ज़हन तो हक़ की बात करता है
मगर दिल उसकी कहाँ सुनता है.
नफरत की भला सोचे यहाँ कैसे
मोहब्बत को वक्त कहाँ मिलता है.
बे-पनाह मोहब्बत है हमें उससे
नफरत जो शख्स यहाँ करता है.
याद आता हूँ ख्यालों में अक्सर उसको
भूलने की कोशिश जो बारहा करता है.
खो गया वो मेरी ज़िंदगी से आखिर
ख्यालों में हमेशा जो परेशाँ करता है.
दिले-नादां न जाने क्या कहता है ‘सहर’
पागल है वो जो खुद पे गुमाँ करता है.
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