My expression in words and photography

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

उबाऊ टी.वी., पकाऊ मीडिया; ठगता रहेगा, बिकाऊ मीडिया!


व्यावसायिक होना बुरी बात नहीं है परन्तु जिस तरह हमारा टी.वी. मीडिया ख़बरों की मार्केटिंग कर रहा है, वह अवश्य ही निंदनीय है. पिछले दिनों बोट क्लब, दिल्ली में एक रैली हुई जिसमें कथित रूप से किसी किसान ने पेड़ पर लटक कर अपनी जान दे दी. हमारा टी.वी. मीडिया जोर-शोर से इस खबर का प्रसारण ही नहीं बल्कि यूं कहें कि सुबह शाम भोंपू की तरह इसका बखान करने में लग गया. ऐसा लगता था कि देश में इस खबर के अतिरिक्त कोई दूसरी खबर है ही नहीं. अगर कोई इनसे पूछे कि जब किसान आत्महत्या कर रहा था तो आप उसकी तस्वीरें उतारने में लगे रहे. क्या आपने उसकी जान बचाने की सोची? अगर चाहते तो मीडिया वाले ही उसकी जान बचा कर देश में सबकी वाह-वाही लूट सकते थे. परन्तु सवाल तो टी.आर.पी. का है न. क्या किसान की जान बचने से इनके चैनल हेतु कोई कहानी बन पाती? फिर अचानक नेपाल में भूकंप आया तथा हज़ारों लोग बेघर हो गए तथा कईयों को अपनी जान गंवानी पडी. मैं यहाँ ये स्पष्ट कर दूँ कि इस लेख का उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष या संस्था पर दोषा-रोपण करना कतई नहीं है. यह लेख तो केवल आत्मचिंतन एवं मंथन करने की कवायद भर ही है जिसे इसी परिपेक्ष्य में लिया जाना चाहिए.
यह ठीक है कि मीडिया को संवेदनशील होते हुए तुरंत ताज़ी ख़बरें लोगों तक पहुंचानी चाहिएं परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि सभी ख़बरों को सनसनीखेज तरीके से पेश किया जाए. ज़रा इसकी एक बानगी तो देखिए! नेपाल में भूकंप, कुदरत का कहर, वहाँ सबसे पहले पहुंचे हम, नेपाल की ताज़ा तस्वीरों के लिए देखते रहिए हमारा चैनल....! अब आप ही बताइए कि ये आप खबरें दे रहे हैं या उनके माध्यम से अपने चैनल का प्रचार कर रहे हैं? कई बार तो ऐसा लगता है कि आप प्राकृतिक आपदा को अपने ढंग से दिखा कर प्रभावित परिवारों के जख्मों पर नमक छिड़क रहे हैं. भूकंप-ग्रस्त क्षेत्रों में पहुंचे विभिन्न चैनलों के विडियो कैमरा ऑपरेटर चाहते हुए भी किसी की सहायता करने की बजाय मुसीबत में फंसे लोगों की टिप्पणियाँ ‘लाइव’ दिखाने लगते हैं. यह न केवल अशोभनीय है अपितु शर्मनाक भी है. पत्रकारों को ऐसे स्थान पर जाने हेतु विशेष अनुमति दी जाती है परन्तु ये लोग केवल ख़बरें दिखाने के बहाने रोते-बिलखते आपदा-ग्रस्त लोगों की तस्वीरें प्रसारित करने लगते हैं.
टी.वी. में समाचार देखने पर मालूम होता है कि पहले किसानों की आत्महत्या से संबंधी ख़बरों का सैलाब आया था फिर उसके बाद आम आदमी पार्टी की रैली का. फिर अचानक भूकंप आने से चैनलों ने नेपाल के भूकंप को ही अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने का माध्यम बना डाला. यदि हमारे न्यूज़ चैनल वाले वास्तव में राहत कार्यों में अपना योगदान देना चाहते तो और भी रचनात्मक ढंग से अपना सहयोग कर सकते थे. परन्तु ये लोग तो केवल वही काम करते हैं जिससे इनकी टी.आर.पी. बढ़ सके. आपने एक बात और नोट की होगी कि जब एक चैनल विज्ञापन दिखा रहा होता है तो अन्य चैनल भी विज्ञापन दिखाने की गंगा में हाथ ढो रहे होते हैं, अर्थात आप विज्ञापन देखने से किसी प्रकार नहीं बच सकते. वैसे तो इन सब चैनलों में कड़ी स्पर्द्धा है किन्तु विज्ञापन दिखाने के समय सभी ने एक जैसे ही निर्धारित किए हैं ताकि इनकी कमाई में कोई फर्क न पड़े.
ख़बरें देखते-देखते अचानक टी.वी. स्क्रीन के नीचे एक पट्टी पर लिखा होता है कि शाम सात बजे जानिए कि किस शहर में हुआ महिला का बलात्कार. कहाँ हुआ भीषण सड़क हादसा? उत्तर प्रदेश में ट्रेन को कैसे लूटा गया? एक कलर्क  ने किस प्रकार भ्रष्टाचार द्वारा अकूत धन-दौलत अर्जित की? जानने के लिए देखते रहिए हमारा न्यूज़ चैनल! अब आप ही बताइए कि ये समाचार चैनल हैं या ख़बरों को महिमा-मंडित करते हुए टी.आर.पी. के भूखे भेड़िए? इसका निर्णय मैं आप लोगों पर छोडता हूँ. सीमा पर लड़ते हुए हमारा जवान शहीद हो जाता है जिस पर राजनैतिक लोग बयानबाजी शुरू कर देते हैं. चैनलों को इस ‘शहादत’ की खबर में कोई दिलचस्पी नहीं परन्तु नेताओं के बयान बार-बार दिखाए जाते हैं ताकि समाचार को सनसनीखेज ढंग से पेश किया जा सके. फिर उसी शाम को स्टूडियो में कुछ विभिन्न दलों के नेताओं को बुला कर बहसबाजी की जाती है जिसका परिणाम लगभग शून्य होता है परन्तु इस बीच इनको विज्ञापनों से भारी-भरकम आय हो जाती है.
अगर न्यूज़ चैनल चाहें तो देश की विभिन्न समस्याओं पर राष्ट्रव्यापी बहस अपने माध्यम से करवा सकते हैं. इस तरह की बहस में अलग अलग राजनैतिक दल के व्यक्तियों को बुलाने की बजाय उस विषय से सम्बंधित विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों, समाजशास्त्रियों, सिविल अफसरों, एन.जी.ओ. आदि से सम्बंधित लोगों को ही आमंत्रित किया जाना चाहिए ताकि वे एक दूसरे पर आक्षेप करने की बजाय चर्चा में सकारात्मक रूख अपना सकें. इस तरह की राष्ट्रीय बहस से अवश्य ही समाज एवं देश का हित होगा. अगर चैनल वाले चाहें तो देश के दर्शकों की प्रतिक्रियाएं भी ले सकते हैं. किसी स्थान पर सड़क दुर्घटना देखने पर फ़ौरन सहायता पहुंचाने हेतु सम्बंधित अधिकारियों से संपर्क साधना चाहिए. ये लोग मीडिया के दर से अपना कार्य तत्परता से करने लगते हैं. इसी तरह बाढ़ग्रस्त एवं भूकंपग्रस्त क्षेत्रों में ये लोग अपना सूचना केन्द्र स्थापित कर सकते हैं जो सबकी सहायता करने हेतु बेहतर समन्वय स्थापित करने में अपनी महती भूमिका अदा कर सकता है. मीडिया चाहे तो लोगों को प्रभावित स्थानों हेतु सामग्री भेजने की अपील कर सकता है जो अभी तक किसी भी टी.वी. चैनल ने नहीं की है. अच्छा काम करने के लिए आपको टी.आर.पी. का लाभ तो नहीं मिलता परन्तु लोगों के दिलों में अवश्य ही आपका सम्मान बढ़ता है.

क्या इस देश में ख़बरों के नाम पर सब कुछ उबाऊ होता जा रहा है? ये लोग टी.वी. दर्शकों को कब तक पकाते रहेंगे? इस बिकाऊ मीडिया से कब मुक्ति मिलेगी? शायद इन सब प्रश्नों का उत्तर दर्शकों के पास भी नहीं है. न जाने कब तक इस देश के लोग ऐसे भौंडे मजाक को देखने के लिए ऐसे ही मजबूर होते रहेंगे!

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