक्ता संस्कृति के इस दौर में टी.वी., फ्रिज, एयरकंडीशनर, वाशिंग मशीन, स्कूटर, कार, बाइक और न जाने क्या-क्या खरीदना चाहते हैं लोग, लेकिन फिर भी खुश नहीं हैं. कारण स्पष्ट है कि रूपए से आप सामान तो खरीद सकते हैं, लेकिन खुशियां नहीं.
अगर कोई बीमार है तो उसे बाज़ार से दवाएं तो मिल सकती हैं, इलाज भी मिल सकता है लेकिन अच्छा स्वास्थ्य भी मिले, इस बात की कोई गारंटी नहीं. हमें उपभोक्तावाद ने आज मजबूत जंजीरों से जकड लिया है. लोगों में कोई प्रेम नाम की चीज़ दिखाई नहीं देती. हर व्यक्ति के पास मोबाइल फोन है मगर उसे इस पर भी बात करने की फुर्सत नहीं. रिश्ते, नाते, मित्र व सम्बन्धी आजकल जेब में हर समय मौजूद हैं, लेकिन वास्तव में वे सब बहुत दूर हैं. कहते हैं कि टेलीफोन व मोबाइल के आने के बाद ये दुनिया एक गाँव में तब्दील हो गई है और हर कोई एक दूसरे के करीब आ गया है. परन्तु हकीकत कुछ और ही है. हम मोबाइल के नज़दीक हैं लेकिन हमारे मित्र व संबंधी हमसे कोसों दूर हैं. हर रोज सोचते हैं कि कल आराम से बैठ कर उनसे बात करेंगे, लेकिन कल कभी आती नहीं और सिलसिला इसी तरह चलता रहता है. अगर कोई नाराज़ हो जाए तो हमें उसे मनाने की फुर्सत नहीं है. अगर मनाने की सोचें तो कोई दूसरी घंटी बजने लगती है और मामला जहां का तहां रह जाता है.
हमारी हालत यहाँ तक आ पहुंची है कि स्कूल में बच्चे अपने मां-बाप के स्थान पर किसी भी व्यक्ति को रूपए देकर अपना अभिभावक बना लेते हैं. जब बच्चे पूरी तरह से बिगड जाते हैं तो पता चलता है कि हम उपभोक्तावाद की दुनिया में किस तरह लापता हो गए थे. आज के युग में सभी रिश्ते-नाते बिकने लगे हैं. शादी हो तो आप भाड़े के बाराती इकट्ठे कर सकते हैं. मातम के लिए भी किराए पर लोग मिल जाते हैं. अगर कुछ नहीं मिलता तो वह है मानसिक शान्ति.
वर्तमान उपभोक्ता संस्कृति को कहीं तो रुकना पडेगा न! शरीर को आराम की इतनी गंदी लत पड़ गई है कि अब कुछ काम करने को मन ही नहीं होता. ज़रा सोचिए, इसके लिए आखिर कौन जिम्मेवार है? यह सही है कि कुछ आधुनिक यंत्र हमारे जीवन को आरामदेह बनाने के साथ कार्य को तेज़ी से कर सकते हैं परन्तु जल्दी काम निपटने की चाहत में हम अपने आपको भी नष्ट करते जा रहे हैं. कही ऐसा तो नहीं कि एक दिन हमारे स्थान पर मशीन आ जाए और हम कहीं पर भी मौजूद न हों!
एक खबर के अनुसार अमेरिका के एक घर का दरवाजा पिछले दस दिनों से बंद था. पड़ोसियों को भी इतनी फुर्सत नहीं थी कि इस विषय में कोई जानकारी लें. हाँ, कई बार उन्हें कोई संगीत की ध्वनि अवश्य सुनाई दे जाती थी. जब उस घर से बदबू आने लगी तो पुलिस को बुलाया गया. अंदर का दृश्य देख कर हर कोई हैरान था. सोफे की एक कुर्सी पर कोई कंकाल बैठा हुआ टी.वी. देख रहा था क्योंकि शरीर के सड़ने-गलने से अब केवल हड्डियों का ढांचा ही दिखाई दे रहा था. वह वृद्ध व्यक्ति अपने घर में अकेला ही रहता था. एक दिन टी.वी. देखते हुए उसकी मृत्यु हो गई और किसी को भी इस की खबर न हो सकी. इस सत्य कथा से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि हम अपनों की बजाए अब वस्तुओं पर अधिक भरोसा करने लगे हैं. यह अवश्य ही चिंतन का विषय हो सकता है.

आप अधीर हो रहे होंगे कि इस दुनिया में ऎसी कौन-सी चीज़ है जो नहीं बिकती. जी हाँ, आपका अनुमान सही है. वह चीज़ है ईमान. ईमान को न कोई खरीद सकता है और न ही बेच सकता है. ईमान सिर्फ अपनों के पास होता है. अगर अपने ही रूठ जाएँ तो सब कुछ बेकार हो जाता है. अतः हमें अपने अपनों का सम्मान करना चाहिए. हमारे उनके साथ सम्बन्ध हमेशा मधुर रहने चाहिएं. चीज़ें इस्तेमाल के लिए हैं इन्हें इस्तेमाल मे लाइए किन्तु इनके लिए अपनों का त्याग हरगिज़ न करें. चीज़ें बाज़ार से दुबारा भी खरीद सकते हैं लेकिन अपने सगे रिश्तेदार और संबंधी कहीं नहीं मिलते.  

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

'आजादी'

आजादी वो नहीं
जो उड़ना चाहे
मगर उड़ न सके!
आजादी वो भी नहीं
जो उड़ने दे सिर्फ तुम्हें, लेकिन
दूसरों के पर काट डाले!
आज़ादी तो वो है
जो  उड़ने दे तुम्हें, मगर
दूसरों के साथ-साथ!
बाँटे भरपूर खुशियाँ
हम सबके दरमियाँ!
आजादी देह की ही नहीं
बल्कि मन की भी हो!
आजादी तेरी-मेरी नहीं

बल्कि जन-जन की हो! -अश्विनी रॉय 'सहर'

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

बात पते की-

यह सच है कि
नज़दीक के रिश्ते दूर
और दूर के रिश्ते
नज़दीक लगते हैं.
मगर ये भी सच है कि
दूर का रिश्तेदार
बात ही नहीं करता.
जबकि नज़दीक का रिश्तेदार
बहुत काम आता है! –अश्विनी रॉय ‘सहर’

टी.आर.पी. के लिए कुछ भी करेगा!


हमारे टी.वी. मीडिया की धाक देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी खूब है. ये लोग किसी भी अधूरी खबर को सनसनीखेज तरीके से दिखाने में माहिर हैं. पिछली सरकार ने इन्हें करोड़ों रूपए के विज्ञापन देकर इतना उपकृत कर दिया था कि अब इन्हें उस सरकार की नाकामी का ज़िक्र करना भी सहज नहीं लगता. क्या हमारा मीडिया वास्तव में इतना गैर जिम्मेदार है? अगर आप कुछ तथ्यों पर निगाह डालें तो यह स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगा.
1.  जब मौजूदा सरकार ने सत्ता संभाली तो इन्हें महँगाई विरासत में मिली. यह सही है कि प्याज महंगे हुए परन्तु यह भी सच है कि पिछली सरकार के समय में जिस दाम पर प्याज बेचे गए, अभी उससे आधे दाम पर ही बेचे जा रहे हैं.
2.  सरकार को सत्ता संभाले अभी दो महीने भी नहीं हुए कि इसे नकारा और निकम्मा साबित करने के लिए कई चैनलों में होड़ लगी है.
3.  इराक से सैंकडों भारतीयों को छुडवा कर स्वदेश लाया गया है परन्तु टी.वी. मीडिया ने इसे कोई तरजीह नहीं दी. ज्ञातव्य है कि भारतीय नर्सों के वहाँ फंसे होने की खबर दिन-रात प्रसारित होती रही थी.
4.  सरकार ने कटड़ा तक जो रेल चलाई है उसे ‘कटरा’ लिख कर प्रचारित कर रहे हैं जबकि सरकार द्वारा स्थापित रेलवे स्टेशन पर भी ‘कटड़ा’ शब्द ही अंकित है. क्या यह भाषाई प्रदूषण हमारे टी.वी. मीडिया की देन नहीं है?
5.  सरकार के एक मंत्री ने ‘पब’ कल्चर को बढ़ावा न देने की बात क्या कह दी, सभी टी.वी. चैनल इसे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का उल्लंघन मान कर चिल्लाने लगे. कुछ लोग ‘पब’ में  जाकर शराब पीने में अपनी शान समझते हैं. यह चलन पश्चिमी देशों से आया है जिसे भारत में अधिकतर लोग बुरा मानते हैं. परन्तु टी.वी. मीडिया द्वारा इस खबर को सत्ता और विपक्ष के बीच एक संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया गया है.
6.  उपर्युक्त घटना पर मीडिया द्वारा ‘डीबेट’ अर्थात परिचर्चा का आयोजन किया गया जिसमें समाज सेवी, महिलाओं के हितों से जुड़े लोगों और राजनेताओं ने भाग लिया. क्या मीडिया केवल खबर ही पेश करता है या उसे अच्छा या बुरा बताने से भी बचता है?
7.  ज्ञातव्य है कि हमारे देश में शराब पीने से लाखों लोगों का स्वास्थ्य खराब होता है तथा इसे पी कर जो क़ानून व व्यवस्था की बदतर स्थिति बनती है, उसमें असंख्य अपराध होते हैं.
8.  जहां आम नागरिक को सुरक्षित माहौल मयस्सर न हो वहाँ आप ‘पबों’ में क़ानून और व्यवस्था बनाने के लिए कैसे अतिरिक्त बल तैनात कर सकते हैं? युवा लड़के व लड़कियों द्वारा ‘पब’ में शराब पीने से अनावश्यक अपराधी प्रवृत्तियाँ हावी होने लगती हैं जिसे समाज के शांतिप्रिय लोग पसंद नहीं करते.
9.  क्या शराब बंदी किसी राजनैतिक दल की ‘कल्चर’ है? कम से कम हमें तो ऐसा नहीं लगता. महिला हितों की रक्षा करने वाली आयोग की अध्यक्षा यह कहते हुए सुनी गई कि भारत में पश्चिमी सभ्यता बरसों से आ रही है अतः इस पर अंकुश लगाना ठीक नहीं है. वह परोक्ष रूप से महिलाओं के ‘पब’ में जा कर शराब पीने के अधिकार की वकालत करती हुई नज़र आई.
10. दिल्ली के एक स्कूल की प्रिंसिपल को भी आमंत्रित किया गया था, जो पब में शराब पीने को बुरा नहीं मानती. क्या ये प्रिंसिपल महोदय अपने घर में भी अपने सदस्यों को शराब परोसने के हक में हैं? अगर नहीं, तो क्यों? जो कृत्य घर में बुरा है वह ‘पब’ में क्यों नहीं?
11. कांग्रेस के एक नेता ने तो यहाँ तक कह दिया कि शराब पीना उनकी पारिवारिक परम्परा है, इस पर कोई रोक नहीं लगा सकता. क्या गुजरात राज्य में लागू शराब बंदी गैर कानूनी है? अगर नहीं, तो इसे अन्य राज्य लागू क्यों नहीं कर सकते? क्या किसी को शराब पीने की इजाजत केवल इस लिए दे दी जाए कि यह उनकी खानदानी परम्परा है?
12. अधिकतर चैनल घुमा-फिरा कर ‘पब’ में शराब परोसने को बढ़ावा देते हुए नज़र आए. कुछ ने तो यह भी कहा कि इस बयानबाजी की आड़ में संघ परिवार अपना अजेंडा आगे बढ़ा रहा है. तो क्या ये कोई राजनैतिक आंदोलन है?
13. क्या हमारे टी.वी. मीडिया की अपने समाज के प्रति कोई जवाबदेही नहीं बनती? क्या ये अपराध करते हुए लोगों की फोटो ही दिखा कर अपने कर्तव्य की इति-श्री कर लेते हैं?
14. हमारा टी.वी. मीडिया देश की ज्वलंत समस्याओं के प्रति गंभीर नहीं है. वह ओछी मानसिकता वाली ख़बरें और परिचर्चा दिखा कर अपनी टी.आर.पी. रेटिंग बढ़ाने में विश्वास करता है. देश के हित की इसे कोई खबर नहीं है.

15. कोई खबर हाथ लगने की देर है, बस डौंडी बजानी शुरू हो जाती है. सुबह से शाम तक एक ही सुर में सब चैनल अपना एक ही राग अलापने लगते हैं. आजकल ‘टमाटर’ को ही एक राष्ट्रीय मुद्दा बना लिया है. क्या टमाटर के बिना जीवन समाप्त हो जाएगा? शायद, हमारा टी.वी. मीडिया तो यही सोचता है!