आइए, आपका स्वागत है इस बाज़ार में! यहाँ सब कुछ बिकता
है. आपको दुनिया की हर चीज़ यहाँ मिल सकती है सिवाय एक चीज़ के जिसका न कोई खरीदार
है और न ही कोई बेचवाल. जब तक हम अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, आप इस विषय में सोचते
रहिए.
आजकल के बाजारीकरण व्यवस्था में प्रायः हर वस्तु
बिकने के लिए तैयार है. यह बात अलग है कि कीमत का निर्धारण इसकी आपूर्ति एवं माँग
पर निर्भर करता है. अगर माँग ज्यादा हो और आपूर्ति कम, तो जाहिर है बाज़ार में इसके
मुंह मांगे भी दाम मिल सकते हैं. उपभोक्ता संस्कृति के इस दौर में टी.वी., फ्रिज,
एयरकंडीशनर, वाशिंग मशीन, स्कूटर, कार, बाइक और न जाने क्या-क्या खरीदना चाहते हैं
लोग, लेकिन फिर भी खुश नहीं हैं. कारण स्पष्ट है कि रूपए से आप सामान तो खरीद सकते
हैं, लेकिन खुशियां नहीं.
अगर कोई बीमार है तो उसे बाज़ार से दवाएं तो मिल सकती
हैं, इलाज भी मिल सकता है लेकिन अच्छा स्वास्थ्य भी मिले, इस बात की कोई गारंटी
नहीं. हमें उपभोक्तावाद ने आज मजबूत जंजीरों से जकड लिया है. लोगों में कोई प्रेम
नाम की चीज़ दिखाई नहीं देती. हर व्यक्ति के पास मोबाइल फोन है मगर उसे इस पर भी
बात करने की फुर्सत नहीं. रिश्ते, नाते, मित्र व सम्बन्धी आजकल जेब में हर समय
मौजूद हैं, लेकिन वास्तव में वे सब बहुत दूर हैं. कहते हैं कि टेलीफोन व मोबाइल के
आने के बाद ये दुनिया एक गाँव में तब्दील हो गई है और हर कोई एक दूसरे के करीब आ गया
है. परन्तु हकीकत कुछ और ही है. हम मोबाइल के नज़दीक हैं लेकिन हमारे मित्र व
संबंधी हमसे कोसों दूर हैं. हर रोज सोचते हैं कि कल आराम से बैठ कर उनसे बात
करेंगे, लेकिन कल कभी आती नहीं और सिलसिला इसी तरह चलता रहता है. अगर कोई नाराज़ हो
जाए तो हमें उसे मनाने की फुर्सत नहीं है. अगर मनाने की सोचें तो कोई दूसरी घंटी
बजने लगती है और मामला जहां का तहां रह जाता है.
हमारी हालत यहाँ तक आ पहुंची है कि स्कूल में बच्चे
अपने मां-बाप के स्थान पर किसी भी व्यक्ति को रूपए देकर अपना अभिभावक बना लेते
हैं. जब बच्चे पूरी तरह से बिगड जाते हैं तो पता चलता है कि हम उपभोक्तावाद की
दुनिया में किस तरह लापता हो गए थे. आज के युग में सभी रिश्ते-नाते बिकने लगे हैं.
शादी हो तो आप भाड़े के बाराती इकट्ठे कर सकते हैं. मातम के लिए भी किराए पर लोग
मिल जाते हैं. अगर कुछ नहीं मिलता तो वह है मानसिक शान्ति.
वर्तमान उपभोक्ता संस्कृति को कहीं तो रुकना पडेगा न!
शरीर को आराम की इतनी गंदी लत पड़ गई है कि अब कुछ काम करने को मन ही नहीं होता.
ज़रा सोचिए, इसके लिए आखिर कौन जिम्मेवार है? यह सही है कि कुछ आधुनिक यंत्र हमारे
जीवन को आरामदेह बनाने के साथ कार्य को तेज़ी से कर सकते हैं परन्तु जल्दी काम
निपटने की चाहत में हम अपने आपको भी नष्ट करते जा रहे हैं. कही ऐसा तो नहीं कि एक
दिन हमारे स्थान पर मशीन आ जाए और हम कहीं पर भी मौजूद न हों!
एक खबर के अनुसार अमेरिका के एक घर का दरवाजा पिछले दस
दिनों से बंद था. पड़ोसियों को भी इतनी फुर्सत नहीं थी कि इस विषय में कोई जानकारी
लें. हाँ, कई बार उन्हें कोई संगीत की ध्वनि अवश्य सुनाई दे जाती थी. जब उस घर से
बदबू आने लगी तो पुलिस को बुलाया गया. अंदर का दृश्य देख कर हर कोई हैरान था. सोफे
की एक कुर्सी पर कोई कंकाल बैठा हुआ टी.वी. देख रहा था क्योंकि शरीर के सड़ने-गलने
से अब केवल हड्डियों का ढांचा ही दिखाई दे रहा था. वह वृद्ध व्यक्ति अपने घर में
अकेला ही रहता था. एक दिन टी.वी. देखते हुए उसकी मृत्यु हो गई और किसी को भी इस की
खबर न हो सकी. इस सत्य कथा से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि हम अपनों की बजाए अब
वस्तुओं पर अधिक भरोसा करने लगे हैं. यह अवश्य ही चिंतन का विषय हो सकता है.
आप अधीर हो रहे होंगे कि इस दुनिया में ऎसी कौन-सी
चीज़ है जो नहीं बिकती. जी हाँ, आपका अनुमान सही है. वह चीज़ है ईमान. ईमान को न कोई
खरीद सकता है और न ही बेच सकता है. ईमान सिर्फ अपनों के पास होता है. अगर अपने ही
रूठ जाएँ तो सब कुछ बेकार हो जाता है. अतः हमें अपने अपनों का सम्मान करना चाहिए.
हमारे उनके साथ सम्बन्ध हमेशा मधुर रहने चाहिएं. चीज़ें इस्तेमाल के लिए हैं इन्हें
इस्तेमाल मे लाइए किन्तु इनके लिए अपनों का त्याग हरगिज़ न करें. चीज़ें बाज़ार से
दुबारा भी खरीद सकते हैं लेकिन अपने सगे रिश्तेदार और संबंधी कहीं नहीं मिलते.
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