My expression in words and photography

सोमवार, 24 मार्च 2014

व्यक्ति-विशेष बतौर पी.एम. के साइड इफेक्ट


हाल ही में देश के दूसरे सबसे बड़े राजनैतिक दल में टिकटों के बंटवारे को लेकर जो उथल-पुथल मची है, वह थमने का नाम ही नहीं ले रही है. जब इस दल के सबसे बड़े नेता का नाम गुजरात की सूची में नहीं आया तो उसने भोपाल से चुनाव लड़ने की सोच ली. विवाद को बढ़ता देख उसे गांधी नगर सीट से उम्मीदवार बनाया गया. कुछ लोगों ने इन्हें अत्याधिक महत्वाकांक्षी कहा, तो कुछ ने पद का लोभी बताया. कुछ लोगों की राय थी कि इनको अब सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए था क्योंकि काफी उम्र हो गई है! यह निश्चय ही विचारणीय बात है कि क्या राजनीति में सेवा-निवृत्ति की आयु नहीं होनी चाहिए? क्या अधिक बुढापे में व्यक्ति कुछ अधिक मोह-माया का शिकार नहीं होता? क्या उसकी सोच और कार्य-शक्ति अस्सी वर्ष के बाद भी उतनी ऊर्जावान हो सकती है? शायद आने वाला समय ही इन प्रश्नों का उत्तर दे सके.
      राजस्थान से एक वरिष्ठ सांसद को जब बाड़मेर से टिकट नहीं मिला तो उसने भी अपना विरोध-स्वर मुखर कर दिया. यहाँ के ही एक अन्य सांसद को भी टिकट के लिए मना कर दिया गया जो अब स्वतंत्र उम्मेदवार के रूप में चुनाव लड़ रहा है. यही हाल गुजरात के सात बार सांसद रहे श्री हरिन पाठक के साथ हुआ. आप सहज ही अनुमान लगा सकते है कि ऐसा व्यक्ति अपने क्षेत्र के लोगों के बीच कितना लोकप्रिय होगा? उधर बिहार में भी एक सांसद लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए बी.जे.पी. का टिकट नहीं पा सका. इस सारे घटनाक्रम में जो बात सामने आती है वह ये है कि ये सभी लोग तो गलत नहीं हो सकते. जाहिर है पार्टी ने अवश्य ही इनके साथ दुर्व्यवहार किया है. मामला किसी व्यक्ति को टिकट देने या न देने का नहीं है परन्तु पार्टी ने इन सभी क्षेत्रों में जन-भावना की अनदेखी भी की है. क्या ये एक व्यक्ति को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने का साइड-इफेक्ट है? लगता तो कुछ ऐसा ही है.
      पहले पार्टी के शीर्ष नेता का पत्ता काटने की कोशिश, फिर उसके वफादार सांसदों एवं नेताओं की बारी. पार्टी किस हद तक आगे जाएगी कहा नहीं जा सकता. हमारे देश में अपने बड़ों का सम्मान करने की गौरवशाली परम्परा है. लगता है बी.जे.पी. के क्षत्रप यह सब भूल चुके हैं. बरसों से इन्हें सत्ता न मिल पाने की कुंठा तो समझ में आती है परन्तु इसके लिए इतना भी लालायित नहीं होना चाहिए कि अपने आदर्शों, परम्परागत मूल्यों और सिद्धांतों से समझौता करना पड़े! आजकल एक के बाद एक कई लोंग अन्य पार्टियों से बी.जे.पी. में दस्तक देने लगे हैं. इन सब को अपने दल में शामिल करने पर किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए परन्तु अगर आप अपने दल के लोगों की मेहनत का इनाम इन नए लोगों में बांटने लगेंगे, तो ये कब तक चुप बैठेंगे? जाहिर है कोई तो आवाज़ उठाएगा ही. मेरे विचार में सभी को जुल्म और बे-इंसाफी के खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए, चाहे वह अपने परिवार में ही क्यों न हो!
      अब कुछ नेता रक्षात्मक मुद्रा में आकर कहने लगे हैं कि हम वरिष्ठ नेताओं को ‘एडजस्ट’ नहीं कर पाए. ‘एडजस्ट’ तो उसे किया जाता है जो बाद में आता है और बाहर से आता है. जो पहले से ही अंदर है उसे ‘एडजस्ट’ करने की क्या आवश्यकता है? हाँ, किसे ‘एडजस्ट’ करना है या नहीं करना है, ये विशेषाधिकार तो पहले से ही पार्टी के लिए काम करने वालों के पास होना चाहिए. अब सवाल ये है कि क्या इन टिकट-विहीन व्यक्तियों को चुनाव लड़ना चाहिए? हम सब की इच्छा है कि इन्हें अवश्य ही चुनाव लड़ना चाहिए. जीत या हार कोई मायने नहीं रखती परन्तु पार्टी को अपने इस दुस्साहस के लिए ‘सीख’ अवश्य ही देनी चाहिए. पार्टी कर्मठ सदस्यों से बनी है. अगर इन सदस्यों की न सुनी जाए तो इन्हें भी पार्टी पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है.

      इस सारे घटनाक्रम से भी अगर बी.जे.पी. को ‘सीख’ न मिली तो वह निश्चय ही अपनी जीती हुई बाजी हार जाएगी. घमंड का सर हमेशा नीचा होता है. लोगों में वैचारिक मतभेद हो सकते हैं परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि ऐसे लोगों को उठा कर ही बाहर फैंक दें! अगर आपके मित्रों की सूची में आपका कोई विरोधी नहीं है तो यह आपके लिए खतरे की घंटी है. बाहर से घात करने वालों से तो आप सावधान रहते ही हैं, परन्तु सबसे अधिक ख़तरा तो भीतर-घात से होता है. ऐसे में आपके विरोधी आपके लिए बहुपयोगी सिद्ध हो सकते हैं. अगर आप अपनी जय-जयकार करने वाले लोगों से हर-दम घिरे रहेंगे, तो भी यह कोई अच्छा लक्षण नहीं है. सम्भव है आप एक दिन अत्यंत घमंडी और निष्ठुर हो जाएँ! एक अच्छे राजनेता को अपने मित्रों तथा विरोधियों दोनों की ही बात सुन् कर आचरण करना चाहिए. अन्यथा जिस लोकप्रियता के कारण वह शिखर पर पहुंचा है उसी के नकारात्मक प्रभाव द्वारा नीचे भी गिर सकता है.

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