My expression in words and photography

शनिवार, 27 नवंबर 2010

नई सुबह

एक लड़का
मैंने देखा
एक लड़का
जो गा रहा था
और बजा रहा था
सारंगी पर वे धुनें
जो थी जमाने के लिए
चला जा रहा था बस
अपनी ही धुन में
वह सबका
मनोरंजन करता हुआ
मुसीबत का मारा
लाचार बेबस
पैबंद लगे थैले में
ढो रहा था
शायद अपनी गरीबी
बढ़ता जा रहा था
आगे की ओर कहीं
अनजान पथ पर वह

आखिर क्यों होता है
ये सब
जमाने ने बनाया
गरीब इसको
होता है सबका
मनोरंजन क्यों इससे
मिलता है बदले में जो
रख लेता है वह उसको
न जाने कब लौटेंगे
वो दिन
जब गायेगा वह गीत
अपने लिए
और रहेगा जमाने में
फिर ऐसे
मुस्कुराती हुई
आती हो कोई
नई सुबह जैसे !

3 टिप्‍पणियां:

  1. सामाजिक संवेदना से भरी कविता. बहुत सुन्दर.. आँखें नम हो गई..

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  2. आज के इस स्वार्थांध दौर में जब कहीं किसी के उरोद्‌गम से संवेदना के स्वरों की गंगा निर्झरित होती देखता हूँ तो मुझे अनिर्वचनीय प्रसन्नता होती है...कमोवेश यही प्रसन्नता आपके ब्लॉग से लेकर वापस जा रहा हूँ...पुनः आऊँगा ही!

    हाँ...जाने से पहले एक विनम्र सुझाव! यह कि- "...बजा रहा था
    सारंगी पर वह धुनें जो थी जमाने के लिए..." में एक शब्द आया है ‘वह’। इसकी जगह ‘वे’ कर दें। करण कि ‘धुनें’ शब्द बहुवचन है जबकि ‘वह’ एकवचन है।

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  3. रॉय साहेब और जौहर साहेब, आपको कविता पसंद आई इसकी मुझे बहुत खुशी हुई क्योंकि आप जैसे संवेदनशील कवि एवं लेखक ह्रदय से हमारे साथ हैं और सबके लिए फिक्रमंद रहते हैं. यह कविता एक वास्तविकता पर आधारित है. इस लड़के को मैंने रेलगाड़ी में गाते व बजाते हुए देख कर ही यह कविता लिखी थी. आपके सुझाव के अनुसार लेखन में शुद्धि कर दी गई है. धन्यवाद.

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