कितना अच्छा था
जब तक थे अजनबी
मैं और तुम
न मुझे तुमसे कुछ स्वार्थ था
और न तुम्हें कोई सरोकार
अपनी अपनी राहों पर चलते हुए
न जाने कब और कैसे
एक दूसरे के करीब आ गए
नजदीकियां बढ़ी तो
एक दूजे के दोस्त बन गए
मोहब्बत हुई तो फिर
नफरत भी सर उठाने लगी
स्वार्थ के अँधेरे में डूब कर
न जाने मन में कहाँ विस्फोट हुआ
अचानक दोस्त दुश्मन लगने लगा
क्या दोस्त होना बुरा है?
अजनबी होते हुए
हम कितने अच्छे थे!
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