My expression in words and photography

सोमवार, 16 मार्च 2015

खामोश चीखें – एक पुस्तक समीक्षा. (भाग-२)

हरकीरत हीर ने हाल ही में ‘आगमन’ प्रकाशक द्वारा यह कविता संग्रह पाठकों हेतु प्रस्तुत किया है जिसके कुल १२८ पृष्ठ हैं. यह पुस्तक बेजान चीज़ों में भी जान की तलाश करते हुए रूहानियत की नई बुलंदियों को छूने की कोशिश करती हुई प्रतीत होती है. कवयित्री की पंजाबी पृष्ठ भूमि का प्रभाव भी इसमें मुखर होता हुआ जान पड़ता है. कहते हैं पत्थर में खुदा का वजूद है लेकिन सबसे पहले इसे इन्सान ने ही देखा और महसूस किया. मोहब्बत भी कुदरत की बेशकीमती नेमतों में से एक एहसास है जिसका दीदार ना-मुमकिन है लेकिन इसे रूह की गहराइयों से महसूस किया जा सकता है. कहीं ‘कब्र’ में रिश्ते दफन हैं तो कहीं रिश्तों में नफरतों की दरारे हैं. एक अदद ‘तिनका’ .... चाहिए बस ... मोहब्बत को इसी का सहारा है! ऐसा प्रतीत होता है कि कवयित्री ने ‘दर्द’ को गहराइयों से अनुभव करके ही अपनी कविताओं को इस किताब के खाली सफहों यानि ‘कैनवास’ पर उकेरा है. लोग ‘हीर’ को रांझे के कारण जानते होंगे परन्तु राँझा तो उसकी आँखों में साक्षात ‘रब्ब’ को देखता था. कभी-कभी शब्दों के अर्थ इतने गहरे हो जाते हैं कि वे स्वतः बोलने लगते हैं. ‘हीर’ की इन कविताओं में कुछ ऎसी ही अनुभूतियाँ दिखाई देती हैं. इस संग्रह में यथासंभव शब्दों की अपव्ययिता से परहेज़ किया गया है. आपके लिए ‘ईद’ की एक बानगी प्रस्तुत है-
“मैं जब ‘हकीर’ थी
उसके रोज़े ही रोज़े थे
मैं जब ‘हीर’ हुई
उसकी ईद हो गई!”
‘नज़्म’ की बेचारगी पर कहा गया है कि-
”मैं तो नज़्म हूँ
जिसे हर कोई पढता तो है
पर सहेजता कोई नहीं ....”
जो लोग रूहानियत में यकीन रखते हैं उनकी पहुँच सीधे रब्ब तक होती है. कविताएं महज़ लफ़्ज़ों की कारीगरी ही नहीं बल्कि प्रेरणा-स्रोत भी हैं, जैसे एक छोटी से छोटी चिड़िया को भी अपनी ‘उड़ान’ से ये मालूम होना चाहिए कि-
“आकाश सिर्फ खूबसूरत
पंख वालों का ही नहीं
ऊँची उड़ान की सोच
रखने वालों का भी
होता है...!’
‘मिलन’ में मंज़रकशी देखते ही बनती है-
“नज़्म रात
इश्क के कलीरे बाँध
धीमे – धीमे
सीढियां उतर
तारों के घर की ओर
चल पडी ......
खौफज़दा रात
अंगारों पर पानी
डालती रही.....!”
‘माँ’ ... के बारे में लिखा है कि-
.....“आज भी जब देखती हूँ
भरी आँखों से माँ की तस्वीर
उसकी आँखों में
उतर आते हैं
दुआओं के बोल .... !
माजी में स्त्री-पुरुष के परस्पर संबंधों के विषय में बहुत कुछ लिखा जाता रहा है. हमारे समाज में इन दोनों के रिश्तों के बीच असमानता सभी को खलती रही है. “आधा रिश्ता” में इसे यूं उकेरा गया है-
“क्या कहा .... ?
औरत मर्द का
आधा हिस्सा होती है?
बताना तो ज़रा....
तुमने इस आधे हिस्से के बारे
ज़िंदगी में
कितनी बार सोचा........ ?”
कविता संग्रह की कवितायेँ बहुत सहज हैं लेकिन पढ़ने के बाद भी इनका असर दिलो-दिमाग पर छाया रहता है. ‘गुलाब’ में ज़रा इसका जलवा देखिए-
“वक़्त ने कहा
आ तुझे ‘गुलाब’ का फूल दूँ
हवा मुस्कुराई....
पतझड़ का मौसम कभी
रंगीनी नहीं देता हीर ....!”

निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि खामोशी की कोई जुबान नहीं होती, लेकिन कभी-कभी यह खामोशी बुलंद आवाज़ में चीखती हुई अपनी उपस्थिती का आभास करवाती है. हरकीरत ‘हीर’ ने इन्हें “खामोश चीखें’ बता कर पुस्तक के शीर्षक को यथोचित सम्मान देने का सराहनीय प्रयास किया है.   

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