आजकल चर्चा का विषय है कि माँ-बाप द्वारा बेटियों से किया गया प्रेम ही
निःस्वार्थ और सच्चा प्रेम है. परन्तु मैं इससे सहमत नहीं हूँ. संभवतः सौ में से शायद
एक बेटी को इस तरह का प्रेम मिलता होगा वह भी शिक्षित माँ-बाप के कारण. अन्यथा
अधिकतर मामलों में यह प्रेम अत्यंत निष्ठुर ही है.
जब पढाने-लिखाने की बात आती है तो अधिकतर
माँ-बाप सोचते हैं की बेटी तो पराया धन है इसे बस थोडा बहुत पढ़ा दो ताकि इसे शादी योग्य
बना सकें. येन-केन-प्रकारेण पढ़ा भी दिया तो कोई वोकेशनल मार्गदर्शन नहीं करते और
सब कुछ उसकी भावी ससुराल पर छोड़ देते हैं. उनके अनुसार जिसे नौकरी करवानी होगी वह
जैसा उचित समझे कर लेगा. हमें बेटी की कमाई थोड़े ही खानी है. जब बेटे की बात आती है तो उसे व्यावसायिक शिक्षा
दी जाती है क्योंकि माँ-बाप को उसके कारण घर में उजाला नज़र आता है. उन्हें लगता है
कि भविष्य में ये हमारी सेवा करेगा. बेटे के लिए तो तमाम ज़मीन जायदाद है लेकिन
लड़कियों के लिए कुछ भी नहीं.
जिनके पास बेटे नहीं होते वे भी बाहर से बेटा
गोद लेकर उसे अपना वारिस बना देते हैं किन्तु बेटियों को फूटी कौड़ी भी नहीं देते.
यह सब हमारे समाज में संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है. मैंने कुछ समय पहले भी लिखा
था कि बेटा और बेटी में कोई अंतर नहीं होता. बेटे को ब्याह कर आप बहू लाते हैं जो
किसी की बेटी होती है, आप चाहें तो उसे लाड-प्यार से अपनी बेटी के समकक्ष ला सकते
हैं. इसी प्रकार बेटी को ब्याह कर आप दामाद लाते हैं जो किसी का पुत्र है, किन्तु
आप चाहें तो प्यार व दुलार से उसे अपना पुत्र बना सकते हैं.
आजकल हमें न्यायोचित ढंग से विचार करना होगा कि
हम हमारे बेटों और बेटियों में कोई अंतर नहीं है तथा ये एक दूसरे के पूरक हैं. घर
में इज्ज़त दोनों से ही है. हम एक को लाड दें और दूसरे को ताड़ दें, यह परम्परा अधिक
समय तक व्यवहारिक नहीं हो सकती.- अश्विनी रॉय ‘सहर’
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