हाल ही में नोबेल शान्ति
पुरस्कार की घोषणा हुई है. नोबेल पुरस्कार समिति ने इस बार यह पुरस्कार स्वात घाटी
पाकिस्तान की मलाला युसुफजई तथा भारत के कैलाश सत्यार्थी को दिया है. हमारी ओर से
इन्हें इस उपलब्धि पर खूब बधाई हो!
नोबेल समिति ने अपने
फैसले में यह भी उल्लेख किया है कि यह पुरस्कार एक हिन्दू व मुसलमान को संयुक्त
रूप से दिया गया है. इसका क्या तात्पर्य हो सकता है? क्या शान्ति पुरस्कार देते
समय भी हिन्दू और मुसलमान का ध्यान रखना आवश्यक है? क्या नोबेल समिति अधिक
संवेदनशील हो गई है या फिर मानव-मानव में भेद करने पर अधिक संवेदनहीन हुई है?
उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी जीवन-पर्यंत अछूतोद्धार हेतु संघर्ष करते रहे,
परन्तु उन्हें कभी भी इस पुरस्कार के योग्य नहीं समझा गया. निःसंदेह आजकल किसी को भी
कोई पुरस्कार मिलता है, तो वह बधाई का पात्र है. जाहिर है सभी भारतीयों को इस पर
खुशी हुई होगी परन्तु इस पुरस्कार की पृष्ठ-भूमि क्या है? अगर हमारे देश में
बच्चों का शोषण न हुआ होता तो क्या यह पुरस्कार किसी को मिल पाता? शायद ये लगभग
असंभव ही था. इसी तरह मलाला युसुफजई पर जान-लेवा हमला न होने की स्थिति में भी यह
पुरस्कार किसी भी हालत में घोषित न हुआ होता.
क्या हमारे संविधान में
बाल-अधिकारों की सुरक्षा के लिए कोई कानूनी व्यवस्था नहीं है? यदि है तो क्या यह
व्यवस्था पर्याप्त नहीं है? ऐसा क्यों होता है कि दीवाली के अवसर पर बनाए जाने वाले
अधिकतर पटाखे हमारे बच्चे अपनी जान को जोखिम में डाल कर बनाते हैं? बाल-श्रमिकों
से जोखिम भरे काम लेना न केवल गैर-कानूनी है अपितु अनैतिक भी है. फिरोजाबाद में मैंने
बहुत से बाल श्रमिकों को चूड़ी उद्योग में अपने हाथ खराब करते हुए देखा है. यह
अत्यंत शर्म की बात है कि हम अपने बच्चों से उनका बचपन छीनते जा रहे हैं. जो काम
सरकार को सख्ती से क़ानून लागू करके करना चाहिए, उसे सामाजिक संगठनो द्वारा अपने
स्तर पर करवाने की चेष्टा होती है. ध्यातव्य है कि अधिकतर बच्चे आज भी देश में
बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं. यह हमारी संवेदनहीनता का ही परिचायक है.
अक्सर देखा गया है कि पहले
हमारी संवेदनहीनता से गैर कानूनी कार्यों को बढ़ावा मिलता है फिर उन्हें छोड़ने व
छुडवाने का प्रयास करने पर पुरस्कृत करके संवेदनशीलता का परिचय दिया जाता है. क्या
कोई सरकार इस तरह मिलने वाले नोबेल पुरस्कार पर अपनी पीठ ठोक सकती है? यह कदापि
सम्भव नहीं है. जब भी इतिहास में इस पुरस्कार का जिक्र होगा तो इसके साथ हमारे
यहाँ बाल-श्रमिकों की दुर्दशा का भी बखान होगा! तो क्या हम इस तरह के पुरस्कार पर
जश्न मना कर अपनी निंदा करवा सकते हैं? शायद हम इतने भी संवेदनहीन नहीं हैं.
उल्लेखनीय है कि बहुत से विकसित देशों में इस प्रकार के कार्यों पर पुरस्कार देने
की नौबत ही नहीं आती. जाहिर है वहाँ इस तरह के कार्य करना सभी नागरिकों का मूलभूत
कर्तव्य है.
तो क्या नोबेल शान्ति पुरस्कारों
का दायरा सीमित होकर रह गया है? इतिहास में कई बार ये पुरस्कार राजनैतिक एवं
भूगोलिक कारणों से भी दिए गए हैं. इससे नोबेल निर्णय समिति की साख को अवश्य ही ठेस
पहुंचती है. पहले कई विश्व-नेताओं को निरस्त्रीकरण एवं शान्ति को बढ़ावा देने के
लिए नोबेल शान्ति पुरस्कार दिया गया था. यदि इन सबकी पृष्ठभूमि देखी जाए तो मालूम
होगा कि ये लोग आरम्भ में तो अस्त्रों की दौड में भाग ले रहे थे और बाद में इस पर
नियंत्रण करके वाह-वाही लूट ले गए. उल्लेखनीय है कि जब देशों में अस्त्र-शस्त्र की
होड़ लगी, तो उन्हें बेच कर धन कमाया. जब सामरिक हितों की खातिर इन पर नियंत्रण
करने की सोची तो नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर खूब मान-सम्मान पाया. क्या इन पुरस्कारों
का कोई मानवीय औचित्य नहीं हो सकता? क्या नोबेल पुरस्कार समिति थोड़ा और संवेदनशील
हो पाएगी?
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