अदबी दुनिया में हरकीरत 'हीर' एक जाना-माना हस्ताक्षर
है. हाल ही में उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. प्रथम पुस्तक का शीर्षक है
“दीवारों के पीछे की औरत” जबकि दूसरी पुस्तक है “खामोश चीखें” जिसकी समीक्षा मैं लेख
के दूसरे भाग में करूँगा. दोनों ही पुस्तकें ‘आगमन’ मेरठ रोड, हापुड द्वारा
प्रकाशित की गई हैं. आप की सभी कविताएं मुक्त-छंद शैली में हैं. वर्षों से व्याप्त
समाज की रुढिवादी परम्पराओं को तोडती हुई ये कवितायेँ एक नए समाज के निर्माण हेतु
अपना मार्ग प्रशस्त करती हुई प्रतीत होती हैं. हमारे समाज में महिलाएं अक्सर परदे
के पीछे रह कर अपने कार्यों का निर्वहन करती आई हैं. परिणाम-स्वरुप इन्हें कई
प्रकार के कष्ट एवं विषमताओं का सामना करना पड़ा है. “परदे के पीछे की औरत” ऎसी सभी
वर्जनाओं को तोड़ कर आज आगे बढ़ना चाहती है. उसकी यही छटपटाहट ही इस पुस्तक में विभिन्न
कविताओं के रूप में मुखर हो कर सामने आई है.
..... अपनी मर्जी से
एक बेटी को जन्म नहीं दे पाती
दीवारों के पीछे की औरत
........... मैं लिख रही हूँ
दीवारों के पार की तेरी कहानी.
अन्यत्र नारी को ‘पत्थर’ मान कर लिखा है.....
“मैं पत्थर थी
अनछपे सफहों की
इक नज़्म उतरी
कानों में सरगोशियाँ की
कुछ शब्दों को मेरी हथेली पर रखा
और ले उडी मुझे
आसमां की ऊंचाइयों पे
जिंदगी से मिलवाने
.......... पत्थर से दो बूँद आंसू गिरे
और मैं जिन्दा हो गई!”
ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी यह पुस्तक एक बहु-पृष्ठीय
कैनवास की तरह है जिसके प्रत्येक सफ्हे पर एक नई शैली का चित्र है. किसी चित्र में
मुस्कराहट है, कहीं खामोशी है, कहीं उम्मीद है तो कहीं ना-उम्मीदी में ‘सत्य का
अलाव” जल रहा है. शब्दों के ताने-बाने में निरंतरता है, गहराई है, जीवन की सच्चाई
है, दर्द है और कहीं इस दर्द को “माँ.....” का साथ भी मिला है..... मानो माँ का बुना
हुआ कोई शाल एक ममतामयी हाथ के रूप में कवयित्री के सर पर रखा हुआ है और वह उस शाल
से अपना सारा दर्द भुला देने में सक्षम हो गई हो ......! शब्दों से कविताओं की
मंज़रकशी देखते ही बनती है. “करवा चौथ” में आपने अपना तस्सवुर कुछ यूं बयान किया
है कि -
.... चाँद तब भी था
चाँद आज भी है
तन्हाइयां तब भी थी
दूरियां अब भी हैं
पर दिलों में कुछ तो है
जो बांधे हुए है अब तक
आज के दिन भीतर कहीं
कुछ सालता है .....!
कहीं शब्द संजीव हो गए हैं तो कहीं मृत.... “चलो यूं
करें
आज सारे शब्दों को इकठ्ठा कर
नज़्म के जिस्म पर
ओढ़ा देते हैं इक कफ़न
और लिख देते हैं
राम नाम सत्य है...!”
कभी स्त्री चंडी बन कर अपने हक़ के लिए लड़ती है तो
कहीं उसकी चीखें दीवारों के पीछे दफ़न होती हुई प्रतीत होती हैं. ऐसे में “महिला
दिवस” के नाम पर हो रहे ढकोसले भी खोखले जान पड़ते हैं. कविताओं में कहीं तो औरत पत्थर
बन जाती है तो कहीं वह पुनर्जीवित हो कर एक ‘तब्शीर’ की ख्वाहिश करने लगती है! पुस्तक
में सफहों के खाली कैनवास पर उकेरी गई इन तस्वीरों को देख कर कुछ लोग इन्हें “कला
की शौक़ीन” भी समझ लेने की भूल कर सकते हैं. परन्तु वास्तविकता तो ये है कि सर्वत्र
ऎसी खामोशी है जिसमें आज की स्त्री की आवाज़ और चीखें दब कर रह गई हैं. वह चहुँ ओर ‘झूठ’
और फरेब से ‘कशमकश’ करती हुई नज़र आती है. ‘घाव’.... गहरे हैं परन्तु अंत में एक
ऐसे वक़्त की परिकल्पना की गई है जिसमें आस्था और प्रेम के पुनर्जीवित होने की
उम्मीद है. यहाँ वक्त को हारा हुआ कहा गया है लेकिन मरा हुआ कदाचित नहीं. शायद यही
इस पुस्तक का उद्देश्य भी था कि तमाम विषमताओं के बा[-वजूद कहीं कोई जीवन की किरण
दिखाई देती है जो एक दिन हमारे समाज को नई राह पर ले जाएगी जहां औरत को दीवारों के
पीछे रहने को मजबूर नहीं होना पड़ेगा! -अश्विनी रॉय ‘सहर’
राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान करनाल (हरियाणा)
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