पिछली कड़ी में मैंने भारत में तथाकथित ‘दलित’ श्रेणी के
प्रादुर्भाव का उल्लेख किया था. क्या तथाकथित दलित लोग वास्तव में शोषित हैं?
हालांकि भारतीय संविधान सभी नागरिकों को बराबरी के अधिकार देता है फिर भी कुछ
जातियों एवं सम्प्रदायों के व्यक्तियों को सरकार द्वारा विशेषाधिकार दिए गए हैं.
ये विशेषाधिकार देश की आजादी के बाद कुछ ही वर्षों तक जारी रखने की व्यवस्था थी परन्तु
हमारे नेताओं की राजनैतिक पैंतरेबाजी के चलते ये अब भी जारी हैं. वर्तमान
परिस्थितियों में ऐसा प्रतीत होता है कि देश का तथाकथित दलित एवं शोषित समाज कभी
आगे बढ़ना ही नहीं चाहता. उसे तो केवल संविधान द्वारा दी गई विशेष सुविधाओं से ही
सरोकार है. यदि आप किसी व्यक्ति को लाठी के सहारे ही चलाते रहेंगे तो वह कभी भी
अपने पाँव पर खड़ा नहीं हो सकता!
देश में सरकारी नौकरियों के लिए जहां सामान्य श्रेणी के
नवयुवकों को गला-काट स्पर्द्धा से जूझना पड़ रहा है वहाँ तथाकथित दलित एवं पिछड़े
कहीं कम योग्यता से ही अच्छी नौकरी पाने में कामयाब हो जाते हैं. ऎसी व्यवस्था के
कारण जहां कम योग्यता वाले अभ्यर्थी सरकारी कार्यालयों में नियुक्ति पा रहे हैं
वहीं अत्यधिक शिक्षा प्राप्त लोग नौकरी के लिए दर-दर की ख़ाक छान रहे हैं. परिणामस्वरूप
हमारे समाज की विभिन्न जातियों में नफरत और गुस्से का माहौल पनपने लगा है. आज तक
चयनकर्ता अभ्यर्थियों की शक्ल देख कर ही अंक दिया करते थे ताकि सरकारी पदों पर
अपने मन पसंद लोगों की भर्ती की जा सके. हालाँकि प्रधानमंत्री महोदय ने बहुत-सी
नौकरियों के लिए साक्षात्कार की अनिवार्यता को दरकिनार कर दिया है फिर भी इस दिशा
में बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है. साक्षात्कार में किसी छात्र की जाति या
धर्म का अनुमान लगाने या पक्षपात करने की संभावना रहती है जो अब समाप्त हो गई है. इसके
लिए हमारी वर्तमान सरकार अवश्य ही बधाई की पात्र है.
हमें अब ऎसी प्रशासनिक व्यवस्था पर विचार करने की आवश्यकता
है जिससे सामाजिक भेदभाव पूरी तरह समाप्त हो सके. इसके लिए तथाकथित दलितों एवं
पिछडों को सरकारी नौकरियों की भिक्षा नहीं अपितु शैक्षिक योग्यता में उच्चतर स्थान
प्राप्त करने की आवश्यकता है जो स्कूलों में बेहतर पढ़ाई, पढ़ने के उपयुक्त अवसरों
और अच्छे स्कूलों में दाखिले द्वारा ही सम्भव हो सकता है. अयोग्य छात्रों को सरकारी
नौकरियों में ऊंचे पद देने से तथाकथित अगड़ों एवं पिछडों में सामाजिक विद्वेष ही
बढ़ता है. यह तो अब उन तथाकथित ‘दलितों’ को ही तय करना है कि वे ‘दलित’ कहलवा कर
आरक्षण चाहते हैं या स्वयं को अपनी योग्यता के बल पर ऊंचा उठा कर तथाकथित ‘सवर्णों’
के साथ चलना चाहते हैं. कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है. आप आरक्षण छोड़ते हैं
तो आपको अपनी योग्यतानुसार सम्मान मिलता है. अगर स्वयं को दलित अथवा पिछड़ा बता कर
ही कुछ पाना चाहो तो आप अपनी ही नज़रों में ‘बौने’ बने रहते हैं.
कहते हैं कि हर जाति का व्यक्ति साधु हो सकता है परन्तु
साधु लोग कभी आपस में यह प्रश्न नहीं करते कि वह किस जाति से आया है? साधुओं की
पांत में सभी बराबर हैं. इसी प्रकार भारत माँ की हर संतान बराबर है. इन्हें दलित
या पिछड़ा बताना माँ का भी अपमान है. यदि आप भी आत्म-सम्मान से जीना चाहते हैं तो
सब कुछ अपनी योग्यता से हासिल करिए और सर्वोच्च सम्मान पाइए! भिक्षा में लिया गया
सम्मान या आरक्षण द्वारा पाया गया लाभ आपको सरकारी स्थान तो दिलवा सकता है किन्तु
यथोचित सामाजिक सम्मान नहीं. आजकल जाति-पाति में किसी का कोई विश्वास नहीं है. हम
भी जाति-पाति में विश्वास नहीं करते. जब कोई व्यक्ति स्वयं को दलित बताता है तो
हमें बहुत बुरा लगता है क्योंकि ईश्वर ने सभी को एक समान बनाया है. अगर हम सब
बराबर हैं तो स्वयं को ‘दलित’ बताने वाले लोग एक तरह से ईश्वर की रचना का ही अपमान
कर रहे होते हैं. क्या आप ईश्वर का अपमान करना चाहेंगे?
आजकल हैदराबाद विश्वविद्यालय में चल रहे धरना-प्रदर्शन में कुछ
छात्रों ने अपने शिक्षकों पर यह आरोप लगाया है कि वे दलित एवं पिछड़े छात्रों के
साथ भेदभाव करते हैं. यदि यह बात सत्य है तो इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए. क्या
इन आरोपी शिक्षकों की भर्ती में सभी नियमों की अनुपालना हुई थी? सम्भव है ये लोग
भी येन-केन-प्रकारेण शिक्षकों के पद पर पहुंचे हों और अब अपनी मनमानी पर उतर आए
हों. जो व्यक्ति शिक्षा जैसे ‘पुनीत’ विभाग में नियुक्ति पाने के लिए जुगाड़ लगा
सकता है, वह शिक्षण जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए कैसे उपयुक्त हो सकता है?
आजकल कई मामलों में शिक्षकों की शिक्षण गुणवत्ता में कमी पाई गई है. जब शिक्षकों
को ही पर्याप्त ज्ञान नहीं होगा तो वे अपने विद्यार्थियों को क्या सिखाएंगे? यदि
छात्र जान-बूझ कर अपने शिक्षकों को कलंकित कर रहे हैं, तो यह और भी गंभीर मामला
है. विश्वविद्यालयों में राजनैतिक स्वार्थों के कारण कुछ भी सम्भव हो सकता है. अतः
इस प्रकार की सभी घृणित गतिविधियों पर लगाम लाने की आवश्यकता है. जहां तक हमें
स्मरण है, हमारे शिक्षक सभी छात्रों को बराबरी की नज़र से देखते थे और अपना अध्यापन
कार्य करने में किसी से कम न थे. सरकार की आरक्षण नीति के कारण आजकल कुछ ऐसे
अध्यापक भी नियुक्ति प्राप्त कर रहे हैं जिन्हें विद्यार्थियों को शिक्षित करने
हेतु आवश्यक योग्यता अथवा अनुभव न के बराबर है. हाल ही में कुछ राज्यों के उच्च-न्यायालयों
द्वारा उपयुक्त योग्यता के अभाव में बहुत-सी नियुक्तियां रद्द करने की खबर भी सामने
आई थी. आजकल सामान्य श्रेणी के विद्यार्थी अत्यंत विकट परिस्थितियों का सामना कर
रहे हैं. एक तरफ उन्हें आर्थिक अभावों के बा-वजूद स्कूलों में मोटी फीस देनी पड़ती
है तो दूसरी ओर शिक्षा समाप्ति पर आरक्षण व्यवस्था के चलते नौकरी हेतु हर बार
असफलता का मुंह देखना पड़ता है.
प्रस्तुत लेख में दलितों एवं तथाकथित पिछड़े छात्रों का
विरोध करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता! सरकार को चाहिए कि वह भारत के सभी
नागरिकों हेतु शिक्षा के उपयुक्त अवसर सृजित करे. यदि किसी छात्र को शिक्षा में
कोई कठिनाई हो तो उसके लिए विशेष कोचिंग कक्षाओं की व्यवस्था करवाए. लेकिन जब
सरकारी पदों की नियुक्ति का समय आए तो शैक्षिक गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं होना
चाहिए. सभी जातियों एवं धर्मों के लोगों को स्वस्थ स्पर्द्धा का सामना करते हुए ही
अपनी योग्यतानुसार नौकरी मिलनी चाहिए. यह शैक्षिक गुणवत्ता के साथ किया गया समझौता
ही है जो हमारे स्कूलों में शिक्षण गुणवत्ता में आई गिरावट के लिए जिम्मेवार है.
क्या आप प्रथम श्रेणी में पास हुए स्नातकों को छोड़ कर तृतीय श्रेणी के लोगों को
केवल इसलिए शिक्षक लगा सकते हैं क्योंकि वे तथाकथित दलित या पिछड़े वर्ग से हैं?
ऐसा कदाचित नहीं होना चाहिए, क्योंकि अयोग्य शिक्षक भविष्य में अयोग्य छात्रों को
ही आगे बढ़ाएंगे. ऐसे में देश का भविष्य क्या होगा, आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं!
क्या तथाकथित दलितों और पिछड़े वर्ग के लोगों को सामाजिक
असमानता का सामना करना पड़ता है? यह सत्य नहीं है. कुछ विश्वविद्यालयों के छात्रों
ने यह भी आरोप लगाया था कि दलित एवं पिछड़े वर्ग के छात्रों को जान-बूझ कर परीक्षा
में फेल कर दिया जाता है ताकि वे आगे न बढ़ सकें. यह सर्वथा निंदनीय है. जो अध्यापक
ऐसा करते हैं उन्हें इस अक्षम्य अपराध के लिए कड़े से कड़ा दंड दिया जाना चाहिए. परन्तु इस समस्या का समाधान भी कोई इतना कठिन
कार्य नहीं है. अगर सरकार चाहे तो मान्य विश्वविद्यालयों में परीक्षा-पत्रों की
जांच का काम अन्य विश्वविद्यालयों के अध्यापकों से करवा सकती है ताकि किसी
हेरा-फेरी या भेदभाव की कोई गुंजाइश ही न रहे. यू.जी.सी. विश्वविद्यालयों में इस
प्रकार की कोई शिकायत नहीं मिलती जहां हज़ारों की संख्या में छात्र परीक्षा देते
हैं तथा उनकी पहचान का किसी को भी पता ही नहीं चलता. वैसे यह भी सत्य है कि आजकल
देश के मान्य-विश्वविद्यालयों में शिक्षा का स्तर तीव्रता से गिर रहा है. ऐसे
स्थानों पर शिक्षा की गुणवत्ता में तुरन्त सुधार लाए जाने की आवश्यकता है.
निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि सामाजिक समरसता बढ़ाने के
लिए समाज के विभिन्न वर्गों को साथ-साथ चलने की आवश्यकता है. किसी को ऊंचा या नीचा
करने से समस्या का समाधान सम्भव नहीं हो सकता. यदि आरक्षण करना है तो शिक्षा का
आरक्षण करें, ताकि सभी लोगों को शिक्षा के उपयुक्त अवसर प्राप्त हों. क्या आप किसी
ऐसे व्यक्ति को फ़ौज में भर्ती कर देंगे जिसे लड़ना नहीं आता किन्तु वह दलित या
पिछड़े वर्ग से है? क्या पिछड़े वर्ग का कोई ऐसा व्यक्ति जज बनाया जा सकता है जिसे
क़ानून की शिक्षा में सबसे कम अंक मिले हैं? क्या आप सरकारी बस चलाने हेतु किसी
पिछड़े को नियुक्ति देते समय उसकी शैक्षिक योग्यता व ड्राइविंग लाइसेंस की जांच
नहीं करेंगे? क्या आप मेडिकल शिक्षा में न्यूनतम अंक पाने वाले को तथाकथित दलित
समुदाय होने के कारण डाक्टर के पद पर नियुक्ति दे देंगे? अगर आप ऐसा करना उचित
समझते हैं तो फिर देश में एक पिछड़े वर्ग की बटालियन या एक तथाकथित ‘दलित’ बटालियन
क्यों नहीं है? देश में दलितों व पिछडों के अस्पताल क्यों नहीं हैं? क्या आप चाहते
हैं कि तथाकथित दलितों एवं पिछडों की अलग अदालतें बनें? जाहिर है कि हमारे देश में
कोई दलित अथवा पिछड़ा है ही नहीं. हमें सबका साथ और सबका विकास चाहिए जो समाज में
भेदभाव के चलते नहीं हो सकता. आइए, इस समस्या पर एक सार्थक दृष्टिकोण से विचार
करें और आरक्षण रूपी भेदभाव-पूर्ण व्यवस्था को समाप्त करने के लिए अपने कदम आगे
बढ़ाएं. यह हमारे देश के व्यापक हित में ही है.
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