अंतर्द्वंद
रहता हूँ मैं
अनजान जगह पर
ऐसा लगता है जैसे
कोई पेड़ उखाड कर
उगा दिया हो
एक अजनबी और
अनजान सी जगह पर
फिर भी लहलहाता हूँ मैं
बांटता हूँ दुःख-सुख लोगों के
यात्रा पर निकलते हैं जो दूर
थक कर बैठ जाते हैं
मेरी छाया में
और सोचते हैं
आगे बढ़ने की मंजिल पर
दूर करता हूँ मैं
इन सब की थकान
फिर सोचता हूँ कि
मैं कोई अजनबी
अनजान पथ पर नहीं
सब कुछ देखा–देखा सा है
मैं बोल नहीं सकता तो क्या
सुनता तो हूँ सब की बात
बांटता हूँ
सब में खुशियों के पल
बुझती हो जैसे प्यास
बिना पिए जल
सुनकर लोगों की करुण व्यथा
भूल जाता हूँ
मैं अपनी वेदना
पाकर प्रेरणा इन सब से फिर
खड़ा रहता हूँ
मैं एकदम अडिग
जैसे कभी उखड़ा ही न था !
प्रिय बंधुवर अश्विनी कुमार रॉय जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
बहुत ही सुंदर और सात्विक रचना है , संतजन की वाणी सदृश …
लहलहाता हूं मैं !
बांटता हूं दुःख-सुख लोगों के
यात्रा पर निकलते हैं जो दूर
थक कर बैठ जाते हैं
मेरी छाया में …
परोपकार की निस्वार्थ भावना के ये उद्गार अवश्य ही एक निर्मल-निश्छल आत्मा द्वारा ही कलम के माध्यम से साकार हुए हैं …
नमन है आपकी लेखनी को !
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना का लिंक मंगलवार 23 -11-2010
जवाब देंहटाएंको दिया गया है .
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...
वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .
http://zameerzameer1979.blogspot.com/2010/11/145.html
गहन संवेदनाओं की बेहद मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति. आभार.
जवाब देंहटाएंसादर
डोरोथी.
संवेदनशील रचना!
जवाब देंहटाएंमूक रखवाले की भावना को शब्द प्रदान कर दिए इस कविता ने ..
जवाब देंहटाएंआभार !