अभी हाल ही में चुनाव
आयोग ने एक राजनैतिक दल द्वारा लोगों को चाय पिलाने के मामले को गंभीरता से लेते
हुए इस पर एतराज़ किया है. वर्षों से भारतीय संस्कृति में निहित है कि-
आओ, बैठो, पियो पानी
तीनों चीजें मोल न आनी!
शायद आयोग यह भी भूल गया
है कि चाय और पानी हमारे देश में सामान्य शिष्टाचार के अंतर्गत ही आते हैं. आजकल
पानी का एक कप भी तीन रूपए का आता है, तो क्या इसके लिए भी लोगों को बिल चुकाना
होगा? पिछले कई वर्षों से आज तक सभी दल अपने कार्य-कर्ताओं को चाय और पानी बिना
किसी आग्रह के पिलाते आए हैं. अगर हमारे देश का कोई उम्मीदवार पहले चाय का काम
करता था तो इसका अर्थ यह तो नहीं कि हम अपना सामान्य शिष्टाचार ही भूल जाएँ? क्या
चुनाव आयोग लोगों से तू या तुम कह कर केवल इसलिए बात करने लगेगा कि ‘आप’ कहने से
किसी दल का प्रचार होता है? क्या आयोग के सदस्य अपने यहाँ आए व्यक्ति से चाय के
लिए रूपए लेते हैं? चाय पिलाने को रिश्वत कैसे समझा जा सकता है? सरकारी दफ्तरों
में, निजी कंपनियों में, कारखानों में अफसर, मजदूर और अन्य सभी लोग दिन-रात चाय
पीते हैं. क्या सबको चाय पीनी और पिलानी बंद कर देनी चाहिए? क्या सभी राजनैतिक दल
के लोग अब चाय नहीं पिएंगे? तो फिर इस दकियानूसी का क्या अर्थ है? कहीं सारे देश
में चाय को प्रतिबंधित करने का इरादा तो नहीं? क्या सामान्य शिष्टाचार भी चुनाव
संहिता का निरादर कर सकता है? अगर नहीं, तो ये हो-हल्ला कैसा? हम तो किसी भी दल के
सदस्य नहीं हैं और न ही किसी का समर्थन करते हैं. इस मामले को विशुद्ध शिष्टाचार
और भारतीय संस्कृति के परिपेक्ष में देखा जाना चाहिए. किसी भी दल के कार्यालय में
कोई भी व्यक्ति चाय पीता है तो वह इसकी कीमत क्यों दे? यह चुनाव खर्च में भी नहीं
आ सकता, क्योंकि लोग उस दल को वोट देने के लालच में चाय नहीं पी रहे. यह तो केवल
शिष्टाचार है. अगर आपके घर में जा कर कोई चाय पिलाए तो आप इसे रिश्वत कह सकते हैं.
हमारे घर आकर कोई चाय पिएगा तो यह सामान्य शिष्टाचार ही कहलाएगा, कुछ और नहीं!
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