पटना (बिहार) में सामाजिक समारोह के दौरान एक सात
वर्षीय बच्चे ने कहा कि अगर वह प्रधानमंत्री बन गया तो देश के सभी निजी स्कूलों को
बंद करवा देगा. कमोबेश इसी तरह की टिप्पणियाँ बहुत से अभिभावक भी करते रहते हैं.
उक्त घटना से यह स्पष्ट है कि अधिकतर लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढाना
तो चाहते हैं परन्तु इसके लिए अधिक फीस देना उन्हें गवारा नहीं है. हमारे देश में सरकारी
स्कूलों की फीस तो बहुत कम है किन्तु वहाँ की पढ़ाई एक दम बेकार है. आज एक आम आदमी
इसी ऊहापोह में फंस कर रह गया है कि वह अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढाए या
सरकारी स्कूलों में! यह समस्या इतनी गंभीर नहीं है परन्तु लोग इस पर सार्थकता से
विचार करने को भी कतई तैयार नहीं हैं.
जरा सोचिए कि निजी स्कूल बिना किसी सरकारी सहायता के
इतनी अच्छी सुविधाएं कैसे जुटा लेते हैं? अधिकतर मामलों में इन्हें जमीन भी अपने
ही रुपयों से खरीदनी पड़ती है. इनकी इमारतें सरकारी स्कूलों से बहुत भव्य एवं अच्छी
होती हैं. यदि बैठने के स्थान की तुलना करें तो निजी स्कूलों की कक्षाएं अत्यंत
आरामदेह परिस्थितियों में आयोजित की जाती हैं. निजी स्कूलों में बच्चों की
अभिरुचियों पर विशेष ध्यान दिया जाता है. बच्चों के सर्वांगीण विकास हेतु नाना
प्रकार के साधन जुटाए जाते हैं. सरकारी स्कूलों की तुलना में निजी स्कूल के
अध्यापक बहुत कम वेतन लेते हैं जबकि उन्हें यहाँ कड़ी मेहनत से पढाना पड़ता है. इन
सब बातों में कुछ अपवाद भी हो सकते हैं परन्तु अधिकतर मामलों में ये सब बातें सत्य
ही है.
सरकारी स्कूलों में अध्यापकों की नियुक्तियां किस
प्रकार होती हैं, यह अब जगजाहिर है. अभी हाल ही में जम्मू तथा कश्मीर हाईकोर्ट के
न्यायधीश ने अपनी एक टिप्पणी में सरकारी स्कूल के एक अध्यापक के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही
करने को कहा है जो ‘गाय’ पर निबंध तक नहीं लिख सका. फिर उस अध्यापक ने कहा कि वह
गणित का अच्छा ‘जानकार’ है लेकिन पूछने पर चौथी कक्षा के गणित से मामूली प्रश्न भी
हल नहीं कर पाया. हमारे देश के अधिकतर सरकारी स्कूलों की स्थिति लगभग इसी तरह की
है. अगर आज सभी अध्यापकों का टेस्ट लिया जाए तो मालूम होगा कि उनमें से आधे तो
शिक्षक बनने के लायक ही नहीं हैं. आजकल सरकारी स्कूलों में नियुक्ति पाने के लिए
लोग मोटी रिश्वत देने को तैयार हो जाते हैं परन्तु जब इन स्कूलों में अपने बच्चे
पढाने की बात सामने आती है तो सभी कन्नी काटने लगते हैं.
कुछ लोगों का सुझाव है कि सभी अध्यापकों एवं सरकारी
अफसरों के बच्चों को जबरदस्ती सरकारी स्कूलों में पढाने के लिए दबाव डाला जाए ताकि
इन स्कूलों का शैक्षिक वातावरण बेहतर हो सके. क्या इस प्रकार इस् समस्या का हल
सम्भव है? कदाचित नहीं. जब तक हम सरकारी स्कूलों में नियुक्त होने वाले अध्यापकों
की शिक्षा एवं अनुभव पर ध्यान नहीं देंगे तब तक इन स्कूलों का स्तर सुधरने वाला
नहीं है. सरकार को चाहिए कि वह शिक्षकों की शैक्षिक गुणवत्ता समय-समय पर जांचती
रहे ताकि फर्जी डिग्री एवं घूस देकर नियुक्तियां प्राप्त लोग यहाँ नौकरी प्राप्त न
कर सकें. जो लोग येन-केन-प्रकारेण इस व्यवसाय में जबरन घुस आए हैं उन्हें बाहर का
रास्ता दिखाने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए. अगर हमारे देश के शिक्षक ही नालायाक
होंगे तो हमारी भावी पीढ़ी कैसी होगी? आज देश में सभी प्रकार की नौकरियाँ पाने के
लिए लंबी कतारें लगी हुई हैं. जो व्यक्ति अपने जीवन में कोई भी नौकरी पाने में असमर्थ
रहता है, वह अध्यापक बन जाता है. ऐसा क्यों होता है? क्या इस ‘नोबल’ व्यवसाय के
लिए उच्च योग्यता के मापदंड नहीं होने चाहिएं? सरकार भी शिक्षा के नाम पर
केन्द्रीय बजट से मामूली राशि का आबंटन करके पल्ला झाड लेती है. अगर हमारे
विश्वविद्यालय तथा स्कूल आज विश्व के
शीर्ष संस्थानों में नहीं गिने जाते तो यह सब किसका दोष है? आखिर जैसा पेड़ लगाएंगे
उस पर फल भी वैसा ही आएगा न!
जहां देखो, तहां देश की राज्य सरकारें बजट के अभाव
में कम तनख्वाह पर ‘गेस्ट’ अध्यापकों की नियुक्तियां करने लगी हैं. बाद में यही
अध्यापक पूरे वेतन तथा स्थायी नौकरी की माँग करते हैं. वोटों के दबाव में सरकार
इनके साथ समझौता करती है तथा यहीं से शुरू हो जाते है हमारे छात्रों के बुरे दिन.
इस लेख का उद्देश्य सुपात्र अध्यापकों को नौकरी से वंचित करना नहीं है किन्तु
गेस्ट अध्यापकों को बिना किसी परीक्षा के सकूलों में स्थायी नियुक्ति कैसे दी जा
सकती है? हाँ, यदि इनमें कुछ योग्य अध्यापक हैं तो उन्हें अवश्य ही सरकारी स्कूलों
में लगाया जाना चाहिए. हमारे अधिकतर सरकारी स्कूलों की स्थिति आज अत्यंत दयनीय हो
चुकी है. अध्यापक या तो समय पर नहीं आते या कभी-कभार ही स्कूल में दिखाई देते हैं.
भ्रष्टाचार ने हमारे स्कूलों की शिक्षा को उद्देश्यहीन एवं व्यर्थ बना दिया है.
बच्चे स्कूलों में कम तथा ट्यूशन पर अधिक पढते हैं.
आजकल सरकारी स्कूलों में परीक्षा परिणाम बीस प्रतिशत
से भी कम आने लगे हैं. सरकार हर साल अधिक छात्रों को पास करने के लिए विशेष
फार्मूले बनाती है जिसके अंतर्गत कमज़ोर छात्रों को ‘ग्रेस’ अंक दिए जाते हैं. क्या
यह सरकार अपने स्कूलों को भी कभी कोई ‘ग्रेस’ दे पाएगी? यह सिलसिला कब तक चलेगा?
छात्र देश का भविष्य होते हैं. इनके भविष्य से खिलवाड़ करना देशद्रोह के समान होता
है. स्कूलों में केवल योग्य विद्यार्थियों को ही पास करना चाहिए वरना यही अयोग्य
विद्यार्थी दोबारा शिक्षक बन कर आएँगे तथा स्कूल के परिक्षा परिणामों को इसी
प्रकार प्रभावित करते रहेंगे. यदि सरकार के काम चलाने के लिए आई.ए.एस. अफसरों की आवश्यकता
हो सकती है तो स्कूलों के लिए योग्य अध्यापक क्यों नहीं? यदि समय रहते इन स्कूलों
का स्तर नहीं सुधरा तो लोग अपने बच्चों को इनमें पढ़ने के लिए कैसे प्रेरित कर
पाएंगे?
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