My expression in words and photography

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

भारत में दलित राजनीति-1

हिंदी भाषा में दलित शब्द का अर्थ ‘शोषित’ बन गया है जो अंग्रेजी के ‘ओप्रेस्ड’ के समतुल्य मानते हुए “oppressed by a sense of failure” द्वारा परिभाषित भी किया गया है. शब्दकोश डॉट कॉम नामक पोर्टल पर इसकी व्याख्या “burdened psychologically or mentally” द्वारा भी की गई है. अर्थात दलित एक ऐसा व्यक्ति है जो मानसिक रूप से दबा हुआ है अथवा जिसे स्वयं के असफल होने का एहसास है. उपर्युक्त शब्दावली से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि कोई भी व्यक्ति अपने जन्म के समय दलित नहीं होता क्योंकि उस समय उसकी मानसिक संवेदनाएं इतनी विकसित नहीं होती जो उसे अपने ‘दलित’ होने का एहसास करवा सकें. अब यह शोध का विषय है कि कोई व्यक्ति ‘दलित’ कैसे बनता है? जब मैं अपनी प्राथमिक पाठशाला में पढता था तो मुझे और मेरे सहपाठियों को यह बिल्कुल भी नहीं मालूम था कि हमारी जाति क्या है.
हम सब साथ-साथ पढते और खेलते थे. जब उच्च-विद्यालय में पहुंचे तो मालूम हुआ कि कुछ विद्यार्थियों की फीस माफ़ है तथा कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें फीस माफी के साथ छात्रवृत्ति की सुविधा प्राप्त हो सकती है. ऐसे सभी छात्रों ने इन सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए अपने आवश्यक घोषणा पत्र एवं जाति प्रमाण-पत्र विद्यालय में जमा करवाए थे. इन्हीं प्रमाण-पत्रों के आधार पर इन्हें वे सब सुविधाएं मिली थी जिनसे सामान्य श्रेणी के सभी छात्र वंचित रहे थे. हमारे बाल-सुलभ मन में फिर भी अपने साथियों की जाति जानने की कोई इच्छा नहीं होती थी. हम सब अपने सहपाठियों के साथ उसी तरह मिल-जुल कर खेलते थे जैसे अपने भाइयों के साथ. कालेज तक पहुंचते-पहुँचते अनुसूचित जाति के छात्रों को और भी अधिक सुविधाएं मिलने लगी थी जिससे कई बार हम जैसे छात्रों को ईर्ष्या का भाव भी होने लगता था. यह जरूरी नहीं था कि इन छात्रों को यह वित्तीय लाभ उनकी खराब आर्थिक दशा के कारण मिलता हो. कुछ ऐसे छात्र भी थे जो आर्थिक रूप से संपन्न परन्तु अनुसूचित जाति के होने के कारण सभी लाभ ले रहे थे.
मुझे अच्छी तरह से याद है कि हम जिस कक्षा में बैठते थे, उसी कक्षा में ही अनुसूचित जाति के छात्र भी होते थे. हमें उनके साथ बैठने में कोई परहेज़ नहीं था. हमारा शिक्षक भी सभी को समान रूप से पढाता था. स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद हमें स्नातकोत्तर कक्षाओं में दाखिले के लिए भी संघर्ष करना पड़ा जबकि हमारे साथ पढ़ने वाले अनुसूचित जातियों के छात्र आसानी से ही आगे दाखिला पाने में सफल हो गए थे. इनके लिए सभी स्थानों पर आरक्षण सुविधा उपलब्ध करवाई गई थी.
पढ़ाई के कारण छात्रों का तनाव-ग्रस्त होना कोई नई बात नहीं है. हम भी परीक्षा के दिनों में पर्याप्त नींद न आने से अक्सर परेशाँ रहते आए हैं. विशेष तौर पर जो छात्र पढ़ाई के साथ छात्र-संघ की गति-विधियों में भाग लेते हैं उन्हें अत्यधिक तनाव का सामना करना पड़ता है. अतः विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत शोधार्थियों को यथासम्भव ऎसी राजनैतिक गतिविधियों से दूर रहना चाहिए ताकि वे अपनी पढ़ाई के लिए अधिक समय निकाल सकें. अक्सर देखा गया है कि विभिन्न राजनैतिक दल से मान्यता प्राप्त करके छात्र परस्पर विरोधी गतिविधियों में भाग लेने लगते हैं तथा अपने उद्देश्य से भटक जाते हैं. सरकार के बदलने पर सबसे अधिक नुक्सान उस राजनैतिक छात्र संघ के सदस्यों को होता है जो सत्ता से बाहर हो. विश्वविद्यालयों में राजनैतिक हस्तक्षेप पर तुरन्त रोक लगनी चाहिए ताकि छात्रों के हितों की रक्षा की जा सके. छात्रों को होने वाला मानसिक तनाव जाति-पाति में विश्वास नहीं करता और यह सभी प्रकार के भेदभावों से परे है परन्तु न्यूज़ मीडिया के प्रतिनिधि अक्सर ऎसी खबर की फिराक में रहते हैं जहां यह तनाव किसी दलित अथवा पिछड़े समुदाय के छात्र को हुआ हो.
यदि कोई ऐसा छात्र तनावग्रस्त हो कर आत्महत्या कर ले तो मीडिया को टी.वी. पर अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के शानदार अवसर मिलते हैं. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारा मीडिया एवं राजनैतिक दल किसी छात्र की मृत्यु पर संवेदना व्यक्त करने के स्थान पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने में अधिक रूचि लेते हैं. हमें अपने छात्रों को हर हाल में शैक्षिक तनाव से बचा कर उनके उज्जवल भविष्य हेतु प्रयास करने चाहिएं.
अभी हाल ही में हैदराबाद के एक छात्र द्वारा आत्महत्या करने पर राजनीति का बाज़ार गर्म हो रहा है. यदि वर्तमान प्रकरण में जान देने वाला विद्यार्थी सामान्य जाति का होता तो शायद कोई हैदराबाद तक जाने की जहमत ही न उठता किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में दिल्ली के मुख्यमंत्री भी अपने समस्त उत्तरदायित्वों को त्याग कर आग में घी डालने हेतु हैदराबाद पहुँच गए. यह अलग बात है कि दिल्ली में कुछ लोग अत्यधिक सर्दी के कारण अपने प्राण गंवा रहे हैं परन्तु मुख्यमंत्री महोदय को इसकी कोई फ़िक्र ही नहीं है.

कमोबेश सभी राजनैतिक दल अपने वोट बैंक में इजाफा करने के लिए इस प्रकार की ओछी हरकतों से बाज़ नहीं आते. क्या देश में कोई न्याय प्रणाली नहीं है? आखिर क़ानून एवं व्यवस्था बनाने वाले लोग भी तो अपना काम करते ही होंगे न! ऐसे में हर नेता किसी न किसी परिणाम तक पहुँच कर अपनी ऊटपटांग राय आगे बढ़ा रहा है! ऐसा लगता है कि सारे देश की केवल एक ही प्राथमिकता है कि किसी तरह उस छात्र की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु से कुछ चुनावी लाभ उठाया जाए. पहले ये लोग धरने-प्रदर्शन करते हैं तथा बाद में हालात बेकाबू होने पर भाग जाते हैं. अन्तोत्गत्वा विश्वविद्यालय के छात्रों को ही इस सबकी कीमत चुकानी पड़ती है. अब तो यही इच्छा है कि ईश्वर सभी पक्षों को सद्बुद्धि प्रदान करे तथा पीड़ित पक्ष को देश के क़ानून के मुताबिक़ न्याय मिले, बस....यही उम्मीद की जा सकती है. आजादी से पूर्व अंग्रेजों ने हमारे समाज में फूट डाली और सौ बरस तक शासन किया. अब हमारे नेता समाज को अगड़े, पिछड़े और दलित समुदायों में बाँट कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. अब तक तो शायद आपको मालूम हो ही गया होगा कि हमारे समाज में ‘दलित’ नाम के शब्द का आविष्कार किसने और क्यों किया! क्रमशः

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