पी.के. फिल्म देखने से मालूम हुआ कि इसमें बहुत से तथाकथित ‘रोंग’ नम्बरों का उल्लेख है परन्तु यह स्वयं ही एक ‘रोंग’ नंबर है. फिल्म में बहुत से ऊल-जलूल सवाल उठाए गए हैं जबकि इसकी कहानी स्वयं ही सवालों के घेरे में आती हुई जान पड़ती है. फिल्म में ईश्वर के अस्तित्व एवं धर्म गुरुओं पर सवाल उठाया गया है. उल्लेखनीय है कि जब इस फिल्म का नायक शराब की बोतलें उठा कर मस्जिद की तरफ जाता है तो उसे बाहर से ही खदेड़ दिया जाता है जबकि वह मंदिर में बे-धड़क जाकर गल्ले से रूपए निकाल लेता है. वह एक हिन्दू धर्म गुरु से भी मनमाने प्रश्न करता हुआ दिखाया गया है. यह अत्यंत हैरानी की बात है कि नायक ने पूरी फिल्म में अपने धर्म गुरु या पैगम्बर के विषय में कोई प्रश्न नहीं उठाया और न ही कोई नुक्ताचीनी की. इससे यह स्पष्ट होता है कि फिल्म के नायक की सोच कितनी दोगली है?
इस फिल्म का नायक किसी का हाथ पकड़ कर यह तो जान लेता है कि कोई अपनी भाषा कैसे बोलता है तथा उसके मन में क्या है परन्तु यह नहीं जान सकता कि वह किसकी अराधना करता है? उसका धर्म क्या है? वह बार-बार पूछता है कि किसी व्यक्ति का धर्म बताने वाला ठप्पा शरीर पर कहाँ लगा है? यह सब बड़ा हास्यास्पद लगता है. फिल्म के नायक द्वारा देवी-देवताओं की तस्वीरें उठा कर उन्हें लापता बताना भी उसकी ओछी सोच का परिचायक है. इस धरती पर सब लोगों के कपडे पहनने पर सवाल उठाए गए हैं. नायक पूछता है कि जब कौवा कपडे नहीं पहनता तो हमारे कपडे न पहनने पर एतराज़ क्यों हो? फिल्मों में सब कुछ वास्तविकता से परे है.
इस फिल्म के कुछ दृश्यों को बड़े फूहड़ ढंग से दिखाया गया है. कुछ दृश्यों में नायक द्वारा महिलाओं के हाथों को पकड़ना बहुत ही बचकाना लगता है. कुछ दिन पहले इस ‘नायक’ ने स्वयं एक टी.वी. शो में स्वीकार किया था कि अगर हम फिल्मों में महिलाओं का सम्मान नहीं करेंगे तो लोग अपने सार्वजनिक जीवन में भी ऐसा ही करेंगे. स्पष्टतः लोग फिल्मी नायकों को अपने रोल मॉडल के रूप में देखते हैं. पाकिस्तान के पत्रकार जिन्हें निष्पक्ष होना चाहिए, वे भी यह स्वीकार करने से कतराते हैं कि उनका देश भारत में बम-विस्फोट करवाने में किस तरह दिलचस्पी लेता रहता है. कहानी में एक पाकिस्तानी व्यक्ति ‘सरफराज़’ फिल्म की हिन्दुस्तानी नायिका से प्रेम करता हुआ दिखाया गया है. “बिन पूछे मेरा नाम पता, चल दो न साथ मेरे....” गीत गाते हुए सरफराज़ ऐसे लगता है मानो पाकिस्तान भारत को ही सही रास्ते पर चलने की नसीहत दे रहा हो. यह अपने आपमें संसार का आठवां आश्चर्य ही प्रतीत होता है.
चर्चित है कि यह फिल्म अब तक बहुत ही सफल रही है. भारत के सभी सिनेमा घरों में आप चाहे ‘पोर्न’ फ़िल्में लगा कर देख लें, अब तक के सारे रिकॉर्ड टूट जाएंगे. तो क्या अधिक लोगों द्वारा किसी फिल्म को देखना ही इसकी सफलता का परिचायक है? देश में कुछ स्थानों पर इस फिल्म के विरोध में स्वर उठ रहे हैं. मैं व्यक्तिगत रूप से तो इनसे सहमत नहीं हूँ परन्तु उचित-अनुचित में भेद करने वाले फिल्म नायक से यह प्रश्न तो पूछा ही जा सकता है कि वह अपनी भडांस एक विशेष धर्म के प्रति ही क्यों निकालना चाहता है?
फिल्म के कई दृश्य ऐसे भी हैं जिन्हें देख कर मन में करुणा के भाव तो उत्पन्न होते हैं परन्तु कोई हँसी नहीं आती. फिल्म में जो भी गीत-संगीत है वह अच्छा है, तकनीकी दृष्टि से तो सब ठीक-ठाक है लेकिन कहानी बे-सिरपैर व ऊल-जलूल है. फिल्म के एक दृश्य में टिकटों की ब्लैक करने वाले व्यक्ति को घटिया सोच वाला तथा एक बुजुर्ग व्यक्ति को ऐसे धोखेबाज के रोल में दिखाया है जो स्वयं ही ब्लैक में सिनेमा टिकट खरीद लेता है. कहते हैं कि फ़िल्में समाज का आइना होती हैं परन्तु इस फिल्म को देख कर लगता है कि सब कुछ सही नहीं है. अगर आमिर खान फिल्मों को केवल मनोरंजन ही मानते हैं तो टी.वी. पर आकर भारतीय नायिकाओं को ‘फूहड़’ अभिनय करने से क्यों रोकते हैं? अगर फ़िल्में देख कर हमारे नवयुवक नहीं बिगड़ते तो आप विभिन्न उत्पादों के प्रचार हेतु स्वयं को क्यों लगाते हैं? इससे तो यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि लोग आपके द्वारा बताई गई बातों का अनुसरण करने की कोशिश करते हैं चाहे वह सब गलत हो या सही!
यह एक विडम्बना ही है कि जो अच्छा है लोग उस पर कोई ध्यान नहीं देते परन्तु जो बुरा है उससे खूब कमाई करते हैं. ईश्वर के होने या न होने से तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता परन्तु जो लोग ईश्वर के नाम पर अच्छे काम करते हैं वह अवश्य ही अनुकरणीय है. कई लोग राम, अल्लाह, जीसस या अपने गुरु के नाम पर अस्पताल, स्कूल, कालेज व धर्मशालाएं बनवाते हैं जो समाज के हित में है. वहीं कुछ लोग धर्म के नाम पर लोगों को बांटते हैं जो बुरी बात है. देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इन दोनों तरह के लोगों पर फ़िल्में बना कर रुपया कमाते हैं जिनके बारे में आप स्वयं ही फैसला कर सकते हैं कि ये सब अच्छा है या बुरा!
इस फिल्म का नायक किसी का हाथ पकड़ कर यह तो जान लेता है कि कोई अपनी भाषा कैसे बोलता है तथा उसके मन में क्या है परन्तु यह नहीं जान सकता कि वह किसकी अराधना करता है? उसका धर्म क्या है? वह बार-बार पूछता है कि किसी व्यक्ति का धर्म बताने वाला ठप्पा शरीर पर कहाँ लगा है? यह सब बड़ा हास्यास्पद लगता है. फिल्म के नायक द्वारा देवी-देवताओं की तस्वीरें उठा कर उन्हें लापता बताना भी उसकी ओछी सोच का परिचायक है. इस धरती पर सब लोगों के कपडे पहनने पर सवाल उठाए गए हैं. नायक पूछता है कि जब कौवा कपडे नहीं पहनता तो हमारे कपडे न पहनने पर एतराज़ क्यों हो? फिल्मों में सब कुछ वास्तविकता से परे है.
इस फिल्म के कुछ दृश्यों को बड़े फूहड़ ढंग से दिखाया गया है. कुछ दृश्यों में नायक द्वारा महिलाओं के हाथों को पकड़ना बहुत ही बचकाना लगता है. कुछ दिन पहले इस ‘नायक’ ने स्वयं एक टी.वी. शो में स्वीकार किया था कि अगर हम फिल्मों में महिलाओं का सम्मान नहीं करेंगे तो लोग अपने सार्वजनिक जीवन में भी ऐसा ही करेंगे. स्पष्टतः लोग फिल्मी नायकों को अपने रोल मॉडल के रूप में देखते हैं. पाकिस्तान के पत्रकार जिन्हें निष्पक्ष होना चाहिए, वे भी यह स्वीकार करने से कतराते हैं कि उनका देश भारत में बम-विस्फोट करवाने में किस तरह दिलचस्पी लेता रहता है. कहानी में एक पाकिस्तानी व्यक्ति ‘सरफराज़’ फिल्म की हिन्दुस्तानी नायिका से प्रेम करता हुआ दिखाया गया है. “बिन पूछे मेरा नाम पता, चल दो न साथ मेरे....” गीत गाते हुए सरफराज़ ऐसे लगता है मानो पाकिस्तान भारत को ही सही रास्ते पर चलने की नसीहत दे रहा हो. यह अपने आपमें संसार का आठवां आश्चर्य ही प्रतीत होता है.
चर्चित है कि यह फिल्म अब तक बहुत ही सफल रही है. भारत के सभी सिनेमा घरों में आप चाहे ‘पोर्न’ फ़िल्में लगा कर देख लें, अब तक के सारे रिकॉर्ड टूट जाएंगे. तो क्या अधिक लोगों द्वारा किसी फिल्म को देखना ही इसकी सफलता का परिचायक है? देश में कुछ स्थानों पर इस फिल्म के विरोध में स्वर उठ रहे हैं. मैं व्यक्तिगत रूप से तो इनसे सहमत नहीं हूँ परन्तु उचित-अनुचित में भेद करने वाले फिल्म नायक से यह प्रश्न तो पूछा ही जा सकता है कि वह अपनी भडांस एक विशेष धर्म के प्रति ही क्यों निकालना चाहता है?
फिल्म के कई दृश्य ऐसे भी हैं जिन्हें देख कर मन में करुणा के भाव तो उत्पन्न होते हैं परन्तु कोई हँसी नहीं आती. फिल्म में जो भी गीत-संगीत है वह अच्छा है, तकनीकी दृष्टि से तो सब ठीक-ठाक है लेकिन कहानी बे-सिरपैर व ऊल-जलूल है. फिल्म के एक दृश्य में टिकटों की ब्लैक करने वाले व्यक्ति को घटिया सोच वाला तथा एक बुजुर्ग व्यक्ति को ऐसे धोखेबाज के रोल में दिखाया है जो स्वयं ही ब्लैक में सिनेमा टिकट खरीद लेता है. कहते हैं कि फ़िल्में समाज का आइना होती हैं परन्तु इस फिल्म को देख कर लगता है कि सब कुछ सही नहीं है. अगर आमिर खान फिल्मों को केवल मनोरंजन ही मानते हैं तो टी.वी. पर आकर भारतीय नायिकाओं को ‘फूहड़’ अभिनय करने से क्यों रोकते हैं? अगर फ़िल्में देख कर हमारे नवयुवक नहीं बिगड़ते तो आप विभिन्न उत्पादों के प्रचार हेतु स्वयं को क्यों लगाते हैं? इससे तो यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि लोग आपके द्वारा बताई गई बातों का अनुसरण करने की कोशिश करते हैं चाहे वह सब गलत हो या सही!
यह एक विडम्बना ही है कि जो अच्छा है लोग उस पर कोई ध्यान नहीं देते परन्तु जो बुरा है उससे खूब कमाई करते हैं. ईश्वर के होने या न होने से तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता परन्तु जो लोग ईश्वर के नाम पर अच्छे काम करते हैं वह अवश्य ही अनुकरणीय है. कई लोग राम, अल्लाह, जीसस या अपने गुरु के नाम पर अस्पताल, स्कूल, कालेज व धर्मशालाएं बनवाते हैं जो समाज के हित में है. वहीं कुछ लोग धर्म के नाम पर लोगों को बांटते हैं जो बुरी बात है. देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इन दोनों तरह के लोगों पर फ़िल्में बना कर रुपया कमाते हैं जिनके बारे में आप स्वयं ही फैसला कर सकते हैं कि ये सब अच्छा है या बुरा!
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