एक लड़का
मैंने देखा
एक लड़का
जो गा रहा था
और बजा रहा था
सारंगी पर वे धुनें
जो थी जमाने के लिए
चला जा रहा था बस
अपनी ही धुन में
वह सबका
मनोरंजन करता हुआ
मुसीबत का मारा
लाचार बेबस
पैबंद लगे थैले में
ढो रहा था
शायद अपनी गरीबी
बढ़ता जा रहा था
आगे की ओर कहीं
अनजान पथ पर वह
आखिर क्यों होता है
ये सब
जमाने ने बनाया
गरीब इसको
होता है सबका
मनोरंजन क्यों इससे
मिलता है बदले में जो
रख लेता है वह उसको
न जाने कब लौटेंगे
वो दिन
जब गायेगा वह गीत
अपने लिए
और रहेगा जमाने में
फिर ऐसे
मुस्कुराती हुई
आती हो कोई
नई सुबह जैसे !
सामाजिक संवेदना से भरी कविता. बहुत सुन्दर.. आँखें नम हो गई..
जवाब देंहटाएंआज के इस स्वार्थांध दौर में जब कहीं किसी के उरोद्गम से संवेदना के स्वरों की गंगा निर्झरित होती देखता हूँ तो मुझे अनिर्वचनीय प्रसन्नता होती है...कमोवेश यही प्रसन्नता आपके ब्लॉग से लेकर वापस जा रहा हूँ...पुनः आऊँगा ही!
जवाब देंहटाएंहाँ...जाने से पहले एक विनम्र सुझाव! यह कि- "...बजा रहा था
सारंगी पर वह धुनें जो थी जमाने के लिए..." में एक शब्द आया है ‘वह’। इसकी जगह ‘वे’ कर दें। करण कि ‘धुनें’ शब्द बहुवचन है जबकि ‘वह’ एकवचन है।
रॉय साहेब और जौहर साहेब, आपको कविता पसंद आई इसकी मुझे बहुत खुशी हुई क्योंकि आप जैसे संवेदनशील कवि एवं लेखक ह्रदय से हमारे साथ हैं और सबके लिए फिक्रमंद रहते हैं. यह कविता एक वास्तविकता पर आधारित है. इस लड़के को मैंने रेलगाड़ी में गाते व बजाते हुए देख कर ही यह कविता लिखी थी. आपके सुझाव के अनुसार लेखन में शुद्धि कर दी गई है. धन्यवाद.
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