अपनी बात कहने का
दूसरों की बात सुनने का.
अपनी बोली के माध्यम से
एक दूसरे को जानने समझने
के बाद अपनी अभिव्यक्ति हेतु
पेश है आप के लिए एक और मंच...
यदि हम पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करते हैं तो सदैव एक बात याद रखनी चाहिए कि सूरज ने जब भी पश्चिम की ओर रुख किया वह डूब गया.
असहिष्णुता
किसी को अपनी बात न कहने देना अथवा दूसरों की अभिव्यक्ति को असंवैधानिक ढंग से लगाम देना आज बढ़ती हुई असहिष्णुता का ही प्रतीक है. लोग दूसरों की बोलती बंद करने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं, जो किसी भी प्रकार से उचित नही है. जीवन कोई एक या दो पल का नही होता अपितु वर्षों की लंबी अवधि से बनता है. फिर हम किसी एक पल में यह कैसे स्वीकार कर लेते हैं कि अब सब कुछ खत्म हो गया है? जबकि यह शाश्वत सत्य है कि जीवन में सबसे अच्छा समय अभी आने वाला है. अगर कुछ बुरा हो रहा है तो यह भी सत्य है कि उससे भी बुरा वक्त आ सकता है. ऎसी परिस्थितियों में हमें विवेक एवं संयम से काम लेने की आवश्यकता पड़ती है. मनुष्य जीवन की अपनी मर्यादाएं हैं जिनका सम्मान किया जाना अति आवश्यक है.
सफल जीवन जीने के लिए अपना व्यवहार सर्वोपरि होता है. अगर आपका बर्ताव अच्छा है तो लोग सर-आँखों पर बिठाते हैं. अक्सर कहा भी जाता है कि ‘बा अदब बा-नसीब, बे-अदब बे-नसीब’ अर्थात जो लोग दूसरों की इज्ज़त नहीं करते, भाग्य भी उनका साथ नहीं देता. जो गाली हमें स्वयं के लिए अच्छी नहीं लगती वह हम दूसरों को कैसे देने की सोच लेते है...यह समझ से परे है. ये सभी बातें परिवार, समाज, प्रदेश एवं राष्ट्रीय स्तर पर भी समान रूप से विचारणीय हैं. अभी हाल ही में अखबारों से पता चला कि अमुक स्थान पर किसी ने एक संभावित वक्ता की ओर जूता उछाल दिया ताकि वह अपनी बात दूसरों के सामने न रख सके. यह अत्यंत हास्यास्पद लगता है. जूता उछाल कर तो उस वक्ता की बात को और भी ज्यादा प्रचार माध्यमों का लाभ मिल गया कि ऎसी कौन सी बात है जो वह कहना चाह रहा था. जबकि जूता उछालने वाले व्यक्ति को सब ने भला-बुरा ही कहा. अपना विरोध प्रकट करने के अनेक लोकतांत्रिक ढंग हो सकते हैं. जब आपको किसी की बात स्वीकार्य न हो तो आप चुपचाप वह स्थान छोड़ कर भी जा सकते हैं. ऐसा करने से वक्ता को स्वतः मालूम हो जाएगा कि श्रोता उसकी बात से सहमति नहीं रखते. यह सभी जानते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. अगर कोई इस मुद्दे के विरोध में कुछ बोलता है तो इससे क्या फर्क पड़ता है? क्या एक व्यक्ति के बोलने या न बोलने पर ही कश्मीर का भविष्य टिका है? हरगिज़ नहीं. फिर इस पर बे-वजह बवाल क्यों? हमारी संस्कृति एवं अनमोल विरासत हमें सदा शान्ति व सहिष्णुता का सन्देश देती आई है. हमारे देश के महान संतों-विचारकों का भी यही मत रहा है कि आपसी प्रेम और भाईचारे का कोई विकल्प नही है. कहा जाता है “मोहब्बत का सफर, कदम दर कदम और नफरत का सफर एक या दो कदम” क्योंकि नफरत के साथ चंद कदम चल कर आप भी थक जाएँगे और हम भी. मोहब्बत का सफर बहुत लंबा और सुहावना होता है जिसमें थकावट की तो कोई गुंजायश ही नही है. पठानकोट के एक अज़ीम शायर जनाब राजेंद्र नाथ ‘रहबर’ ने अपने अश'आर में कुछ यूं कहा है-
मोहब्बत चार दिन की है अदावत चार दिन की है
ज़माने की हकीकत दर हकीकत चार दिन की है
बनाए हैं मकां अहबाब ने लाखों की लागत से
मगर उनमें ठहरने की इजाज़त चार दिन की है.
हमारे देश में अनेकों ज्वलंत समस्याएँ मुंह बाए खडी हैं जिनका समाधान होना ज़रूरी है. हम छोटी छोटी बातों पर अपना विरोध दर्ज करने से बिलकुल भी नहीं झिझकते किन्तु जहां विरोध अपरिहार्य हो वहाँ खामोश बैठे रहते हैं. आज भ्रष्टाचार से हर कोई त्रस्त है. हम सब चाहते हैं कि यथा शीघ्र इस दानव से मुक्ति मिले. परन्तु यह भी कटु सत्य है कि हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग अपने अल्प-कालिक हित साधने के लिए इस दानव की धन-धान्य से सेवा करता रहता है. महात्मा गांधी ने कहा था कि “पाप से घृणा करो, पापी से नहीं”. अतः आज केवल एक या दो भ्रष्टाचारी व्यक्तियों को मार देने से काम नहीं चलेगा अपितु भ्रष्टाचार का ही समूल नाश करने की आवश्यकता है. इन सभी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शांतिपूर्ण संघर्ष से अच्छा कोई अन्य विकल्प नहीं हो सकता. एक सभ्य समाज में शांति एवं सहिष्णुता ही ऐसे हथियार हैं जिन्हें इस धरती पर वर्षों से सफलतापूर्वक आजमाया गया है तथा ये हर बार विजयी होकर सामने आए हैं.
दूसरों की बात सुनने का.
अपनी बोली के माध्यम से
एक दूसरे को जानने समझने
के बाद अपनी अभिव्यक्ति हेतु
पेश है आप के लिए एक और मंच...
यदि हम पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करते हैं तो सदैव एक बात याद रखनी चाहिए कि सूरज ने जब भी पश्चिम की ओर रुख किया वह डूब गया.
असहिष्णुता
किसी को अपनी बात न कहने देना अथवा दूसरों की अभिव्यक्ति को असंवैधानिक ढंग से लगाम देना आज बढ़ती हुई असहिष्णुता का ही प्रतीक है. लोग दूसरों की बोलती बंद करने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं, जो किसी भी प्रकार से उचित नही है. जीवन कोई एक या दो पल का नही होता अपितु वर्षों की लंबी अवधि से बनता है. फिर हम किसी एक पल में यह कैसे स्वीकार कर लेते हैं कि अब सब कुछ खत्म हो गया है? जबकि यह शाश्वत सत्य है कि जीवन में सबसे अच्छा समय अभी आने वाला है. अगर कुछ बुरा हो रहा है तो यह भी सत्य है कि उससे भी बुरा वक्त आ सकता है. ऎसी परिस्थितियों में हमें विवेक एवं संयम से काम लेने की आवश्यकता पड़ती है. मनुष्य जीवन की अपनी मर्यादाएं हैं जिनका सम्मान किया जाना अति आवश्यक है.
सफल जीवन जीने के लिए अपना व्यवहार सर्वोपरि होता है. अगर आपका बर्ताव अच्छा है तो लोग सर-आँखों पर बिठाते हैं. अक्सर कहा भी जाता है कि ‘बा अदब बा-नसीब, बे-अदब बे-नसीब’ अर्थात जो लोग दूसरों की इज्ज़त नहीं करते, भाग्य भी उनका साथ नहीं देता. जो गाली हमें स्वयं के लिए अच्छी नहीं लगती वह हम दूसरों को कैसे देने की सोच लेते है...यह समझ से परे है. ये सभी बातें परिवार, समाज, प्रदेश एवं राष्ट्रीय स्तर पर भी समान रूप से विचारणीय हैं. अभी हाल ही में अखबारों से पता चला कि अमुक स्थान पर किसी ने एक संभावित वक्ता की ओर जूता उछाल दिया ताकि वह अपनी बात दूसरों के सामने न रख सके. यह अत्यंत हास्यास्पद लगता है. जूता उछाल कर तो उस वक्ता की बात को और भी ज्यादा प्रचार माध्यमों का लाभ मिल गया कि ऎसी कौन सी बात है जो वह कहना चाह रहा था. जबकि जूता उछालने वाले व्यक्ति को सब ने भला-बुरा ही कहा. अपना विरोध प्रकट करने के अनेक लोकतांत्रिक ढंग हो सकते हैं. जब आपको किसी की बात स्वीकार्य न हो तो आप चुपचाप वह स्थान छोड़ कर भी जा सकते हैं. ऐसा करने से वक्ता को स्वतः मालूम हो जाएगा कि श्रोता उसकी बात से सहमति नहीं रखते. यह सभी जानते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. अगर कोई इस मुद्दे के विरोध में कुछ बोलता है तो इससे क्या फर्क पड़ता है? क्या एक व्यक्ति के बोलने या न बोलने पर ही कश्मीर का भविष्य टिका है? हरगिज़ नहीं. फिर इस पर बे-वजह बवाल क्यों? हमारी संस्कृति एवं अनमोल विरासत हमें सदा शान्ति व सहिष्णुता का सन्देश देती आई है. हमारे देश के महान संतों-विचारकों का भी यही मत रहा है कि आपसी प्रेम और भाईचारे का कोई विकल्प नही है. कहा जाता है “मोहब्बत का सफर, कदम दर कदम और नफरत का सफर एक या दो कदम” क्योंकि नफरत के साथ चंद कदम चल कर आप भी थक जाएँगे और हम भी. मोहब्बत का सफर बहुत लंबा और सुहावना होता है जिसमें थकावट की तो कोई गुंजायश ही नही है. पठानकोट के एक अज़ीम शायर जनाब राजेंद्र नाथ ‘रहबर’ ने अपने अश'आर में कुछ यूं कहा है-
मोहब्बत चार दिन की है अदावत चार दिन की है
ज़माने की हकीकत दर हकीकत चार दिन की है
बनाए हैं मकां अहबाब ने लाखों की लागत से
मगर उनमें ठहरने की इजाज़त चार दिन की है.
हमारे देश में अनेकों ज्वलंत समस्याएँ मुंह बाए खडी हैं जिनका समाधान होना ज़रूरी है. हम छोटी छोटी बातों पर अपना विरोध दर्ज करने से बिलकुल भी नहीं झिझकते किन्तु जहां विरोध अपरिहार्य हो वहाँ खामोश बैठे रहते हैं. आज भ्रष्टाचार से हर कोई त्रस्त है. हम सब चाहते हैं कि यथा शीघ्र इस दानव से मुक्ति मिले. परन्तु यह भी कटु सत्य है कि हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग अपने अल्प-कालिक हित साधने के लिए इस दानव की धन-धान्य से सेवा करता रहता है. महात्मा गांधी ने कहा था कि “पाप से घृणा करो, पापी से नहीं”. अतः आज केवल एक या दो भ्रष्टाचारी व्यक्तियों को मार देने से काम नहीं चलेगा अपितु भ्रष्टाचार का ही समूल नाश करने की आवश्यकता है. इन सभी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शांतिपूर्ण संघर्ष से अच्छा कोई अन्य विकल्प नहीं हो सकता. एक सभ्य समाज में शांति एवं सहिष्णुता ही ऐसे हथियार हैं जिन्हें इस धरती पर वर्षों से सफलतापूर्वक आजमाया गया है तथा ये हर बार विजयी होकर सामने आए हैं.
अच्छा विषय है, धन्यवाद! ग़लत बातों का विरोध करने के लिये भी कई बार एक असुविधा का सामना करना पड़ता है। बहुत से लोग जानबूझकर असुविधा नहीं लेना चाहते, यह आरामतलबी भ्रष्टाचार की बड़ी सहायक बनती है। इस से सम्बन्धित दूसरी बात यह भी है कि बहुत से लोगों की सहनशक्ति कम और अहंकार अधिक होता है: जिससे वे कुछ भी करने से पहले हर बात को मेरा लाभ-मेरी बुराई जैसे खांचों में डालकर तब निर्णय लेते हैं। जैसे कि आवारा गायों को शेल्टर देना, कश्मीर जाकर स्थिति को समझना या सेना में भर्ती होना कठिन है परंतु नारेबाज़ी आसान है। हाँ, अपनी कमियों का दोष बाहरी संस्कृतियों को देने से मुझे असहमति है। असहिष्णुता भारत की एक बढती हुई बीमारी है - चन्द घटिया लोगों द्वारा शॉर्टकट से नेता बनने का नदीदापन और प्रशासन का नकारापन इस आग में और घी डाल रहा है। और ऐसे प्रकरणों में हम अपनी ज़िम्मेदारी नकार नहीं सकते
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